श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गूजरी महला ५ ॥ दुइ कर जोड़ि करी बेनंती ठाकुरु अपना धिआइआ ॥ हाथ देइ राखे परमेसरि सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥ ठाकुर होए आपि दइआल ॥ भई कलिआण आनंद रूप हुई है उबरे बाल गुपाल ॥१॥ रहाउ ॥ मिलि वर नारी मंगलु गाइआ ठाकुर का जैकारु ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी जिनि सभ का कीआ उधारु ॥२॥६॥१५॥ {पन्ना 499}

पद्अर्थ: कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ के। करी = करूँ, मैं करता हूँ। देइ = दे के। परमेसरि = परमेश्वर ने। राखे = रख लिया है। दुरतु = पाप।1।

ठाकुर = मालिक प्रभू जी। कलिआण = सुख। आनंद रूप = आनंद भरपूर। हुई है = हो जाता है। उबरे = (संसार समुंद्र में डूबने से) बच गए। बाल गुपाल = गुपाल-प्रभू के (दर से आए हुए जीव-) बच्चे।1। रहाउ।

मिलि = मिल के। मिलि वर = वर (प्रभू पति) को मिल के। नारी = नारियों ने (ज्ञानेन्द्रियों ने)। जैकारु = सिफत सालाह। कहु = कह। गुर बलिहारी = गुरू से सदके। उधारु = पार उतारा।2।

अर्थ: हे भाई! मैं (मालिक प्रभू के आगे) दोनों हाथ जोड़ के आरजू करता रहता हूँ। उस मालिक परमेश्वर प्रभू ने हमारी हाथ दे के रक्षा की है और सारे कष्ट और पाप निर्वित कर दिए हैं।

हे भाई! जिन जीवों पर प्रभू जी खुद दयावान होते हैं उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है, गोपाल-प्रभू के (दर से आए हुए वह जीव-) बच्चे (संसार समुंद्र में डूबने से) बच गए (प्रभू के दयाल होने से) आनंद-भरपूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! प्रभू-पति को मिल के मेरी ज्ञानेन्द्रियों ने प्रभू की सिफत सालाह के गीत गाने आरम्भ कर दिए हैं। हे नानक! कह– (ये सारी बरकति गुरू की ही है) मैं उस गुरू से कुर्बान जाता हूँ जिसने (शरण आए) सब जीवों का पार उतारा कर दिया है।2।6।15

गूजरी महला ५ ॥ मात पिता भाई सुत बंधप तिन का बलु है थोरा ॥ अनिक रंग माइआ के पेखे किछु साथि न चालै भोरा ॥१॥ ठाकुर तुझ बिनु आहि न मोरा ॥ मोहि अनाथ निरगुन गुणु नाही मै आहिओ तुम्हरा धोरा ॥१॥ रहाउ ॥ बलि बलि बलि बलि चरण तुम्हारे ईहा ऊहा तुम्हारा जोरा ॥ साधसंगि नानक दरसु पाइओ बिनसिओ सगल निहोरा ॥२॥७॥१६॥ {पन्ना 499}

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। थोरा = थोड़ा, कमजोर। पेखे = मैंने देखे हैं। भोरा = थोड़ा सा।1।

ठाकुर = हे ठाकुर! आहि = है। मोहि = मुझे, मेरे में। निरगुन = गुणहीन। आहिओ = देखा है, चाहा है। धोरा = आसरा, समीपता।1। रहाउ।

बलि = कुर्बान। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। जोरा = जोर, सहारा। बिनसिओ = नाश हो गया। निहोरा = मुथाजी; किसी पर मजबूरन आश्रित हो जाना।2।

अर्थ: हे मालिक प्रभू! तेरे बिना मेरा (और कोई आसरा) नहीं है। मैं निआसरे गुण-हीन में कोई गुण नहीं है। मैंने तेरा ही आसरा देखा है।1। रहाउ।

हे भाई! माता, पिता, भाई, पुत्र, रिश्तेदार- इनका आसरा कमजोर आसरा है। मैंने माया के भी अनेकों रंग-तमाशे देख लिए हैं (इनमें से भी) कुछ भी थोड़ा सा भी (जीव के) साथ नहीं जाता।1।

हे प्रभू! मैं तेरे चरणों से कुर्बान कुर्बान कुर्बान जाता हूँ। इस लोक में और परलोक में मुझे तेरा ही सहारा है। हे नानक! (कह– जिस मनुष्य ने) साध-संगति में टिक के प्रभू के दर्शन कर लिए, उसकी मुथाजगी खत्म हो गई।2।7।16।

गूजरी महला ५ ॥ आल जाल भ्रम मोह तजावै प्रभ सेती रंगु लाई ॥ मन कउ इह उपदेसु द्रिड़ावै सहजि सहजि गुण गाई ॥१॥ साजन ऐसो संतु सहाई ॥ जिसु भेटे तूटहि माइआ बंध बिसरि न कबहूं जाई ॥१॥ रहाउ ॥ करत करत अनिक बहु भाती नीकी इह ठहराई ॥ मिलि साधू हरि जसु गावै नानक भवजलु पारि पराई ॥२॥८॥१७॥ {पन्ना 499}

पद्अर्थ: आल = आलय, घर। जाल = जंजाल। आल जाल = घर के जंजाल। भ्रम = भटकना। तजावै = दूर करा देता है। सेती = साथ। रंगु = प्रेम। लाई = लगाए, बना देता है। द्रिढ़ावै = पक्का कराता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गाई = गा।1।

साजन = हे मित्र! संतु = गुरू। सहाई = मददगार। भेटे = मिलता है। बंध = बंधन। कब हूँ = कभी भी।1। रहाउ।

करत करत = करते करते। नीकी = अच्छी (सलाह)। मिलि = मिल के। साधू = गुरू। भवजलु = संसार समुंद्र। पराई = पड़े, पड़ जाता है।2।

अर्थ: हे मित्र! गुरू ऐसा मददगार है कि जिस मनुष्य को (गुरू) मिल जाता है, उसके माया के बंधन टूट जाते हैं, उसको परमात्मा कभी नहीं भूलता।1। रहाउ।

हे मित्र! (गुरू शरण आए मनुष्य से) घर के जंजाल, भटकना व मोह छुड़वा देता है, और परमात्मा के साथ उसका प्यार बना देता है। (शरण आए मनुष्य के) मन को ये शिक्षा पक्की कर देता है कि सदा आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाता रह।1।

हे नानक! (कह–) अनेकों, और कई किस्म की सोचें-विचारें करते-करते आखिर मैंने दिल में ये निश्चय टिका लिया है कि जो मनुष्य गुरू को मिल के परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता रहता है वह संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है।2।8।17।

गूजरी महला ५ ॥ खिन महि थापि उथापनहारा कीमति जाइ न करी ॥ राजा रंकु करै खिन भीतरि नीचह जोति धरी ॥१॥ धिआईऐ अपनो सदा हरी ॥ सोच अंदेसा ता का कहा करीऐ जा महि एक घरी ॥१॥ रहाउ ॥ तुम्हरी टेक पूरे मेरे सतिगुर मन सरनि तुम्हारै परी ॥ अचेत इआने बारिक नानक हम तुम राखहु धारि करी ॥२॥९॥१८॥ {पन्ना 499}

पद्अर्थ: थापि = पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। कीमति = बराबर की कद्र। रंकु = कंगाल। जोति धरी = अपनी ज्योति का प्रकाश कर देता है।1।

सोच अंदेसा = चिंता फिक्र। ता का = उसचीज का। जा महि ऐक घरी = जिसके टिके रहने में एक घड़ी ही लगती है, जो छिन भंगुर है, जो जल्दी नाश होने वाली है।1। रहाउ।

मेरे सतिगुर = हे मेरे गुरू परमात्मा! अचेत = गाफ़ल, बेसमझ। करी = कर, हाथ।2।

अर्थ: हे भाई! अपने सदा कायम रहने वाले परमात्मा का ही ध्यान धरे रखना चाहिए। (संसार की) उस चीज का क्या चिंता-फिक्र करना हुआ, जो जल्दी ही नाश हो जाने वाली है?।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा (संसारिक पदार्थों को) छिन में पैदा करके छिन में विनाश कर देने की समर्था रखने वाला है, उस परमात्मा के बराबर की कद्र वाला और कोई कहा नहीं जा सकता। परमात्मा राजे को एक छिन में कंगाल बना देता है और नीच कहलवाने वाले के अंदर अपनी ज्योति का प्रकाश कर देता है (जिस करके वह राजाओं वाला आदर-मान प्राप्त कर लेता है)।1।

हे नानक! (कह–) हे मेरे सतिगुरू-प्रभू! मुझे तेरा ही आसरा है, मेरा मन तेरी शरण आ पड़ा है। हे प्रभू! हम तेरे बेसमझ अंजान बच्चे हैं, तू अपना हाथ (हमारे सिर पर) रख के (हमें संसारिक पदार्थों के मोह से) बचा ले।2।9।19।

गूजरी महला ५ ॥ तूं दाता जीआ सभना का बसहु मेरे मन माही ॥ चरण कमल रिद माहि समाए तह भरमु अंधेरा नाही ॥१॥ ठाकुर जा सिमरा तूं ताही ॥ करि किरपा सरब प्रतिपालक प्रभ कउ सदा सलाही ॥१॥ रहाउ ॥ सासि सासि तेरा नामु समारउ तुम ही कउ प्रभ आही ॥ नानक टेक भई करते की होर आस बिडाणी लाही ॥२॥१०॥१९॥ {पन्ना 499}

पद्अर्थ: माही = में। रिद = हृदय। तह = उस हृदय में। भरमु = भटकना। अंधेरा = अंधेरा।1।

जा = जब। सिमरा = मैं याद करता हूँ। ताही = वहीं। प्रतिपालक = हे पालनहार! सलाही = मैं सिफत सालाह करता रहूँ।1। रहाउ।

सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। समारउ = मैं सम्भालता रहूँ। प्रभ = हे प्रभू! आही = मैं लोचता रहूँ। टेक = सहारा। बिडाणी = बेगानी।2।

अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं जब (जहाँ) तुझे याद करता हूँ वहीं तू (आ पहुँचता है)। हे सब जीवों की पालना करने वाले! (मेरे पर) मेहर कर, मैं सदा तेरी ही सिफत सालाह करता रहूँ।1। रहाउ।

हे प्रभू! तू सारे जीवों को दातें देने वाला है (मेहर कर) मेरे मन में (सदा) बसा रह। (हे प्रभू!) तेरे सुंदर कोमल चरण जिस हृदय में टिके रहते हैं, उसमें भटकना नहीं रहती, उसमें माया के मोह का अंधकार नहीं रहता।1।

हे प्रभू! (मेहर कर) मैं हरेक सांस से तेरा नाम (अपने हृदय में) संभाल के रखूँ, मैं सदा तेरे ही मिलाप की तमन्ना करता रहूँ। हे नानक! (कह– हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में) करतार का सहारा बन गया, उसने और बेगानी आस दूर कर दी।2।10।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh