श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 500 गूजरी महला ५ ॥ करि किरपा अपना दरसु दीजै जसु गावउ निसि अरु भोर ॥ केस संगि दास पग झारउ इहै मनोरथ मोर ॥१॥ ठाकुर तुझ बिनु बीआ न होर ॥ चिति चितवउ हरि रसन अराधउ निरखउ तुमरी ओर ॥१॥ रहाउ ॥ दइआल पुरख सरब के ठाकुर बिनउ करउ कर जोरि ॥ नामु जपै नानकु दासु तुमरो उधरसि आखी फोर ॥२॥११॥२०॥ {पन्ना 500} पद्अर्थ: दीजै = देह। जसु = सिफत सालाह का गीत। गावउ = मैं गाऊँ। निसि = रात। अरु = और। भोर = सवेरे। संगि = साथ। पग = पैर। झारउ = मैं झाड़ूँ। इहै = यह ही। मोर = मेरा।1। ठाकुर = हे ठाकुर! बीआ = दूसरा। चिति = चित्त में। चितवउ = मैं याद करता हूँ। रसन = जीभ से। निरखउ = मैं देखता हूँ। ओर = तरफ।1। रहाउ। बिनउ = विनती। करउ = करूँ। कर जोरि = (दोनों) हाथ जोड़ के। उधरसि = (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाएगा। फोर = आँख झपकने जितने समय।2। अर्थ: हे मेरे मालिक! तेरे बिना मेरा और कोई आसरा नहीं है। हे हरी! मैं अपने चित्त में तुझे ही याद करता हूँ, जीभ से तेरी ही आराधना करता हूँ, (और सदा सहायता के लिए) तेरी ओर ही ताकता रहता हूँ।1। रहाउ। हे मेरे मालिक! मेहर कर, मुझे अपना दर्शन दे, मैं दिन-रात तेरी सिफत सालाह के गीत गाता रहूँ, अपने केशों से तेरे सेवकों के पैर झाड़ता रहूँ- बस! यही है मेरे मन की तमन्ना।1। हे दया के घर! हे सर्व-व्यापक! हे सबके मालिक! मैं दोनों हाथ जोड़ के तेरे आगे विनती करता हूँ (मेहर कर) तेरा दास नानक (सदा तेरा) नाम जपता रहे। (जो) मनुष्य तेरा नाम जपता रहेगा वह (संसार समुंद्र में से) आँख झपकने जितने समय में बच निकलेगा।2।11।20। गूजरी महला ५ ॥ ब्रहम लोक अरु रुद्र लोक आई इंद्र लोक ते धाइ ॥ साधसंगति कउ जोहि न साकै मलि मलि धोवै पाइ ॥१॥ अब मोहि आइ परिओ सरनाइ ॥ गुहज पावको बहुतु प्रजारै मो कउ सतिगुरि दीओ है बताइ ॥१॥ रहाउ ॥ सिध साधिक अरु जख्य किंनर नर रही कंठि उरझाइ ॥ जन नानक अंगु कीआ प्रभि करतै जा कै कोटि ऐसी दासाइ ॥२॥१२॥२१॥ {पन्ना 500} पद्अर्थ: ब्रहम लोक = ब्रहमा की पुरी। अरु = और। रुद्र = शिव। ते = से। धाइ = धाय, दौड़ के, हमला बोल के। कउ = को। जोहि न साकै = देख नहीं सकती। मलि = मल के। पाइ = पैर।1। मोहि = मैं। सरनाइ = (गुरू की) शरण में। गुहज = छुपी हुई, गुझी हुई। पावको = पावक, आग। प्रजारै = अच्छी तरह जलाती है। मो कउ = मुझे। सतिगुरि = गुरू ने।1। रहाउ। सिध = योग साधना में महारत जोगी। साधिक = योग साधना करने वाले। जख्य = देवताओं की एक किस्म। नर = मनुष्य। कंठि = गले से। उरझाइ = चिपकी हुई। अंगु = हिस्सा। प्रभि = प्रभू ने। करतै = करतार ने। कोटि = करोड़ों। दासाइ = दासियां।2। अर्थ: (हे भाई! संसार को माया की तृष्णा की आग में जलता देख के) अब मैं (अपने सतिगुरू की) शरण आ पड़ा हूँ। (तृष्णा की) गुझी आग (संसार को) बहुत बुरी तरह जला रही है (इससे बचने के लिए) गुरू ने मुझे (तरीका) बता दिया है।1। रहाउ। (हे भाई!) माया ब्रहमा, शिव, इन्द्र आदि देवताओं पर भी अपना (प्रभाव डाल के) ब्रहमपुरी, शिवपुरी और इन्द्रपुरी पर हमला करती हुई (सांसारिक जीवों की तरफ) आई है। (पर) साध-संगति की ओर (तो ये माया) ताक भी नहीं सकती, (ये माया सत्संगियों के) पैर मल-मल के धोती है।1। योग-साधना में पहुँचे हुए जोगी, योग-साधन करने वाले साधू, जख, किन्नर, मनुष्य - इन सबके गले में माया चिपकी हुई है। पर, हे नानक! अपने दासों का पक्ष उस प्रभू ने उस करतार ने किया हुआ है जिसके दर पर इस तरह की (इस माया जैसी) करोड़ों ही दासियां हैं।2।12।21। गूजरी महला ५ ॥ अपजसु मिटै होवै जगि कीरति दरगह बैसणु पाईऐ ॥ जम की त्रास नास होइ खिन महि सुख अनद सेती घरि जाईऐ ॥१॥ जा ते घाल न बिरथी जाईऐ ॥ आठ पहर सिमरहु प्रभु अपना मनि तनि सदा धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ मोहि सरनि दीन दुख भंजन तूं देहि सोई प्रभ पाईऐ ॥ चरण कमल नानक रंगि राते हरि दासह पैज रखाईऐ ॥२॥१३॥२२॥ {पन्ना 500} पद्अर्थ: अपजसु = बदनामी। जगि = जगत में। कीरति = शोभा। बैसणु = बैठने के लिए जगह। त्रास = सहम। सेती = साथ। घरि = प्रभू चरणों में।1। जा ते = जिसकी बरकति से। घाल = मेहनत। बिरथी = व्यर्थ। मनि = मन में। तनि = हृदय में।1। रहाउ। मोहि = मैं। प्रभ = हे प्रभू! रंगि = प्रेम रंग में। दासह = दासों की। पैज = इज्जत।2। अर्थ: हे भाई! आठों पहर अपने प्रभू का सिमरन करते रहो। हे भाई! मन में हृदय में सदा प्रभू का ध्यान करना चाहिए।1। रहाउ। (हे भाई! सिमरन की बरकति से मनुष्य की पहली) बदनामी मिट जाती है, जगत में शोभा होने लगती है, और परमात्मा की दरगाह में बैठने के लिए जगह मिल जाती है। (हे भाई! सिमरन की सहायता से) मौत का सहम एक पल में खत्म हो जाता है, सुख आनंद से प्रभू-चरणों में पहुँच जाते हैं।1। हे नानक! (कह–) हे दीनों के दुख नाश करने वाले प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। जो कुछ तू खुद देता है जीवों को वही कुछ मिल सकता है। तेरे दास तेरे सुंदर कोमल चरणों के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं, तू अपने दासों की इज्जत स्वयं रखता है।2।13।22। गूजरी महला ५ ॥ बिस्व्मभर जीअन को दाता भगति भरे भंडार ॥ जा की सेवा निफल न होवत खिन महि करे उधार ॥१॥ मन मेरे चरन कमल संगि राचु ॥ सगल जीअ जा कउ आराधहि ताहू कउ तूं जाचु ॥१॥ रहाउ ॥ नानक सरणि तुम्हारी करते तूं प्रभ प्रान अधार ॥ होइ सहाई जिसु तूं राखहि तिसु कहा करे संसारु ॥२॥१४॥२३॥ {पन्ना 500} पद्अर्थ: बिस्वंभर = (विश्व = संसार। भर = पालने वाला), सारे संसार को पालने वाला। को = का। भंडार = खजाने। जा की = जिस (परमात्मा) की। निफल = व्यर्थ। उधार = उद्धार, पार उतारा। मन = हे मन! संगि = साथ। राचु = मस्त रह। जा कउ = जिस (परमात्मा) को। ताहू कउ = उस को ही। जाचु = मांग।1। रहाउ। करते = हे करतार! प्रान अधार = जीवात्मा का आसरा। सहाई = मददगार। कहा करे = क्या बिगाड़ सकता है?।2। अर्थ: हे मेरे मन! जिस को (संसार के) सारे जीव आराधते हैं, तू उस सुंदर कोमल चरणों से प्यार किया कर, तू उसके ही दर से मांगा कर।1। रहाउ। हे मन! वह परमात्मा सारे जगत को पालने वाला है, वह सारे जीवों को दातें देने वाला है, उसके खजाने भगती (के धन) से भरे पड़े हैं। उस परमात्मा की की हुई सेवा भक्ति व्यर्थ नहीं जाती। (सेवा-भक्ति करने वाले का) वह एक छिन में (संसार-समुंद्र से) पार-उतारा कर देता है। हे नानक! (कह–) हे करतार! हे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ, तू ही मेरी जिंद का आसरा है। मददगार बन के जिस मनुष्य की तू रक्षा करता है, सारा जगत (भी अगर उसका वैरी बन जाए तो) उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता।2।14।23। गूजरी महला ५ ॥ जन की पैज सवारी आप ॥ हरि हरि नामु दीओ गुरि अवखधु उतरि गइओ सभु ताप ॥१॥ रहाउ ॥ हरिगोबिंदु रखिओ परमेसरि अपुनी किरपा धारि ॥ मिटी बिआधि सरब सुख होए हरि गुण सदा बीचारि ॥१॥ अंगीकारु कीओ मेरै करतै गुर पूरे की वडिआई ॥ अबिचल नीव धरी गुर नानक नित नित चड़ै सवाई ॥२॥१५॥२४॥ {पन्ना 500} पद्अर्थ: पैज = इज्जत। सवारी = कायम रखी, सँवार दी। गुरि = गुरू ने। अवखधु = दवा। सभु = सारा।1। रहाउ। परमेसरि = परमेश्वर ने। धारि = धर के। बिआधि = रोग, बिमारी। बीचारी = विचारे, सोच मण्डल में टिकाए।1। अंगीकार कीओ = अपने साथ मिलाया, अपने चरणों में जोड़ा। करतै = करतार ने। अबिचल = कभी ना हिलने वाली। नीव = नींव। गुर धरी नीव = गुरू की रखी हुई नींव। चढ़ै सवाई = बढ़ती है।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक की इज्जत स्वयं बढ़ाता है। (परमात्मा का नाम दवा है) गुरू ने जिस मनुष्य को हरि-नाम की दवाई दे दी, उसका हरेक किस्म का ताप (दुख-कलेश) दूर हो गया।1। रहाउ। (कमजोर-दिल लोग देवी की पूजा को चल पड़ते हैं) पर देखो! (परमात्मा ने) मेहर करके हरि गोबिंद (जी) को स्वयं (चेचक के ताप से) बचा लिया। परमात्मा के गुणों को मन में टिका के हरेक रोग दूर हो जाता है, सारे सुख ही सुख प्राप्त हो जाते हैं।1। हे नानक! (कह–) मेरे करतार ने (डोलने से बचा के मुझे) अपने चरणों में जोड़े रखा- यह सारी पूरे गुरू की महानता (के सदका) था। गुरू की रखी हुई हरि-नाम सिमरन की नींव कभी डोलने वाली नहीं है। (ये नींव जिस हृदय-धरा पर रखी जाती है, वहाँ) सदा ही बढ़ती जाती है।2।15।24। नोट: शबद का केन्द्रिया भाव ‘रहाउ’ वाली तुक में है कि प्रभू का नाम सारे रोगों को दूर करने वाला है। इस असूल की प्रौढ़ता करने के लिए उदाहरण के तौर पर गुरू हरि गोबिंद साहिब के अरोग हो जाने का वर्णन किया है। चेचक (माता की बिमारी) से बचने के लिए आस–पड़ोस से देवी पूजन की प्रेरणा हो रही थी, जो अरजन साहिब को कमजोर ना कर सकी। यह शबद ऐसी बिपता के समय रहबरी के रूप में है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |