श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गूजरी महला ५ ॥ कबहू हरि सिउ चीतु न लाइओ ॥ धंधा करत बिहानी अउधहि गुण निधि नामु न गाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ कउडी कउडी जोरत कपटे अनिक जुगति करि धाइओ ॥ बिसरत प्रभ केते दुख गनीअहि महा मोहनी खाइओ ॥१॥ करहु अनुग्रहु सुआमी मेरे गनहु न मोहि कमाइओ ॥ गोबिंद दइआल क्रिपाल सुख सागर नानक हरि सरणाइओ ॥२॥१६॥२५॥ {पन्ना 501}

नोट: शब्द ‘लाइओ, गाइओ’ आदि भूतकाल को वर्तमान काल में समझना है।

पद्अर्थ: कब हू = कभी भी। सिउ = साथ। न लाइओ = नहीं जोड़ा। बिहानी = बीत गई। अउधहि = उम्र। गुणि निधि नामु = सारे गुणों का खजाना हरी का नाम।1। रहाउ।

जोरत = जोड़ते हुए, इकट्ठे करते हुए। कपटे = धोखे से। जुगति = ढंग। धाइओ = भटकता फिरा। केते = कितने? गनीअहि = गिने जा सकते हैं। महा मोहनी = मन को ठगने वाली सबसे बड़ी (माया)। खाइओ = आत्मिक जीवन को खा गई।1।

अनुग्रहु = कृपा। सुआमी = हे स्वामी! गनहु न = ना गिनो, ना विचारो। मोहि कमाइओ = मेरे किए कर्मों को।2।

अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फंसा जीव) कभी अपना मन परमात्मा (के चरनों) से नहीं जोड़ता। (माया की खातिर) दौड़-भाग करते हुए (इसकी) उम्र गुजर जाती है सारे गुणों के खजाने परमात्मा का नाम नहीं जपता।1। रहाउ।

ठॅगी से एक-एक कौड़ी करके माया एकत्र करता रहता है अनेकों ढंग-तरीके बरत के माया की खातिर दौड़ता फिरता है। परमात्मा का नाम भुलाने के कारण इसे अनेकों ही दुख आ घेरते हैं। मन को मोह लेने वाली प्रबल माया इसके आत्मिक जीवन को खा जाती है।1।

हे नानक! (कह–) हे गोबिंद! हे दयालु! हे कृपालु! हे सुखों के समुंद्र! हे हरी! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे मेरे मालिक! मेरे पर मेहर कर, मेरे किए कर्मों की तरफ ध्यान ना करना।2।16।25।

गूजरी महला ५ ॥ रसना राम राम रवंत ॥ छोडि आन बिउहार मिथिआ भजु सदा भगवंत ॥१॥ रहाउ ॥ नामु एकु अधारु भगता ईत आगै टेक ॥ करि क्रिपा गोबिंद दीआ गुर गिआनु बुधि बिबेक ॥१॥ करण कारण सम्रथ स्रीधर सरणि ता की गही ॥ मुकति जुगति रवाल साधू नानक हरि निधि लही ॥२॥१७॥२६॥ {पन्ना 501}

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। रवंत = जपता रह। छोडि = छोड़ के। मिथिआ = झूठे, नाशवंत। आन = और। भगवंत = भगवान।1। रहाउ।

आधारु = आसरा। ईत = इस लोक में। आगै = परलोक में। टेक = सहारा। गोबिंद = हे गोबिंद! गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बिबेक बुधि = अच्छे बुरे कर्म परख करने वाली बुद्धि।1।

करण = जगत। कारणु = मूल। सम्रथ = सारी ही ताकतों वाला। स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी पति। ता की = उस (हरी) की। गही = पकड़ी। मुकति जुगति = माया के मोह से खलासी का वसीला, मुक्ति की जुगती। रवाल साधू = गुरू की चरण धूड़। निधि = खजाना। लही = मिल गई।2।

अर्थ: हे भाई! अपनी जीभ से सदा परमात्मा का नाम सिमरता रह। और झूठे व्यवहारों (के मोह) को छोड़ के सदा भगवान का भजन करा कर।1। रहाउ।

हे गोबिंद! जिन अपने भक्तों को तूने कृपा करके गुरू का ज्ञान बख्शा है, और अच्छे-बुरे की परख कर सकने वाली बुद्धि दी है, तेरा नाम ही उनकी जिंदगी का आसरा बन गया है, इसलोक और परलोक में उनको तेरा ही सहारा है।1।

हे नानक! (कह–) मायावी बंधनों से निजात पाने का तरीका (सिर्फ) गुरू की चरण-धूड़ है, गुरू की शरण पड़ने वाले ने ही परमात्मा का नाम-खजाना हासिल किया है, और, उस परमात्मा की शरण ली है जो सारे जगत का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक है, जो लक्ष्मी का पति है।2।17।26।

गूजरी महला ५ घरु ४ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ छाडि सगल सिआणपा साध सरणी आउ ॥ पारब्रहम परमेसरो प्रभू के गुण गाउ ॥१॥ रे चित चरण कमल अराधि ॥ सरब सूख कलिआण पावहि मिटै सगल उपाधि ॥१॥ रहाउ ॥ मात पिता सुत मीत भाई तिसु बिना नही कोइ ॥ ईत ऊत जीअ नालि संगी सरब रविआ सोइ ॥२॥ कोटि जतन उपाव मिथिआ कछु न आवै कामि ॥ सरणि साधू निरमला गति होइ प्रभ कै नामि ॥३॥ अगम दइआल प्रभू ऊचा सरणि साधू जोगु ॥ तिसु परापति नानका जिसु लिखिआ धुरि संजोगु ॥४॥१॥२७॥ {पन्ना 501}

चउपदे-चार बंदों वाले शबद।

पद्अर्थ: सगल = सारी ही। साध = गुरू।1।

चरण कमल = सुंदर कोमल चरण (कमल फूल के जैसे)। उपाधि = रोग।1। रहाउ।

सुत = पुत्र। ईत ऊत = इस लोक में और परलोक में। जीअ के साथ = जिंद के साथ। रविआ = व्यापक।2।

कोटि = करोड़ों। मिथिआ = व्यर्थ। कामि = काम में। निरमला = पवित्र। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। नामि = नाम में जुड़ने से।3।

अगम = अपहुँच। सरणि साधू जोगु = गुरमुखों को अपनी शरण में रखने की समर्था वाला। जिसु लिखिआ = जिसके माथे पर लिखा। धुरि = धुर दरगाह से। संजोगु = मिलाप।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों की आराधना किया कर, सारे सुख आनंद हासिल कर लेगा, (सिमरन की बरकति से) हरेक रोग मिट जाता है।1। रहाउ।

(हे मन! जीवन-जुगति प्राप्त करने के लिए अपनी) सारी ही समझदारियां छोड़ दे, गुरू का आसरा ले (गुरू की शिक्षा पर चल के) परमेश्वर पारब्रहम प्रभू के गुण गाता रहा कर।1।

हे मन! माता-पिता-पुत्र-मित्र-भाई, परमात्मा के बिना कोई भी (साथ निभने वाला साथी) नहीं है। जो परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है वही इस लोक और परलोक में जीव के साथ रहने वाला साथी है।2।

(हे मन! आत्मिक पवित्रता के वास्ते गुरू की शरण के बिना और) करोड़ों ही यतन और उपाय व्यर्थ हैं, (पवित्रता के लिए इनमें से) कोई भी काम नहीं आ सकता। गुरू की शरण पड़ने से ही मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो सकता है, परमात्मा के नाम में जुड़ने से ही उच्च आत्मिक अवस्था बन सकती है।3।

हे नानक! (कह–) अपहुँच दयावान परमात्मा सब (व्यक्तियों) से ऊँचा है, गुरमुखों को अपनी शरण में रखने (व उपाधियों-व्याधियों से बचाने) की समर्था वाला है। पर वह परमात्मा उसी मनुष्य को मिल सकता है जिसके माथे पर धुर-दरगाह से मिलाप का संजोग लिखा होता है।4।1।27।

गूजरी महला ५ ॥ आपना गुरु सेवि सद ही रमहु गुण गोबिंद ॥ सासि सासि अराधि हरि हरि लहि जाइ मन की चिंद ॥१॥ मेरे मन जापि प्रभ का नाउ ॥ सूख सहज अनंद पावहि मिली निरमल थाउ ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगि उधारि इहु मनु आठ पहर आराधि ॥ कामु क्रोधु अहंकारु बिनसै मिटै सगल उपाधि ॥२॥ अटल अछेद अभेद सुआमी सरणि ता की आउ ॥ चरण कमल अराधि हिरदै एक सिउ लिव लाउ ॥३॥ पारब्रहमि प्रभि दइआ धारी बखसि लीन्हे आपि ॥ सरब सुख हरि नामु दीआ नानक सो प्रभु जापि ॥४॥२॥२८॥ {पन्ना 501}

पद्अर्थ: गुरु सेवि = गुरू की शरण पड़ के। सद = सदा। रमहु = याद करता रह। सासि सासि = हरेक सांस से। चिंद = चिंता।1।

सहज = आत्मिक अडोलता। मिली = मिला रहेगा। निरमल = पवित्र रखने वाला।1। रहाउ।

संगि = संगत में। उधारि = (विकारों से) बचा ले। उपाधि = रोग।2।

अछेद = अविनाशी। अभेद = गहरा, जिसका भेद ना पाया जा सके। लिव = लगन।3।

पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभू ने। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपता रह (सिमरन की बरकति से) सुख, आत्मिक अडोलता, आनंद प्राप्त करेगा, तुझे वह जगह मिली रहेगी जो तुझे हमेशा स्वच्छ रख सके।1। रहाउ।

हे भाई! अपने गुरू की शरण पड़ के सदा ही गोविंद के गुण गाता रह, अपनी हरेक सांस के साथ परमात्मा की आराधना करता रह, तेरे मन की हरेक चिंता दूर हो जाएगी।1।

हे भाई! गुरू की संगति में टिक के अपने इस मन को (विकारों से) बचाए रख, आठों पहर परमात्मा की आराधना करता रह, (तेरे अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार नाश हो जाएगा, तेरा हरेक रोग दूर हो जाएगा।2।

हे भाई! उस मालिक प्रभू की शरण में टिका रह जो सदा कायम रहने वाला है जो नाश-रहित है जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। हे भाई! अपने हृदय में प्रभू के सुंदर कोमल चरणों की आराधना किया कर, परमात्मा के चरणों में प्यार डाले रख।3।

हे भाई! पारब्रहम प्रभू ने जिस मनुष्यों पर मेहर की उनको उसने स्वयं बख्श लिया (उनके पिछले पाप क्षमा कर दिए) उनको उसने सारे सुखों का खजाना अपना हरी-नाम दे दिया। हे नानक! (कह–हे भाई!) तू भी उस प्रभू का नाम जपा कर।4।2।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh