श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 502 गूजरी महला ५ ॥ गुर प्रसादी प्रभु धिआइआ गई संका तूटि ॥ दुख अनेरा भै बिनासे पाप गए निखूटि ॥१॥ हरि हरि नाम की मनि प्रीति ॥ मिलि साध बचन गोबिंद धिआए महा निरमल रीति ॥१॥ रहाउ ॥ जाप ताप अनेक करणी सफल सिमरत नाम ॥ करि अनुग्रहु आपि राखे भए पूरन काम ॥२॥ सासि सासि न बिसरु कबहूं ब्रहम प्रभ समरथ ॥ गुण अनिक रसना किआ बखानै अगनत सदा अकथ ॥३॥ दीन दरद निवारि तारण दइआल किरपा करण ॥ अटल पदवी नाम सिमरण द्रिड़ु नानक हरि हरि सरण ॥४॥३॥२९॥ {पन्ना 502} पद्अर्थ: प्रसादी = कृपा से। संका = शंका, शक, भटकना। निखूटि गऐ = खत्म हो गए।1 मनि = मन में। साध = गुरू। रीति = जीवन जुगत। निरमल = पवित्र।1। रहाउ। अनुग्रहु = दइआ। करि = करके।2। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। रसना = जीभ। बखानै = बताए।3। निवारि = दूर करके, निर्वित्त करके। पदवी = दर्जा।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा के नाम का प्यार पैदा हो जाता है, जो मनुष्य गुरू को मिल के गुरू की बाणी के द्वारा गोबिंद का ध्यान करता है, उसकी जीवन-जुगति बहुत पवित्र हो जाती है।1। रहाउ। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरू की कृपा से अपने हृदय में परमात्मा का ध्यान धरा (उसके अंदर से) डावाँडोल स्थिति खतम हो गई। उसके सारे दुख, उसका माया के मोह का अंधकार, उसके सारे डर दूर हो गए, उसके सारे पाप समाप्त हो गए।1। (हे भाई! जीवन में सफलता देने वाला हरि-नाम ही है) जीवन-सफलता देने वाला प्रभू का नाम सिमरने से सारे जप-तप और अनेकों ही निहित धार्मिक कर्म अपने आप हुए समझो (इनकी आवश्यक्ता ही नहीं पड़ती। सबसे श्रेष्ठ नाम-सिमरन ही है)। हे भाई! परमात्मा मेहर करके जिन मनुष्यों को (अपने चरणों में टिकाए) रखता है उनके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।2। हे भाई! अपनी हरेक सांस के साथ समर्थ ब्रहम परमात्मा को याद करता रह, उसे कभी ना बिसार। उस परमात्मा के बेअंत गुण हैं, गिने नहीं जा सकते, मनुष्य की जीभ उनको बयान नहीं कर सकती। उस परमात्मा का स्वरूप सदा ही बयान से परे है।3। हे भाई! परमात्मा गरीबों के दुख दूर करके उनको संसार-समुंद्र से पार लंघाने के समर्थ है, दया का घर है, वह हरेक पर कृपा करने वाला है उसका नाम सिमरते ही अटल आत्मिक जीवन का दर्जा मिल जाता है। हे नानक! (कह–हे भाई!) हरी-नाम को अपने दिल में पक्का टिकाए रख, परमात्मा की शरण पड़ा रह।4।3।29। गूजरी महला ५ ॥ अह्मबुधि बहु सघन माइआ महा दीरघ रोगु ॥ हरि नामु अउखधु गुरि नामु दीनो करण कारण जोगु ॥१॥ मनि तनि बाछीऐ जन धूरि ॥ कोटि जनम के लहहि पातिक गोबिंद लोचा पूरि ॥१॥ रहाउ ॥ आदि अंते मधि आसा कूकरी बिकराल ॥ गुर गिआन कीरतन गोबिंद रमणं काटीऐ जम जाल ॥२॥ काम क्रोध लोभ मोह मूठे सदा आवा गवण ॥ प्रभ प्रेम भगति गुपाल सिमरण मिटत जोनी भवण ॥३॥ मित्र पुत्र कलत्र सुर रिद तीनि ताप जलंत ॥ जपि राम रामा दुख निवारे मिलै हरि जन संत ॥४॥ सरब बिधि भ्रमते पुकारहि कतहि नाही छोटि ॥ हरि चरण सरण अपार प्रभ के द्रिड़ु गही नानक ओट ॥५॥४॥३०॥ {पन्ना 502} पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंबुद्धि, अहंकार, मैं मैं करने वाली अक्ल। सघन = घनी। दीरघ = दीर्घ, लंबी। अउखधु = दवाई। गुरि = गुरू ने। करण कारण जोगु = जगत के मूल प्रभू से मिला सकने वाला।1। मनि = मन में। तनि = हृदय में। बाछीअै = तमन्ना करनी चाहिए। लहहि = उतर जाते हैं। पातिक = पाप। गोबिंद = हे गोबिंद! लोचा = तमन्ना। पूरि = पूरी करी।1। रहाउ। आदि अंते मधि = सदा ही, हर वक्त। कूकरी = कुत्ती। बिकराल = डरावनी। काटीअै = काट लेते हैं। जम काल = मौत का जाल, आत्मिक मौत का जाल।2। मूठे = ठॅगे हुए, लूटे हुए। आवागवण = जनम मरन का चक्कर। भवण = भटकना।3। कलत्र = स्त्री। सुररिद = सुहृद, मित्र, हार्दिक सांझ वाले। तीनि ताप = (आदि, व्याधि, उपाधि, ये) तीन ताप।4। सरब बिधि = अनेकों तरीकों से। कतहि = कहीं भी। छोटि = खलासी। द्रिढ़ = पक्की तरह। गही = पकड़ी।5। अर्थ: हे भाई! अपने मन में अपने हृदय में परमात्मा के सेवकों की चरण-धूड़ (की प्राप्ति की) चाहत करते रहना चाहिए (और, प्रभू-चरणों में अरदास करनी चाहिए-) हे गोबिंद! (मेरी यह) तमन्ना पूरी कर (क्योंकि ‘जन धूरि’ की बरकति से) करोड़ों जन्मों के पाप उतर जाते हैं।1। रहाउ। हे भाई! अहंकार एक बड़ा लंबा रोग है, माया से गहरा प्यार बड़ा पुराना रोग है (इस रोग से उस भाग्यशाली मनुष्य की खलासी होती है जिसे) गुरू ने परमात्मा का नाम-दारू दे दिया। (हे भाई!) प्रभू का नाम जगत के मूल-प्रभू से मिलाने की स्मर्था रखता हैं1। हे भाई! (मायावी पदार्थों की) आसा (एक) डरावनी कुत्ती (जैसी) है जो हर समय (जीवों के मन में और-और पदार्थों के लिए भौकती रहती है, और, जीवों के वास्ते आत्मिक मौत का जाल बिखेरे रखती है)। आत्मिक मौत का (ये) जाल गुरू के दिए ज्ञान (आत्मिक जीवन के बारे में सही सूझ) और परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाने से काटा जाता है।2। हे भाई! जो मनुष्य काम-क्रोध-लोभ (आदि चोरों) से (अपना आत्मिक जीवन) लुटवाते रहते हैं, उनके वास्ते जनम-मरन का चक्कर सदा बना रहता है। हे भाई! परमात्मा से प्यार डालने पर, गोपाल की भक्ति करने से, हरि-नाम का सिमरन करने से अनेकों जूनियों में भटकन समाप्त हो जाती है।3। हे भाई! मित्र, पुत्र, स्त्री, रिश्तेदार (आदि के मोह में फसने से आधि, व्याधि, उपाधि) तीनों ताप मनुष्य (के आत्मिक जीवन) को जलाते रहते हैं। जो मनुष्य परमात्मा के सेवकों को संत जनों को मिल लेता है वह परमात्मा का नाम सदा जप के (अपने सारे) दुख दूर कर लेता है।4। (हे भाई! ‘विकराल आसा कूकरी’ के पँजे में फंस के जीव) अनेकों तरीकों से भटकते फिरते हैं (और, दुखी हो के) पुकारते हें, किसी भी तरीके से उनकी (इस ‘बिकराल आसा कूकरी’ से) खलासी नहीं होती। हे नानक! (कह– मैंने इससे बचने के लिए) बेअंत प्रभू के चरणों की शरण चरणों की ओट पक्की तरह पकड़ ली है।5।4।30। गूजरी महला ५ घरु ४ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आराधि स्रीधर सफल मूरति करण कारण जोगु ॥ गुण रमण स्रवण अपार महिमा फिरि न होत बिओगु ॥१॥ मन चरणारबिंद उपास ॥ कलि कलेस मिटंत सिमरणि काटि जमदूत फास ॥१॥ रहाउ ॥ सत्रु दहन हरि नाम कहन अवर कछु न उपाउ ॥ करि अनुग्रहु प्रभू मेरे नानक नाम सुआउ ॥२॥१॥३१॥ {पन्ना 502} पद्अर्थ: स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी का सहारा, परमात्मा। सफल मूरति = जिसके स्वरूप का दर्शन जीवन को कामयाब करता है। करण = सृष्टि। कारण = सबब, मूल। जोगु = समर्थ। करण कारण जोगु = जगत का समर्थ मूल। बिओगु = विछोड़ा।1। मन = हे मन! चरणारबिंद = चरण+अरविंद (अरविंद = कमल), चरण कमल। उपास = उपासना कर। कलि = झगड़े। सिमरणि = सिमरन से। फास = फांसी।1। रहाउ। सत्रु = शत्रु। उपाउ = उपाय। अनुग्रहु = दया। सुआउ = स्वार्थ, जीवन उद्देश्य।2। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों की उपासना करता रहा कर। (हरि नाम-) सिमरन की बरकति से सारे दुख-कलेश मिट जाते हैं (सिमरन से) तू जमदूतों की मोह की संगलियां काट दे (क्योंकि वही आत्मिक मौत लाती हैं)।1। रहाउ। हे मन! उस लक्ष्मी-पति प्रभू की आराधना किया कर, जिसके स्वरूप का दर्शन जीवन को कामयाब कर देता है, और, जो जगत का समर्थ मूल है। उस बेअंत परमात्मा की महानता के गुण गाने से सुनने से दुबारा कभी उसके चरणों से विछोड़ा नहीं होता।1। हे मन! परमात्मा का नाम सिमरना ही कामादिक वैरियों को जलाने का वसीला है (इसके बिना इनसे बचने का) और कोई तरीका नहीं है। हे नानक! (कह–) हे मेरे प्रभू! मेहर कर, तेरा नाम सिमरना ही मेरे जीवन का मनोरथ बना रहे।2।1।31। गूजरी महला ५ ॥ तूं समरथु सरनि को दाता दुख भंजनु सुख राइ ॥ जाहि कलेस मिटे भै भरमा निरमल गुण प्रभ गाइ ॥१॥ गोविंद तुझ बिनु अवरु न ठाउ ॥ करि किरपा पारब्रहम सुआमी जपी तुमारा नाउ ॥ रहाउ ॥ सतिगुर सेवि लगे हरि चरनी वडै भागि लिव लागी ॥ कवल प्रगास भए साधसंगे दुरमति बुधि तिआगी ॥२॥ आठ पहर हरि के गुण गावै सिमरै दीन दैआला ॥ आपि तरै संगति सभ उधरै बिनसे सगल जंजाला ॥३॥ चरण अधारु तेरा प्रभ सुआमी ओति पोति प्रभु साथि ॥ सरनि परिओ नानक प्रभ तुमरी दे राखिओ हरि हाथ ॥४॥२॥३२॥ {पन्ना 502-503} पद्अर्थ: को = का। सरनि को दाता = आसरा देने वाला। सुखराइ = सुखों का राजा, सुख देने वाला। जाहि = दूर हो जाते हैं। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभू! गाइ = गा के।1। गोविंद = हे गोविंद! ठाउ = जगह, आसरा। पारब्रहम = हे पारब्रहम! जपी = जपूँ।1। रहाउ। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। भागि = किस्मत से। लिव = लगन। कवल = हृदय कमल। संगे = संगति में। दुरमति = खोटी मति वाली।2। गावै = गाता है। दैआला = दया का घर। उधरै = (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाती है। जंजाला = बंधन।3। अधारु = आसरा। ओति = उने (बुने) हुए में। पोति = परोए हुए में। ओति पोति = जैसे ताने पेटे के धागे आपस में मिले होते हैं। प्रभू = मालिक। दे = दे के। हरि = हे हरी!।4। अर्थ: हे मेरे गोविंद! तेरे बिना मेरा और कोई आसरा नहीं। हे पारब्रहम! हे स्वामी! (मेरे पर) मेहर कर, मैं (सदा) तेरा नाम जपता रहूँ।1। रहाउ। हे प्रभू! तू सारी ही ताकतों का मालिक है, तू शरण आए को सहारा देने वाला है, तू (जीवों के) दुख दूर करने वाला है, और सुख देने वाला है। तेरे पवित्र गुण गा-गा के जीवों के दुख दूर हो जाते हैं, सारे डर-भरम मिट जाते हैं।1। हे भाई! जो मनुष्य बड़ी किस्मत से गुरू की शरण पड़ कर प्रभू चरणों में जुड़ते हैं, उनकी लगन (परमात्मा के साथ) लग जाती है, गुरू की संगति में रहके उनके हृदय कमल-फूल की तरह खिल जाते हैं, वह खोटी मति वाली बुद्धि त्याग देते हैं।2। हे भाई! जो मनुष्य आठों पहर परमात्मा के गुण गाता है, दीनों पर दया करने वाले का नाम सिमरता है, वह खुद (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है, उसके सारे मायावी बंधन नाश हो जाते हैं।3। हे प्रभू! हे स्वामी! जिस मनुष्य ने तेरे चरनों को अपनी जिंदगी का सहारा बना लिया, तू मालिक! ताणे-पेटे की तरह सदा उसके साथ रहता है। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ा, हे हरी! तू उसको अपना हाथ दे के (संसार-समुंद्र से) बचाता है।4।32। नोट: ये 32 शबद सिर्फ महला ५ के हैं। महला १---------------2 |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |