श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गूजरी असटपदीआ महला १ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ एक नगरी पंच चोर बसीअले बरजत चोरी धावै ॥ त्रिहदस माल रखै जो नानक मोख मुकति सो पावै ॥१॥ चेतहु बासुदेउ बनवाली ॥ रामु रिदै जपमाली ॥१॥ रहाउ ॥ उरध मूल जिसु साख तलाहा चारि बेद जितु लागे ॥ सहज भाइ जाइ ते नानक पारब्रहम लिव जागे ॥२॥ पारजातु घरि आगनि मेरै पुहप पत्र ततु डाला ॥ सरब जोति निरंजन स्मभू छोडहु बहुतु जंजाला ॥३॥ सुणि सिखवंते नानकु बिनवै छोडहु माइआ जाला ॥ मनि बीचारि एक लिव लागी पुनरपि जनमु न काला ॥४॥ सो गुरू सो सिखु कथीअले सो वैदु जि जाणै रोगी ॥ तिसु कारणि कमु न धंधा नाही धंधै गिरही जोगी ॥५॥ कामु क्रोधु अहंकारु तजीअले लोभु मोहु तिस माइआ ॥ मनि ततु अविगतु धिआइआ गुर परसादी पाइआ ॥६॥ गिआनु धिआनु सभ दाति कथीअले सेत बरन सभि दूता ॥ ब्रहम कमल मधु तासु रसादं जागत नाही सूता ॥७॥ महा ग्मभीर पत्र पाताला नानक सरब जुआइआ ॥ उपदेस गुरू मम पुनहि न गरभं बिखु तजि अम्रितु पीआइआ ॥८॥१॥ {पन्ना 503}

पद्अर्थ: ऐक नगरी = एक ही (शरीर) शहर में। पंच = पाँच। बसीअले = बसे हुए हैं। बरजत = रोकते रोकते, वर्जते हुए भी। धावै = (हरेक चोर चोरी करने के लिए) दौड़ पड़ता है। त्रिह = माया के तीन गुण। दस = इन्द्रियां। माल = सरमाया। नानक = हे नानक! सो = वह मनुष्य।1।

बासुदेउ = सर्व व्यापक प्रभू! बनमाली = सारी बनस्पती जिसकी माला है, परमात्मा। रिदै = हृदय में। जप माली = माला।1। रहाउ।

उरध मूल = (जो) ऊँची जड़ वाली (है) वह माया जिसका मूल-प्रभू माया के प्रभाव से ऊपर है। जिसु = जिस माया की। साख = टहनियां, पसारा। तलाहा = नीचे की ओर, माया के असर तहत। जितु = जिस (माया) में, जिस (माया के बल के जिक्र) में। सहज भाइ = सहजे ही। जाइ = चली जाती है, परे हट जाती है। ते = (क्योंकि) वह लोग। जागे = जागते रहते हैं, सुचेत रहते हैं।2।

पारजातु = स्वर्ग का एक वृक्ष जो सारी ही कामनाएं पूरी करने के समर्थ माना गया है, सर्व इच्छा पूरक प्रभू। घरि = घर में, हृदय में। आगनि = आँगन में। पुहप = फूल। ततु = सारे जगत का मूल। संभू = स्वयं भु, अपने आप से जन्मा हुआ।3।

सिखवंते = हे शिक्षा लेने वाले! मनि = मन में। बीचारि = विचार में। पुनरपि = (पुनः अपि) बार बार। काला = काल, मौत।4।

कथीअले = कहा जाता है। वैदु = हाकम। तिसु कारणि = उस (प्रभू के सिमरन) की बरकति से। धंधै = धंधे में, जंजाल में। गिरही = गृहस्ती।5।

तजीअले = त्यागा। तिस = तृष्णा। अविगतु = अव्यक्त, अदृश्य प्रभू।6।

कथीअले = कही जाती है। सेत = सफेद, फीका। बरन = रंग। सेत बरन = जिनके रंग फीके हो जाते हैं। दूता = कामादिक वैरी। मधु = शहद। तासु = तस्य, उस (शहद) का। रसादं = (अद् = खाना, चखना) रस चखने वाला।7।

जुआइआ = जुड़ा हुआ, व्यापक। मम = मेरा। पुनहि = पुनः, दुबारा फिर। गरभं = गर्भवास, जनम। बिखु = (माया-) जहर। तजि = छोड़ के।8।

अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक जगत के मालिक परमात्मा को सदा याद रखो। प्रभू को अपने हृदय में टिकाओ- (इसको अपनी) माला (बनाओ)।1। रहाउ।

इस एक ही (शरीर-) नगर में (कामादिक) पाँच चोर बसे हुए हैं, मना करते-करते भी (इनमें से हरेक इस नगर के आत्मिक गुणों को) चुराने के लिए उठ दौड़ता है। (परमात्मा को अपने हृदय में बसा के) जो मनुष्य (इन पाँचों से) माया के तीन गुणों से और दस इन्द्रियों से (अपने आत्मिक गुणों की) पूँजी बचा के रखता है, हे नानक! वह (इनसे) सदा के लिए निजात प्राप्त कर लेता है।1।

जिस माया का मूल प्रभू, माया के प्रभाव से ऊपर है, जगत पसारा जिस माया के प्रभाव से नीचे है, चारों वेद जिस (माया के बल के वर्णन) में लगे रहे हैं, वह माया सहजे ही (उन लोगों से) परे हट जाती है (जो परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं, क्योंकि) वह लोग, हे नानक! परमात्मा (के चरणों) में सुरति जोड़ के (माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं।2।

(ये सारा जगत जिस पारजात-प्रभू) फूल-पत्तियां-डालियां आदि पसारा है, जो प्रभू सारे जगत का मूल है, जिसकी ज्योति सब जीवों में पसर रही है, जो माया के प्रभाव से परे है, जिसका प्रकाश अपने आप से है, वह (सर्व-इच्छा-पूरक) पारजात (-प्रभू) मेरे हृदय आँगन में प्रगट हो गया है (और मेरे अंदर से माया वाले जंजाल समाप्त हो गए हैं)। (हे भाई! तुम भी परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ, इस तरह) माया के बहुते जंजाल छोड़ सकोगे।3।

हे (मेरी) शिक्षा सुनने वाले भाई! जो विनती नानक करता है वह सुन- (अपने हृदय में परमात्मा का नाम धारण कर, इस तरह तू) माया के बंधन त्याग सकेगा। जिस मनुष्य के मन में सोच-मण्डल में परमात्मा की लिव लग जाती है वह बार-बार जनम-मरण (के चक्कर) में नहीं आता।4।

(जिस मनुष्य ने परमात्मा को हृदय में बसा लिया है) वह गुरू कहा जा सकता है, वह (असल) सिख कहा जा सकता है, वह (असल) वैद्य कहा जा सकता है क्योंकि वह अन्य (आत्मिक) रोगियों का रोग समझ लेता है। परमात्मा के सिमरन की बरकति से दुनिया का काम-धंधा उसको व्याप नहीं सकता। (प्रभू के सिमरन के सदका) वह माया के बंधनों में नहीं (फसता), वह गृहस्ती (होते हुए भी) जोगी है।5।

जिस मनुष्य ने गुरू की मेहर से अपने मन में जगत मूल अदृश्य प्रभू को सिमरा है और उससे मिलाप हासिल कर लिया है उसने काम-क्रोध और अहंकार त्याग दिया है, उसने लोभ-मोह और माया की तृष्णा त्याग दी है।6।

परमात्मा के साथ गहरी सांझ बननी, प्रभू-चरणों में सुरति जुड़नी -ये सब प्रभू की दाति ही कही जा सकती है, (जिसको ये दाति मिलती है उसको देख के) कामादिक वैरियों के रंग उड़ जाते हैं, (क्योंकि सिमरन की बरकति से उसके हृदय में, मानो) ब्रहम-रूपी कमल का शहद (टपकने लग जाता है) उस (नाम-अमृत शहद का) रस वह मनुष्य चखता है (इस करके वह माया के हमलों से) सुचेत रहता है, (माया के मोह की नींद में) गाफिल नहीं होता।7।

हे नानक! जो प्रभू बड़े जिगरे वाला है, सारे पाताल (सारा संसार जिस पारजात प्रभू) की पत्तियां (पसारा) हैं, जो सब जीवों में व्यापक है, गुरू के उपदेश की बरकति से मैंने उसका नाम अमृत पीया है और माया का जहर त्यागा है, अब मेरा बार-बार गर्भवास (जनम-मरण) नहीं होगा।8।1।

गूजरी महला १ ॥ कवन कवन जाचहि प्रभ दाते ता के अंत न परहि सुमार ॥ जैसी भूख होइ अभ अंतरि तूं समरथु सचु देवणहार ॥१॥ ऐ जी जपु तपु संजमु सचु अधार ॥ हरि हरि नामु देहि सुखु पाईऐ तेरी भगति भरे भंडार ॥१॥ रहाउ ॥ सुंन समाधि रहहि लिव लागे एका एकी सबदु बीचार ॥ जलु थलु धरणि गगनु तह नाही आपे आपु कीआ करतार ॥२॥ ना तदि माइआ मगनु न छाइआ ना सूरज चंद न जोति अपार ॥ सरब द्रिसटि लोचन अभ अंतरि एका नदरि सु त्रिभवण सार ॥३॥ पवणु पाणी अगनि तिनि कीआ ब्रहमा बिसनु महेस अकार ॥ सरबे जाचिक तूं प्रभु दाता दाति करे अपुनै बीचार ॥४॥ कोटि तेतीस जाचहि प्रभ नाइक देदे तोटि नाही भंडार ॥ ऊंधै भांडै कछु न समावै सीधै अम्रितु परै निहार ॥५॥ सिध समाधी अंतरि जाचहि रिधि सिधि जाचि करहि जैकार ॥ जैसी पिआस होइ मन अंतरि तैसो जलु देवहि परकार ॥६॥ बडे भाग गुरु सेवहि अपुना भेदु नाही गुरदेव मुरार ॥ ता कउ कालु नाही जमु जोहै बूझहि अंतरि सबदु बीचार ॥७॥ अब तब अवरु न मागउ हरि पहि नामु निरंजन दीजै पिआरि ॥ नानक चात्रिकु अम्रित जलु मागै हरि जसु दीजै किरपा धारि ॥८॥२॥ {पन्ना 503-504}

पद्अर्थ: कवन कवन = कौन कौन से? जाचहि = मांगते हैं। प्रभ दाते = हे दातार प्रभू! ता के = उन जीवों के। सुमार = गिनती, लेखे। अभ अंतरि = अभ्यन्तर, धुर अंदर, मन में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।1।

अै जी = हे प्रभू जी! सचु अधारु = सदा स्थिर रहने वाला आसरा। भंडार = खजाने।1। रहाउ।

सुंन = शून्य, वह अवस्था जहाँ कोई फुरना ना उठे। रहहि = तू रहता है। ऐका ऐकी = तू अकेला ही। सबदु = बचन, हुकम, इरादा। धरणि = धरती। गगनु = आकाश। तह = तब। आपु = अपने आप को। करतार = हे करतार!।2।

तदि = तब। मगनु = मस्त (जीव)। छाइआ = माया के प्रभाव (में)। अपार = अपर, कोई और, अन्य। सरब द्रिसटि लोचन = सारे जीवों को देखने वाली आँख। अभ अंतरि = अभ्यन्तर (तेरे अपने अंदर ही) धुर अंदर। सार = संभाल।3।

तिनि = उस (परमात्मा) ने। कीआ = (जब) पैदा किया। महेस = शिव। अकार = स्वरूप, वजूद, हस्ती। जाचिक = मंगते। करे = करता है। अपुनै बीचार = अपने विचारों के अनुसार।4।

कोटि तेतीस = तैंतीस करोड़ (देवते)। नाइक = (सबकी) अगुवाई करने वाला, नायक। तोटि = कमी। ऊँधै भांडै = उल्टे पड़े बर्तन में। सीधै = सीधे बर्तन में। निहार = (उस प्रभू के) देखने से, मेहर की निगाह से।5।

सिध = पहुँचे हुए जोगी। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। जाचि = मांग के। तैसो परकार = उसी किस्म का। देवहि = तू देता है।6।

सेवहि = जो सेवा करते हैं। भेदु = फर्क। मुरार = परमात्मा। ता कउ = उन (लोगों) को। नाही जोहै = नहीं देखता। कालु जमु = मौत, मौत का सहम, आत्मिक मौत। अंतरि बीचार = सोच मंडल में। बूझहि = (जो लोग) समझते हैं।7।

अब तब = कभी भी। न मागउ = मैं नहीं मांगता। पहि = से। पिआरि = प्यार से, प्यार की निगाह से। चात्रिक = पपीहा। जसु = सिफत सालाह।8।

अर्थ: हे प्रभू जी! (हम जीवों को) अपना नाम दे (तेरे नाम की बरकति से ही) आत्मिक आनंद मिलता है (इस पदार्थ की तेरे घर में कोई कमी नहीं है) तेरी भक्ति के (तेरे पास) खजाने भरे पड़े हैं। तेरा नाम ही (हमारे लिए) जप है तप है संजम है, तेरा नाम ही (हमारे वास्ते) सदा स्थिर रहने वाला आसरा है।1। रहाउ।

हे दातार प्रभू! बेअंत जीव (तेरे दर से दातें) मांगते हैं उनकी गिनती के अंत नहीं पड़ सकते। जैसी (किसी के) धुर अंदर (मांगने की) भूख होती है, हे देवनहार प्रभू! तू (पूरी करता है), तू सदा स्थिर है और दातें देने योग्य है।1।

हे करतार! जब तूने अपने आप को खुद ही प्रगट किया था, तब ना पानी था, ना सूखा था, ना धरती थी, ना आकाश था, तब तू खुद ही अफूर अवस्था में (अपने अंदर) सुरति जोड़ के समाधि लगाए बैठा था, तू अकेला खुद ही अपने इरादे को समझता था।2।

तब ना ये माया थी, ना इस माया के प्रभाव में मस्त कोई जीव था, ना तब सुरज था, ना चंद्रमा था, ना ही कोई और ज्योति थी। हे प्रभू! सारे जीवों को देख सकने वाली तेरी आँख, तीनों भवनों की सार ले सकने वाली तेरी अपनी ही नजर तेरे अपने ही अंदर टिकी हुई थी।3।

जब उस परमात्मा ने हवा-पानी-आग (आदि तत्व) रचे, तो ब्रहमा-विष्णु-शिव आदि के वजूद रचे। हे प्रभू! हे प्रभू! (ये ब्रहमा-विष्णु-शिव आदि) सारे ही (तेरे पैदा किए हुए जीव तेरे दर के) मंगते हैं तू सबको दातें देने वाला है। (समर्थ प्रभू) अपनी विचार अनुसार (सबको) दातें देता है।4।

हे सबकी अगुवाई करने वाले नायक प्रभू! तैंतीस करोड़ देवते (भी तेरे दर के) मंगते हैं। (उनको दातें) दे दे के तेरे खजानों में घाटा नहीं पड़ता। (मायावी पदार्थ तो सबको मिलते हैं, पर) श्रद्धाहीन हृदय में (तेरे नाम-अमृत की दाति में से) कुछ भी नहीं टिकता, और श्रद्धा-भरपूर हृदय में तेरी मेहर की निगाह से आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम टिकता है।5।

योग-साधना में पहुँचे हुए जोगी भी समाधि में टिक के तुझसे ही माँगते हैं, करामाती ताकतें मांग-मांग के तेरी जै-जैकार करते हैं। (यही कहते हैं–तेरी जय हो, तेरी जय हो) जैसी किसी के मन में (मांगने की) प्यास होती है, तू, हे प्रभू! उसी किस्म का जल दे देता है।6।

पर असली बड़े भाग्य उन लोगों के हैं जो अपने गुरू की बताई हुई सेवा करते हैं। गुरू और परमातमा में कोई फर्क नहीं होता। जो लोग अपने विचार-मण्डल में (मायावी पदार्थों की मांग की जगह) गुरू के शबद को समझते हैं, आत्मिक मौत उनके नजदीक भी नहीं फटक सकती।7।

(इस वास्ते) मैं कभी भी परमात्मा से और कुछ नहीं मांगता। (मैं यही अरदास करता हूँ-) हे निरंजन प्रभू! प्यार की निगाह से मुझे अपना नाम बख्श। नानक पपीहा आत्मिक-जीवन देने वाला नाम-जल मांगता है। हे हरी! कृपा करके अपनी सिफत-सालाह दे।8।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh