श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 505 गूजरी महला १ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भगति प्रेम आराधितं सचु पिआस परम हितं ॥ बिललाप बिलल बिनंतीआ सुख भाइ चित हितं ॥१॥ जपि मन नामु हरि सरणी ॥ संसार सागर तारि तारण रम नाम करि करणी ॥१॥ रहाउ ॥ ए मन मिरत सुभ चिंतं गुर सबदि हरि रमणं ॥ मति ततु गिआनं कलिआण निधानं हरि नाम मनि रमणं ॥२॥ चल चित वित भ्रमा भ्रमं जगु मोह मगन हितं ॥ थिरु नामु भगति दिड़ं मती गुर वाकि सबद रतं ॥३॥ भरमाति भरमु न चूकई जगु जनमि बिआधि खपं ॥ असथानु हरि निहकेवलं सति मती नाम तपं ॥४॥ इहु जगु मोह हेत बिआपितं दुखु अधिक जनम मरणं ॥ भजु सरणि सतिगुर ऊबरहि हरि नामु रिद रमणं ॥५॥ गुरमति निहचल मनि मनु मनं सहज बीचारं ॥ सो मनु निरमलु जितु साचु अंतरि गिआन रतनु सारं ॥६॥ भै भाइ भगति तरु भवजलु मना चितु लाइ हरि चरणी ॥ हरि नामु हिरदै पवित्रु पावनु इहु सरीरु तउ सरणी ॥७॥ लब लोभ लहरि निवारणं हरि नाम रासि मनं ॥ मनु मारि तुही निरंजना कहु नानका सरनं ॥८॥१॥५॥ {पन्ना 505} पद्अर्थ: आराधितं = आराधा (जिन्होंने)। सचु = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को। पिआस = चाहत। परम = सबसे ऊँची, बहुत ऊँची। हितं = प्रेम। भाइ हितं = प्रेम भाव में।1। मन = हे मन! तारि = बेड़ी, जहाज। रम नाम = राम का नाम। करणी = करणीय, कर्तव्य, जीवन का निशाना।1। रहाउ। ऐ = हे! मिरत = मौत, विकारों की ओर से उपरामता। सुभ चिंतं = शुभ चिंतक, सुखदाई। रमणं = सिमरन। ततु = जगत का मूल प्रभू। गिआनं = जान पहिचान, गहरी सांझ। कलिआण = सुख आनंद।2। चल चित = चित्त को चंचल करने वाला। वित = धन। भ्रमाभ्रमं = भटकना। मगन = मस्त। गुर वाकि = गुरू के शबद के द्वारा। दिढ़ं = पक्की (कर ली है)। मती = अकल, समझ।3। भरमाति = भटकाति। भरमु = भटकन। जनमि = जनम (-मरण) में। बिआधि = रोग। खपं = ख्वार होता है। निहकेवलं = वासना रहित। सति = सदा स्थिर।4। बिआपितं = दबाया हुआ, दबाव तहत। अधिक = बहुत। ऊबरहि = तू बचेगा।5। निहचल = अटॅल। मनि = मन में (धारण कर)। मनं = मान जाएगा। सहज = अडोल आत्मिक अवस्था। जितु = जिस में। सारं = श्रेष्ठ।6। भै = (परमात्मा के) भय में। भाइ = (परमात्मा के) पे्रम में। तरु = पार लांघ। भवजलु = संसार समुंद्र। लाइ = जोड़। पावनु = पवित्र। तउ = तेरी।7। निवारणं = दूर करने के समर्थ। रासि = सरमाया। मनं = मन में। निरंजना = हे निरंजन! हे माया रहित प्रभू!।8। अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम जप, परमात्मा की ओट पकड़। परमात्मा के नाम को जीवन का उद्देश्य बना। यह नाम संसार-समुंद्र से पार लंघाने के लिए जहाज है।1। रहाउ। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करते हैं, सदा स्थिर प्रभू को प्रेम से आराधते हैं, उनके अंदर प्रेमा-भक्ति की तीव्र कसक बनी रहती है, वह (प्रभू के दर पर ही) मिन्नत-तरले करते हैं विनतियां करते हैं, उनके चित्त प्रभू के प्रेम-प्यार में (मगन रहते हैं) और वह आत्मिक आनंद पाते हैं।1। हे मन! गुरू के शबद में (टिक के) परमात्मा का सिमरन कर, और (विकारों की ओर से उपराम हो), विकारों की ओर से मौत (जीवन के लिए) सुखद है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम मन में सिमरते हैं उनकी मति जगत-मूल प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल लेती है, उनको सुखों का खजाना प्रभू मिल जाता है।2। (दुनिया का) धन (मनुष्य के) मन को चंचल बनाता है और भटकना पैदा करता है, (पर) जगत (इस धन के) मोह में प्रेम में मस्त रहता है। परमात्मा के भगत (अपनी) समझ में (यह निश्चय) पक्का कर लेते हैं कि परमात्मा का नाम (ही) सदा कायम रहने वाला है। वह गुरू के शबद में टिक के सिफत सालाह में रंगे रहते हैं।3। जगत (माया के मोह के कारण) जनम-मरण के रोग में ख्वार होता रहता है, भटकता रहता है, (इस की माया वाली) भटकना खत्म नहीं होती। हे मन! परमात्मा की शरण ही ऐसी जगह है जो माया के मोह से उपराम करता है, परमात्मा के नाम का जप ही सही समझ है।4। यह जगत माया के मोह में फंसा हुआ है, इस वास्ते इसे जनम-मरण का बहुत दुख लगा रहता है। (हे भाई!) तू परमात्मा का नाम हृदय में सिमर, सतिगुरू की शरण पड़, (तब ही) तू (जनम-मरन के चक्कर से) बच सकेगा।5। जो मनुष्य अपने मन में गुरू की शिक्षा पक्के तौर पर धारण कर लेता है, उसका मन अडोल आत्मिक अवस्था की विचार में रम जाता है (भाव, वह सदा ये ख्याल रखता है कि मन माया की भटकना की ओर से हट के प्रभू के नाम की एकाग्रता में टिका रहे)। जिस मन में सदा-स्थिर प्रभू टिक जाए वह मन पवित्र हो जाता है, उसके अंदर प्रभू-ज्ञान का श्रेष्ठ रतन मौजूद रहता है।6। हे (मेरे) मन! परमात्मा के डर-अदब में रह, प्रभू के प्यार में रह, प्रभू की भक्ति कर, प्रभू के चरणों में सुरति जोड़, इस तरह संसार-समुंद्र से पार लांघ। (हे भाई!) परमात्मा का पवित्र नाम अपने हृदय में (रख और प्रभू के आगे यूँ अरदास कर- हे प्रभू!) मेरा ये शरीर तेरी शरण है (भाव, मैं तेरी शरण आया हूँ)।7। हे नानक! परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन की राशि है, इस) सरमाए को अपने मन में संभाल के रख, ये लब और लोभ की लहरों को दूर करने के समर्थ है। अपने मन को (लोभ-लालच की ओर से) काबू कर के रख, और कह– हे निरंजन! मैं तेरी शरण आया हूँ।8।1।5। नोट: पहली 4 अष्टपदीयां ‘घरु १’ की थीं। ये अष्टपदी ‘घरु ४’ की है। आखिरी अंक १ का यही भाव है। अंक ५ बताता है कि गुरू नानक साहिब की कुल पाँच अष्टपदियां हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |