श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 506 गूजरी महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ निरति करी इहु मनु नचाई ॥ गुर परसादी आपु गवाई ॥ चितु थिरु राखै सो मुकति होवै जो इछी सोई फलु पाई ॥१॥ नाचु रे मन गुर कै आगै ॥ गुर कै भाणै नाचहि ता सुखु पावहि अंते जम भउ भागै ॥ रहाउ ॥ आपि नचाए सो भगतु कहीऐ आपणा पिआरु आपि लाए ॥ आपे गावै आपि सुणावै इसु मन अंधे कउ मारगि पाए ॥२॥ अनदिनु नाचै सकति निवारै सिव घरि नीद न होई ॥ सकती घरि जगतु सूता नाचै टापै अवरो गावै मनमुखि भगति न होई ॥३॥ सुरि नर विरति पखि करमी नाचे मुनि जन गिआन बीचारी ॥ सिध साधिक लिव लागी नाचे जिन गुरमुखि बुधि वीचारी ॥४॥ खंड ब्रहमंड त्रै गुण नाचे जिन लागी हरि लिव तुमारी ॥ जीअ जंत सभे ही नाचे नाचहि खाणी चारी ॥५॥ जो तुधु भावहि सेई नाचहि जिन गुरमुखि सबदि लिव लाए ॥ से भगत से ततु गिआनी जिन कउ हुकमु मनाए ॥६॥ एहा भगति सचे सिउ लिव लागै बिनु सेवा भगति न होई ॥ जीवतु मरै ता सबदु बीचारै ता सचु पावै कोई ॥७॥ माइआ कै अरथि बहुतु लोक नाचे को विरला ततु बीचारी ॥ गुर परसादी सोई जनु पाए जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥८॥ इकु दमु साचा वीसरै सा वेला बिरथा जाइ ॥ साहि साहि सदा समालीऐ आपे बखसे करे रजाइ ॥९॥ सेई नाचहि जो तुधु भावहि जि गुरमुखि सबदु वीचारी ॥ कहु नानक से सहज सुखु पावहि जिन कउ नदरि तुमारी ॥१०॥१॥६॥ {पन्ना 506} पद्अर्थ: निरति = नाच। करी = मैं करूँ। नचाई = मैं नचाता हूँ। परसादी = कृपा से। आपु = स्वैभाव। गवाई = मैं गवाता हूँ। थिर = अडोल। राखै = रखता है। मुकति = (माया के बंधनों से) खलासी (की उम्मीद लिए हुए)। इछी = मैं इच्छा करता हूँ। पाई = मैं पाता हूँ।1। गुर कै आगै = गुरू के सामने, गुरू के सन्मुख रह के। भाणै नाचहि = अगर तू हुकम में नाचे, हुकम में चले, जैसे नचाए वैसे नाचे। अंते = आखिरी वक्त। जम भउ = मौत का डर। रहाउ। नचाऐ = मर्जी में चलाए, इशारों पर चलाए। कहीअै = कहा जाता है। आपे = खुद ही। मारगि = (सही) रास्ते पर।2। अनदिनु = हर रोज, हर समय। नाचै = नाचता है, (परमात्मा के इशारों पर) नाचता है, प्रभू की रजा में चलता है। सकति = माया (का प्रभाव)। निवारै = दूर करता है। सिव = कल्याण स्वरूप परमात्मा। सिव घरि = प्रभू के चरणों में। नीद = गफ़लत की नींद। अवरो = माया का ही गीत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।3। सुरनरि = देवता स्वभाव मनुष्य। विरती = प्रवृति। विरति पखि = प्रवृति के पक्ष में, दुनिया के काम काज करते हुए भी। करमी = (परमात्मा की) कृपा से। नाचे = (प्रभू के इशारों पे) नाचते आ रहे हैं, रजा में चलते हैं। मुनिजन = ऋषि मुनि लोग। बीचारी = विचारवान। गुरमुखि = गुरू की शरण में पड़ के।4। त्रैगुण = माया के तीन गुण। खाणी चारी = चार खाणियों के जीव (अण्डज, जेरज, सेतज, उत्भुज)।5। तुधु भावहि = तुझे अच्छे लगते हैं। सेई = वही लोग। सबदि = शबद के द्वारा। ततु = जगत का मूल प्रभू। गिआनी = गहरी सांझ डालने वाले। कउ = को।6। सचे सिउ = सदा कायम रहने वाले हरी के साथ। लिव = लगन। जीवतु मरै = जीवित मरता है, दुनिया के किरत कार करता हुआ माया के मोह से अछोह हो जाता है।7। कै अरथि = के वास्ते।8। दमु = सांस। बिरथा = व्यर्थ। साहि साहि = हरेक सांस के साथ। रजाइ = हुकम।9। सहज = आत्मिक अडोलता।10। अर्थ: हे मन! गुरू की हजूरी में नाच (गुरू के हुकम में चल)। हे मन! अगर तू वैसे नाचेगा जैसे गुरू नचाएगा (अगर तू गुरू के हुकम में चलेगा) तो आनंद पाएगा, आखिरी वक्त पर मौत का डर (भी तुझसे दूर) भाग जाएगा।1। रहाउ। (हे भाई! रास-धारिए रास डाल-डाल के नाचते हैं और भगत कहलवाते हैं) मैं भी नाचता हूँ (पर शरीर को नचाने की जगह) मैं (अपने) इस मन को नचाता हूँ (भाव,) गुरू की कृपा से (अपने अंदर से) मैं स्वैभाव दूर करता हूँ, (और इस तरह) मैं जो भी इच्छा करता हूँ (परमात्मा के दर से) वही फल पा लेता हूँ। (हे भाई! रासों में नाचने कूदने से मुक्ति नहीं मिलती, ना ही कोई भगत बन सकता है) जो मनुष्य चित्त को (प्रभू-चरणों में) अडोल रखता है वह माया के बंधनों से खलासी (का आशावान) हो जाता है।1। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने इशारों पर चलाता है जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्यार बख्शता है वह मनुष्य (दरअसल) भगत कहा जा सकता है। परमात्मा खुद ही (उस मनुष्य के वास्ते, रजा में चलने का गीत) गाता है। खुद ही (यह गीत उस मनुष्य को) सुनाता है, और, माया के मोह में अंधे हुए इस मन को सही जीवन राह पर लाता है।2। हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा की रजा में चलता है वह (अपने अंदर से) माया (का प्रभाव) दूर कर लेता है। (हे भाई!) कल्याण-स्वरूप प्रभू के चरणों में जुड़ने से माया के मोह की नींद हावी नहीं हो सकती। जगत माया के मोह में सोया हुआ (माया के हाथों पे) नाचता-कूदता है (दुनियावी दौड़-भाग करता रहता है)। (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य से परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती।3। हे भाई! दैवी स्वभाव वाले मनुष्य दुनियावी काम-कार करते हुए भी, ऋषि मुनि लोग आत्मिक जीवन की सूझ से विचारवान हो के, परमात्मा की कृपा से (परमात्मा की रजा में चलने वाला) नाच नाचते हैं। आत्मिक जीवन की तलाश के वास्ते साधन करने के समय जो मनुष्य गुरू के द्वारा श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त करके विचारवान हो जाते हैं उनकी सुरति प्रभू-चरणों में जुड़ी रहती है, वह (भी रजा में चलने वाला) नाच नाचते हैं।4। हे प्रभू! सारे जीव-जंतु (माया के हाथों पर) नाच रहे हैं, चारों खाणियों के जीव नाच रहे हैं, खण्डों-ब्रहमण्डों के सारे जीव त्रिगुणी माया के प्रभाव में नाच रहे हैं; पर, हे प्रभू! जिन्हें तेरे चरणों की लगन लगी है वह तेरी रजा में चलने का नाच नाचते हैं।5। हे प्रभू! जो मनुष्य तुझे प्यारे लगते हैं वही तेरे इशारे पर चलते हैं। हे भाई! जिन मनुष्यों को गुरू के सन्मुख करके, गुरू के शबद में जोड़ के अपने चरणों की प्रीति बख्शता है, जिन्हें अपना भाणा मीठा करके मनाता है वही मनुष्य असल भगत हैं (रासों में नाचने वाले भगत नहीं हैं), वही मनुष्य सारे जगत के मूल परमात्मा के साथ गहरी समीपता बनाए रखते हैं।6। हे भाई! वही उत्तम भक्ति कहलवा सकती है जिसके द्वारा सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा सें प्यार बना रहे। ऐसी भक्ति (गुरू की बताई) सेवा करे बिना नहीं हो सकती। जब मनुष्य दुनिया की किरत-कार करता हुआ ही माया के मोह की ओर से अछोह हो जाता है तब वह गुरू के शबद को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रखता है, तब ही मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का मिलाप हासल करता है।7। हे भाई! माया कमाने की खातिर तो बहुत सी दुनिया (माया के हाथों पर) नाच रही है, कोई विरला मनुष्य है जो असल आत्मिक जीवन को पहचानता है। हे प्रभू! वही वही मनुष्य गुरू की कृपा से तेरा मिलाप हासिल करता है जिन पर तेरी मेहर होती है।8। हे भाई! जो भी एक सांस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को भूला रहे वह समय व्यर्थ चला जाता है। हरेक सांस के साथ परमात्मा को अपने दिल में बसा के रखना चाहिए। (पर ये उद्यम वही मनुष्य कर सकता है जिस पर) परमात्मा खुद ही मेहर करके बख्शिश करे।9। हे प्रभू! जो मनुष्य तुझे अच्छे लगते हैं वही तेरी रजा में चलते हैं क्योंकि वे गुरू की शरण पड़ कर गुरू के शबद को अपनी सोच-मण्डल में टिका लेते हैं। हे नानक! कह– (हे प्रभू!) जिन पर तेरी मेहर की नजर पड़ती है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता का आनंद पाते हैं।10।1।6। अष्टपदियां महला ३---------------01 |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |