श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 515 मः ३ ॥ वाहु वाहु गुरमुख सदा करहि मनमुख मरहि बिखु खाइ ॥ ओना वाहु वाहु न भावई दुखे दुखि विहाइ ॥ गुरमुखि अम्रितु पीवणा वाहु वाहु करहि लिव लाइ ॥ नानक वाहु वाहु करहि से जन निरमले त्रिभवण सोझी पाइ ॥२॥ {पन्ना 515} पद्अर्थ: बिखु = माया रूपी जहर। दुखे दुखि = निरोल दुख में ही, सारी उम्र दुख में ही। पीवणा = जल पान, जीवन आधार (जैसे पानी सब जीवों की जिंदगी का सहारा है)। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू के सन्मुख हैं, वह सदा प्रभू की सिफत सलाह करते हैं; पर, मनमर्जी करने वाले मनुष्य माया-रूपी जहर खा के मरते हैं। उन्हें सिफत सालाह अच्छी नहीं लगती, इस लिए उनकी सारी उम्र दुख में ही व्यतीत होती है। गुरमुखों का जलपान ही नाम-अमृत है (भाव, गुरमुखों के लिए नाम-अमृत जीवन का आसरा है), वे सुरति जोड़ के सिफत करते हैं। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह करते हैं वह पवित्र हो जाते हैं, उन्हें तीनों भवनों (में व्यापक प्रभू की) सूझ पड़ जाती है।2। पउड़ी ॥ हरि कै भाणै गुरु मिलै सेवा भगति बनीजै ॥ हरि कै भाणै हरि मनि वसै सहजे रसु पीजै ॥ हरि कै भाणै सुखु पाईऐ हरि लाहा नित लीजै ॥ हरि कै तखति बहालीऐ निज घरि सदा वसीजै ॥ हरि का भाणा तिनी मंनिआ जिना गुरू मिलीजै ॥१६॥ {पन्ना 515} अर्थ: अगर प्रभू की रजा हो तो (मनुष्य को) गुरू मिलता है और (उसके वास्ते) प्रभू के सिमरन व भक्ति (की युक्ति) बनती है, प्रभू मन में आ बसता है और अडोल अवस्था में (टिका हुआ) नाम-रस पीता है, (आत्मा को) सुख मिलता है और (जीव-व्यापारी को) सदा नाम-रूप नफा मिलता है। जिन मनुष्यों को सतिगुरू मिल जाता है, वे मनुष्य परमात्मा की रजा को (मीठा करके) मानते हैं।16। सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु से जन सदा करहि जिन्ह कउ आपे देइ बुझाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ मनु निरमलु होवै हउमै विचहु जाइ ॥ वाहु वाहु गुरसिखु जो नित करे सो मन चिंदिआ फलु पाइ ॥ वाहु वाहु करहि से जन सोहणे हरि तिन्ह कै संगि मिलाइ ॥ वाहु वाहु हिरदै उचरा मुखहु भी वाहु वाहु करेउ ॥ नानक वाहु वाहु जो करहि हउ तनु मनु तिन्ह कउ देउ ॥१॥ {पन्ना 515} अर्थ: जिन मनुष्यों को प्रभू स्वयं ही सुमति बख्शता है वे सदा प्रभू की सिफत सालाह करते हैं। प्रभू की सिफत सालाह करने से मन पवित्र होता है और मन में से अहंकार दूर होता है। जो भी मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के प्रभू की सिफत सालाह करता है, उसे मन-इच्छित फल मिलता है। जो मनुष्य सिफत सालाह करते हैं वह (देखने में भी) सुंदर लगते हैं। हे प्रभू! मुझे उनकी संगति में रख, ता कि मैं अपने हृदय में तेरी सिफत करूँ और मुंह से भी तेरे गुण गाऊँ। हे नानक! जो मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह करते हैं, मैं अपना तन-मन उनके आगे भेट कर दूँ।1। मः ३ ॥ वाहु वाहु साहिबु सचु है अम्रितु जा का नाउ ॥ जिनि सेविआ तिनि फलु पाइआ हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ वाहु वाहु गुणी निधानु है जिस नो देइ सु खाइ ॥ वाहु वाहु जलि थलि भरपूरु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ वाहु वाहु गुरसिख नित सभ करहु गुर पूरे वाहु वाहु भावै ॥ नानक वाहु वाहु जो मनि चिति करे तिसु जमकंकरु नेड़ि न आवै ॥२॥ {पन्ना 515} अर्थ: जिस मालिक प्रभू का नाम (जीवों को) आत्मिक बल देने वाला है उसकी सिफत सालाह उसी सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू का स्वरूप है। जिस जिस मनुष्य ने प्रभू को सिमरा है उस उस ने (नाम अमृत) फल प्राप्त कर लिया है, मैं ऐसे गुरमुखों से सदके हूँ। गुणों के खजाने प्रभू की सिफत उसका ही रूप है। प्रभू जिसको ये खजाना बख्शता है वही इसको बरतता है। सिफत का मालिक प्रभू पानी में धरती पर हर जगह व्यापक है, गुरू के राह पर चलते हुए वह प्रभू मिलता है। हे गुर-सिखो! सारे सदा प्रभू के गुण गाओ, पूरे गुरू को प्रभू की सिफत सालाह मीठी लगती है। हे नानक! जो मनुष्य एक मन हो के सिफत सालाह करता है उसको मौत का डर नहीं हो सकता।2। पउड़ी ॥ हरि जीउ सचा सचु है सची गुरबाणी ॥ सतिगुर ते सचु पछाणीऐ सचि सहजि समाणी ॥ अनदिनु जागहि ना सवहि जागत रैणि विहाणी ॥ गुरमती हरि रसु चाखिआ से पुंन पराणी ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ पचि मुए अजाणी ॥१७॥ {पन्ना 515} अर्थ: प्रभू सदा-स्थिर रहने वाला है, गुरू की बाणी उस सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह में है, गुरू के द्वारा उस प्रभू से जान-पहिचान बनती है और सदा-स्थिर अडोल अवस्था में टिक सकते हैं। वह मनुष्य भाग्यशाली हैं जिन्होंने गुरू के राह पर चल कर प्रभू के नाम का रस चखा है, वे हर समय सुचेत रहते हैं, (माया के मोह में) नहीं सोते, उनकी जिंदगी-रूपी सारी रात सुचेत रह के गुजरती है। पर, गुरू की शरण आए बिना किसी को प्रभू नहीं मिला, अंजान लोग (माया के मोह में) खप-खप के दुखी होते हैं।17। सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु बाणी निरंकार है तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ वाहु वाहु अगम अथाहु है वाहु वाहु सचा सोइ ॥ वाहु वाहु वेपरवाहु है वाहु वाहु करे सु होइ ॥ वाहु वाहु अम्रित नामु है गुरमुखि पावै कोइ ॥ वाहु वाहु करमी पाईऐ आपि दइआ करि देइ ॥ नानक वाहु वाहु गुरमुखि पाईऐ अनदिनु नामु लएइ ॥१॥ {पन्ना 515} अर्थ: जो प्रभू आकार रहित है; जिसके बराबर का और कोई नहीं है; जो अपहुँच है, जिसकी थाह नहीं पाई जा सकती, जिसको किसी की मुथाजी नहीं है, जिसका किया हुआ ही सब कुछ हो रहा है, उसकी सिफत सालाह उसी का रूप है। उसका नाम जीवों को आत्मि्क जीवन देने वाला है, पर उसकी प्राप्ति किसी गुरमुख को ही होती है। सिफत सालाह की दाति सौभाग्य से ही मिलती है, जिसको मेहर करके प्रभू स्वयं देता है, हे नानक! जो मनुष्य गुरू के हुकम में चलता है, उसको सिफत सालाह की दाति मिलती है, वह हर समय प्रभू का नाम जपता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |