श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ तिसु आगै अरदासि जिनि उपाइआ ॥ सतिगुरु अपणा सेवि सभ फल पाइआ ॥ अम्रित हरि का नाउ सदा धिआइआ ॥ संत जना कै संगि दुखु मिटाइआ ॥ नानक भए अचिंतु हरि धनु निहचलाइआ ॥२०॥ {पन्ना 517}

पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभू ने। सेवि = सेवा करके, हुकम कर के। अचिंतु = बेफिक्र।

अर्थ: जिस प्रभू ने ‘भाव दूजा’ (द्वैत भाव) पैदा किया है, अगर उसकी हजूरी में अरदास करें, अगर सतिगुरू के हुकम में चलें तो (जैसे) सारे फल मिल जाते हैं, प्रभू का अमृत-नाम सदा सिमर सकते हैं, गुरमुखों की संगति में रहके (द्वैत भाव का) दुख मिटा सकते हैं, और, हे नानक! कभी ना नाश होने वाला नाम-धन कमा के बेफिक्र हो जाते हैं।20।

सलोक मः ३ ॥ खेति मिआला उचीआ घरु उचा निरणउ ॥ महल भगती घरि सरै सजण पाहुणिअउ ॥ बरसना त बरसु घना बहुड़ि बरसहि काहि ॥ नानक तिन्ह बलिहारणै जिन्ह गुरमुखि पाइआ मन माहि ॥१॥ {पन्ना 517}

पद्अर्थ: खेति = पैली में, खेत में। मिआला = वॅट, खेतों के किनारे की हदबंदी। घरु उचा = बादल। निरणउ = देख के। महल घरि = (जिस जीव-) स्त्री के घर में। सरै = बनी हुई है, फबी है। सजण = प्रभू जी। घना = हे घन! हे बादल! हे सतिगुरू! बहुड़ि = दुबारा। काहि = किस लिए?

अर्थ: बादल देख के (किसान) खेत के बंद (किनारे की हदबंदियां) ऊँची कर देता है (और वर्षा का पानी उस खेत में ठहर जाता है), (वैसे ही, जिस जीव-) स्त्री के हृदय में भक्ति (का उछाल) आता है वहाँ प्रभू मेहमान बन के (भाव, रहने के लिए) आ जाता है।

हे मेघ! (हे सतिगुरू!) अगर (नाम की) बरखा करनी है तो वर्षा (अब) कर, (मेरी उम्र बीत जाने पर) फिर किस लिए बरसेगा?

हे नानक! मैं सदके हूँ उनसे जिन्होंने गुरू के माध्यम से प्रभू को हृदय में पा लिया है।1।

मः ३ ॥ मिठा सो जो भावदा सजणु सो जि रासि ॥ नानक गुरमुखि जाणीऐ जा कउ आपि करे परगासु ॥२॥ {पन्ना 517}

पद्अर्थ: मिठा = प्यारा। भावदा = सदा अच्छा लगता है। जि = जो। रासि = मुआफिक। जि रासि = जो सदा मुआफिक आए, जिससे सदा बनी रहे।

अर्थ: (असल) प्यारा वह है जो सदा अच्छा लगता रहे, (असल) मित्र वह है जिससे सदा बनी रहे (पर ‘द्वैत भाव’ वह है जिससे ना सदा बनी रहती है ना ही सदा साथ निभता है), हे नानक! जिसके अंदर प्रभू खुद प्रकाश करे उसको गुरू के द्वारा ही ये समझ आती है।2।

पउड़ी ॥ प्रभ पासि जन की अरदासि तू सचा सांई ॥ तू रखवाला सदा सदा हउ तुधु धिआई ॥ जीअ जंत सभि तेरिआ तू रहिआ समाई ॥ जो दास तेरे की निंदा करे तिसु मारि पचाई ॥ चिंता छडि अचिंतु रहु नानक लगि पाई ॥२१॥ {पन्ना 517}

पद्अर्थ: जन = प्रभू का सेवक। हउ = मैं। पाई = पैरों में।

अर्थ: प्रभू के सेवक की अरदास प्रभू की हजूरी में (यूँ होती) है– (हे प्रभू!) तू सदा रहने वाला मालिक है, तू सदा ही रखवाला है, मैं तुझे सिमरता हूँ, सारे जीव-जंतु तेरे ही हैं, तू इनमें मौजूद है। जो मनुष्य तेरी बंदगी करने वाले की निंदा करता है तू उसको (आत्मिक मौत) मार के ख्वार करता है।

हे नानक! तू भी प्रभू के चरणों में लग और (दुनियावी) चिंताएं त्याग के बेफिक्र रह।21।

सलोक मः ३ ॥ आसा करता जगु मुआ आसा मरै न जाइ ॥ नानक आसा पूरीआ सचे सिउ चितु लाइ ॥१॥ {पन्ना 517}

अर्थ: जगत (दुनियावी) आशाएं बना-बना के मर जाता है, पर ये आशा कभी नहीं मरती; कभी खत्म नहीं होती (भाव, कभी तृष्णा खत्म नहीं होती, कभी संतोष नहीं होता)। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले प्रभू से चिक्त जोड़ने से मनुष्य की आशाएं पूरी हो जाती हैं (भाव, तृष्णा समाप्त हो जाती है)।1।

मः ३ ॥ आसा मनसा मरि जाइसी जिनि कीती सो लै जाइ ॥ नानक निहचलु को नही बाझहु हरि कै नाइ ॥२॥ {पन्ना 517}

पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना। जिनि = जिस प्रभू ने। कीती = (आसा मनसा) पैदा की। सो = वही प्रभू। लै जाइ = ले जाए, नाश करे।

अर्थ: ये दुनियावी आशा, ये माया के फुरने तब ही खत्म होंगे जब वह प्रभू खुद खत्म करेगा जिसने ये (आसा मनसा) पैदा की, (क्योंकि) हे नानक! (तब ही यकीन बनेगा कि) परमात्मा के नाम के बिना कोई और सदा-स्थिर रहने वाला नहीं (फिर किस की आस करें?)।2।

पउड़ी ॥ आपे जगतु उपाइओनु करि पूरा थाटु ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे ही हरि हाटु ॥ आपे सागरु आपे बोहिथा आपे ही खेवाटु ॥ आपे गुरु चेला है आपे आपे दसे घाटु ॥ जन नानक नामु धिआइ तू सभि किलविख काटु ॥२२॥१॥ सुधु {पन्ना 517}

पद्अर्थ: उपाइओनु = उपाया उस (प्रभू) ने। थाटु = बनावट, संरचना। पूरा = संपूर्ण, जिसमें कोई कमी ना हो। वणजारा = व्यापारी। हाटु = हाट, जहाँ सौदा हो रहा है। बोहिथा = जहाज। खेवाटु = मल्लाह। घाटु = पक्तन। किलविख = पाप।

अर्थ: मुकम्मल बनतर (सम्पूर्ण संरचना) बना के प्रभू ने स्वयं ही जगत पैदा किया, यहाँ प्रभू खुद ही समुंद्र है, खुद ही जहाज है और खुद ही मल्लाह है, यहाँ खुद ही गुरू है, खुद ही सिख है, और खुद ही (उस पार का) पक्तन दिखाता है।

हे दास नानक! तू उस प्रभू का नाम सिमर और अपने सारे पाप दूर कर ले।22।1। सुधु।

नोट: श्री करतारपुर वाली ‘बीड़’ में इस ‘वार’ की ‘बाणी’ के लेखन से ‘सलोक महला ३’ आदि सारे शीर्षक बारीक लेखन में है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि शीर्षक के लिए पहले जगह छोड़ दी गई थी। फिर अच्छी तरह सुधार के (कि शलोक ठीक उसी ही गुरू साहिबान के हैं) ‘शीर्षक’ बारीक कलम से दर्ज किए हैं। तभी ‘वार’ की समाप्ति पर हाशिए से बाहर शब्द ‘सुधु’ लिखा है। भाव ये है कि, शलोक ठीक शीर्षक वाले गुरू व्यक्ति के ही हैं; ये बात साबित कर ली गई है।


रागु गूजरी वार महला ५ (ੴ ) इक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥

वार का भाव

पउड़ी वार:

सृष्टि की रचना करके इसमें हर जगह प्रभू खुद मौजूद है, सबकी पालना स्वयं ही करता है, सब जीव उसने, मानो, एक धागे में परोए हुए हैं, उसकी रजा के अनुसार ही कई जीव जगत के विकारों में ख्वार हो रहे हैं और जिनपे वह मेहर करता है वह उसका सिमरन करके संसार समुंद्र के विकारों की लहरों में से बच निकलते हैं।

बड़े-बड़े देवताओं से ले के सारे जीव-जंतु प्रभू की सिफत-सालाह करते हैं, ताने-पेटे की तरह परमात्मा सब जीवों में मिला हुआ है, जिधर-जिधर लगाता है उधर-उधर जीव लगते हैं, जिनपे प्रभू स्वयं मेहरवान होता है वही उसकी बंदगी करते हैं।

मनुष्य की अपनी चतुराई सियानप काम नहीं देती, मनुष्य खुद तो बल्कि भले कार्य करने में आलस ही करता है, जिसपे प्रभू की मेहर की नजर हो उसको गुरमुखों की संगत मिलाता है, जहाँ वह सेवा करता है और सिफत-सालाह सुनता है।

जो प्रभू एक छिन में कुदरति के अनेकों करिश्में रच देता है, जो सब जीवों के दिल की हर वक्त जानता है, वह जिस मनुष्य पर रहम करता है उसको अपनी याद में जोड़ता है और विकारों से बचाता है वह मनुष्य इन विकारों के आगे मानस-जन्म की बाजी हार के नहीं जाता।

जगत में कामादिक और कई विकार और बलाएं हैं जो मनुष्य को हर समय चिपके रहते हैं, कई किस्म के फिक्र-आशंकाएं इसे लगी रहती हैं। पर, जिसको सतिगुरू उपदेश देता है वह मनुष्य नाम सिमर के इन विकारों और अंदेशों से बच जाता है, क्योंकि वह संतोषी जीवन वाला हो जाता है, पर ऐसे भाग्यशाली होते कुछ विरले ही हैं।

जो मनुष्य अपनी समझदारियां छोड़ के अपना मन गुरू के हवाले कर देता है, उसकी दुमर्ति नाश हो जाती है, वह जगत के विकारों में नहीं फँसता, कोई बुरा काम नहीं करता, जिसके कारण उसको परलोक में कोई डर-खतरा हो। ‘नाम’ की बरकति से उसके मन को संतोष प्राप्त होता है, पर गुरू की शरण वही मनुष्य आता है जिस पर धुर से मेहर हो।

गुरू के पास प्रभू की सिफत-सालाह का खजाना है जो प्रभू की मेहर से मिलता है, सतिगुरू जिस मनुष्य पर मेहर की नजर करता है उसकी भटकना समाप्त हो जाती है क्योंकि प्रभू चरणों का प्यार उसको जगत के सारे खजानों से ज्यादा कीमती दिखता है, कोई मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।

जो मनुष्य सतिगुरू की मति लेता है उसको प्रभू का ज्ञान प्राप्त होता है, ज्यों-ज्यों वह नाम सिमरता है उसके सारे आत्मिक रोग दूर हो जाते हैं, उसके मन में ठंड पड़ जाती है; अहंकार दूर करने के कारण कोई रुकावट उसके राह में नहीं आती।

जो मनुष्य साध-संगति में पहुँचता है, गुरमुखों का दर्शन करता है उसके मन की मैल काटी जाती है, उसके मन में प्रभू-सिमरन का उत्साह पैदा होता है, वह विकारों की ओर नहीं पलटता, क्योंकि वह स्वाश-स्वाश नाम सिमरता है, पर, साध-संगति भी प्रभू की मेहर से ही मिलती है।

जिस मनुष्य को गुरू मिल जाए, वह दुखों की मार से बच जाता है, जूनियों में नहीं पड़ता, हर जगह उसको परमात्मा ही दिखता है, विकारों की तरफ से वह अपनी रुचि समेट लेता है। एक बार प्रभू की हजूरी में प्रवान हो के वह पुनः खोट नहीं करता (कुमार्ग पर नहीं जाता)।

जगत की सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है। उसके ‘नाम’ का खजाना भी उसके ही अपने ही वश में है, वह जिसपे प्रसन्न होता है और नाम की दाति देता है, वही नाम सिमरता है।

प्रभू की ये अपनी रजा है कि कोई जीव विकारों में प्रवृति हैं और कोई सिमरन में। मनुष्य की अपनी कोई चतुराई अथवा प्रयास कारगर नहीं हो सकते। जो मनुष्य परमात्मा का आसरा ताकता है, प्रभू की शरण पड़ता है उस पर दयाल हो के प्रभू नाम की दाति देता है।

दयाल हो के प्रभू जिसके हृदय में सिमरन की दाति दे के ठंड पहुँचाता है, उसके सारे रोने समाप्त हो जाते हैं, गुरू के प्रताप से उसके सारे रोग दूर हो जाते हैं, माया वाले बंधन काटे जाते हैं और उसका जीवन संतोष वाला हो जाता है।

प्रभू की मेहर से जो जो मनुष्य ‘नाम’ सिमरते हैं, ‘नाम’ उनकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, दिन रात ‘नाम’ अमृत से ही वह माया की ओर से तृप्त रहते हैं, इस वास्ते कोई दुख दर्द रोग उन्हें छू नहीं सकता।

कामादिक विकार बड़े सूरमें बली योद्धे हैं, साधारण त्रैगुणी जीव तो कहीं रहे, ये बड़े-बड़े त्यागियों को भी धराशाही कर देते हैं, सब को जीत-जीत के अपनी प्रजा बना लेते हैं; माया की खातिर भटकना और माया का मोह इन शूरवीरों (विकारों) का, मानो, किला और किले के चौगिर्दे की गहरी खाई है। इनसे बचने का एक ही तरीका है– सतिगुरू की ओट।

‘भरमगढ़’ में कैद हुए जीव को कामादिकों से सतिगुरू ही छुड़वाता है, गुरू मनुष्य को प्रभू के नाम का खजाना देता है; ‘नाम’ ऐसी दवाई है जिससे बड़े से बड़ा भयानक रोग नाश हो जाता है।

जिस मनुष्य के मन में परमात्मा बस जाता है उसका मन हर समय खिला रहता है, उसे किसी विकार आदि से डर-खतरा नहीं रहता क्योंकि उसे यकीन आ जाता है कि जो कुछ हो रहा है परमात्मा की रजा में हो रहा है और परमात्मा बंदगी करने वाले को स्वयं हाथ दे के बचाता है।

जिन मनुष्यों को प्रभू अपने ‘नाम’ की दाति देता है, उनकी दुमर्ति, भरम और भय दूर हो जाते हैं। ना ही वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ते हैं, ना ही कोई ऐसा काम करते हैं जिसके कारण पछताना पड़े; वे हर वक्त प्रभू के नाम को हृदय में परोए रखते हैं।

सरब-निवासी प्रभू जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, उससे सिमरन की कमाई स्वयं ही करवाता है, जिसके हृदय में बसता है उसका जीवन सुखी हो जाता है। पर, वही मनुष्य सिमरन करता है, जो सतिगुरू का आसरा लेता है।

जो मनुष्य परमात्मा के हो के रहते हैं उन्हें प्रभू विकारों दुखों से इस तरह बचा लेता है, मानो, उन्हें गले से लगा लेता है, कोई विकार दुख उनपे दबाव नहीं डाल सकते। पर, जो लोग गुरमुखों की निंदा करते हैं, उनके अंदर शांति नहीं होती, वह, मानो, घोर नर्क में जल रहे हैं।

परमात्मा का सिमरन करने से दुनियावी झोरे (चिंता-फिक्र) खत्म हो जाते हैं, मनुष्य की आत्मा प्रभू की ज्योति में लीन हो जाती है, उसके हृदय में सुख, अडोलता और खुशी आ बसती है, प्रभू और भक्त एक रूप हो जाते हैं।

समूचा भाव:

(1 से 4 तक) बड़े-बड़े लोगों से ले के सारे जीव इस रंगा-रंग जगत के रचनहार करतार ने अपने हुकम रूपी धागे में परोए हुए हैं, ताने-पेटे की तरह वह सब में मिला हुआ है। सबके दिलों की वह हर वक्त जानता है, ये उसकी अपनी रजा ही है कि कई जीव विकारों में ख्वार हो रहे हैं, मनुष्य की कोई चतुराई-समझदारी इसको बचा नहीं सकती, जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको अपनी याद और सिफत सालाह में जोड़ता है।

(5 से 10 तक) जिस मनुष्य पर परमात्मा की कृपा-दृष्टि होती है उस भाग्यशाली को सतिगुरू की संगति नसीब होती है, गुरू के पास प्रभू की सिफत-सालाह का, मानो, खजाना है, ज्यों-ज्यों मनुष्य अपना मन गुरू के हवाले करता है, उसकी दुमर्ति नाश होती है, प्रभू-चरणों का प्यार उसको जगत के सारे खजानों से ज्यादा प्यारा लगता है, नाम सिमरन से उसके मन में ठंड पड़ती है, संतोष आता है, विकारों की तरफ से वह अपनी रुचि समेट लेता है, इस तरह एक बार प्रभू की हजूरी में प्रवान हो के वह दुबारा बुराई की ओर नहीं जाता।

(11 से 16 तक) जगत की सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है, जीवों का विकारों में प्रवृति होना भी प्रभू की ही अपनी रजा है, जीव की चतुराई कारगर नहीं हो सकती, ये कामादिक विकार इतने बली है कि बड़े-बड़े त्यागी भी इनके आगे धराशाही होजाते हैं। एक ही बचाव है– प्रभू की मेहर से सतिगुरू की ओट। गुरू, मनुष्य को ‘नाम’ का खजाना देता है; ‘नाम’ ऐसी दवाई है जिससे बड़े से बड़े असाध आत्मिक रोग नाश हो जाते हैं।

(17 से 21 तक) ‘नाम’ की बरकति से मनुष्य का मन प्रफुल्लित रहता है, जीवन सुखी हो जाता है, कोई विकार दुख आदि उस पर दबाव नहीं डाल सकता, ‘नाम’ में मन हर समय परोया रहने के कारण बंदगी वाला मनुष्य और परमात्मा एक-रूप हो जाते हैं।

मुख्य भाव:

ये सारा बहुरंगी जगत ईश्वर ने खुद रचा है, विकारों का अस्तित्व भी उसी की रजा के मुताबिक है। पर, ये विकार इतने बली है कि मनुष्य अपनी चतुराई से इनसे बच नहीं सकता। जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर करता है वह गुरू की शरण पड़ कर ‘नाम’ सिमरता है, ‘नाम’ की बरकति से कोई विकार दबाव नहीं डाल सकता, जीवन सुखी हो जाता है और मनुष्य प्रभू का रूप हो जाता है।

वार की संरचना

ये ‘वार’ गुरू अर्जुन साहिब जी की रची हुई है, इसमें ‘21’ पउड़ियां हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो–दो शलोक हैं, सारे शलोकों की गिनती 42 है, और ये सारे शलोक भी गुरू अर्जुन साहिब जी के ही हैं।

हरेक ‘पौड़ी’ में आठ–आठ तुकें हैं सिर्फ पौड़ी नंबर 20 में पाँच तुकें हैं। पहली और बीसवीं पौड़ी छोड़ के बाकी सारी पौड़ियों के साथ बरते गए शलाक दो दो तुकों के हैं (दूसरी पौड़ी का पहला शलोक भी चार तुकों का है), इन 37 शलोकों में पश्चिमी पंजाब की बोली (लहंदी बोली, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) के शब्द ज्यादा मिलते हैं। शलोकों की बाँट, एक जैसी दो तुकी संरचना, एक जैसा विषय–वस्तु, सारे ही शलोकों और पौड़ियों का एक ही गुरू साहिबान का होना – इन बातों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये ‘वार’ और इसके साथ बरते गए ‘शलोक’ एक ही वक्त पे उचारे गए हैं। ‘आसा की वार’ में ये बात नहीं है, एक तो वहाँ शलोकों के विषय–वस्तु अलग–अलग हैं, दूसरे, पौड़ियों के बरते गए शलोकों की बाँट भी एक जैसी नहीं है, तीसरे, कई पौड़ियों के साथ गुरू नानक देव जी का अपना उचारा हुआ शलोक भी नहीं है।

रागु गूजरी वार महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोकु मः ५ ॥ अंतरि गुरु आराधणा जिहवा जपि गुर नाउ ॥ नेत्री सतिगुरु पेखणा स्रवणी सुनणा गुर नाउ ॥ सतिगुर सेती रतिआ दरगह पाईऐ ठाउ ॥ कहु नानक किरपा करे जिस नो एह वथु देइ ॥ जग महि उतम काढीअहि विरले केई केइ ॥१॥ {पन्ना 517}

पद्अर्थ: अंतरि = मन में। आराधणा = याद करना। गुर नाउ = गुरू का नाम। स्रवणी = कानों से। सेती = से। रतिआ = रंग के, प्यार करने से। वथु = चीज। काढीअहि = कहलवाते हैं।

अर्थ: अगर अपने गुरू (के प्यार) में रंगे जाएं तो (प्रभू की) हजूरी में जगह मिलती है। मन में गुरू को याद करना, जीभ से गुरू का नाम जपना, आँखों से गुरू को देखना, कानों से गुरू का नाम सुनना- ये दाति, कह, हे नानक! उस मनुष्य को प्रभू देता है जिस पर मेहर करता है, ऐसे बंदे जगत में श्रेष्ठ कहलवाते हैं, (पर ऐसे होते) कोई विरले-विरले हैं।1।

मः ५ ॥ रखे रखणहारि आपि उबारिअनु ॥ गुर की पैरी पाइ काज सवारिअनु ॥ होआ आपि दइआलु मनहु न विसारिअनु ॥ साध जना कै संगि भवजलु तारिअनु ॥ साकत निंदक दुसट खिन माहि बिदारिअनु ॥ तिसु साहिब की टेक नानक मनै माहि ॥ जिसु सिमरत सुखु होइ सगले दूख जाहि ॥२॥ {पन्ना 517}

पद्अर्थ: रखणहारि = रक्षा करने वाले (प्रभू) ने। उबारिअनु = बचा लिए उस (प्रभू) ने। सवारिअनु = सवार दिए उस ने। मनहु = मन से। विसारिअनु = विसार दिए उस ने। भवजलु = संसार समुंद्र। तारिअनु = तारे उस ने। साकतु = टूटे हुए, विछुड़े हुए। बिदारिअनु = नाश कर दिए उस ने।

अर्थ: रक्षा करने वाले परमात्मा ने जिन लोगों की मदद की, उनको उसने खुद (विकारों से) बचा लिया है। उनको गुरू के पैरों पे डाल के उनके सारे काम उसने सवार दिए हैं। जिन पर प्रभू स्वयं दयालु हुआ है, उनको उसने (अपने) मन से विसारा नहीं, उनको गुरमुखों की संगति में (रख के) संसार-समुंद्र पार करवा दिया।

जो उसके चरणों से टूटे हुए हैं, जो निंदा करते रहते हैं, जो गंदे आचरण वाले हैं, उनको एक पल में उसने मार दिया है।

नानक के मन में भी उस मालिक का आसरा है जिसको सिमरने से सुख मिलता है और सारे दुख दूर हो जाते हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh