श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ अकुल निरंजन पुरखु अगमु अपारीऐ ॥ सचो सचा सचु सचु निहारीऐ ॥ कूड़ु न जापै किछु तेरी धारीऐ ॥ सभसै दे दातारु जेत उपारीऐ ॥ इकतु सूति परोइ जोति संजारीऐ ॥ हुकमे भवजल मंझि हुकमे तारीऐ ॥ प्रभ जीउ तुधु धिआए सोइ जिसु भागु मथारीऐ ॥ तेरी गति मिति लखी न जाइ हउ तुधु बलिहारीऐ ॥१॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: अकुल = अ+कुल, जिस का कोई खास कुल नहीं। निरंजन = निर+अंजन, जिसे माया की कालिख नहीं लग सकती। पुरखु = जो सब में मौजूद है। अगमु = जिस तक पहुँच ना हो सके, अपहुँच। अपारीअै = अ+पार, जिसका परला छोर ना मिल सके। सचा = सदा-स्थिर रहने वाला। निहारीअै = देखता है। न जापै = नहीं प्रतीत होती, मालूम नहीं होती। धारीअै = बनाई हुई है। दे = देता है। जेत = जितनी (सृष्टि)। इकतु सूति = एक ही धागे में। संजारीअै = मिला दी है। मथारीअै = माथे पर। गति = हालत। मिति = मिनती, अंदाजा।

अर्थ: हे परमात्मा! तेरी कोई खास कुल नहीं, माया की कालिख तुझे लग नहीं सकती, (तू) सब में मौजूद है, अपहुँच और बेअंत है, तू सदा ही कायम रहने वाला और सच-मुच हस्ती वाला देखने में आता है, सारी सृष्टि तेरी ही रची हुई है (इसमें भी) कोई चीज फर्जी (भाव, मनघड़ंत) नहीं प्रतीत होती।

(जितनी भी) सृष्टि प्रभू ने पैदा की है (इस में) सब जीवों को दातार प्रभू (दातें) देता है; सब को एक ही (हुकम रूपी) धागे में परो के (सब में उसने अपनी) ज्योति मिलाई हुई है; अपने हुकम के अंदर ही (उसने जीवों को) संसार समुंद्र में (फसाया हुआ है और) हुकम के अंदर ही (इस में से) पार लंघाता है।

हे प्रभू जी! तुझे वही मनुष्य सिमरता है, जिसके माथे पर भाग्य हों; ये बात बयान नहीं की जा सकती कि तू कैसा है और कितना बड़ा है, मैं तुझसे सदके हूँ।1।

सलोकु मः ५ ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान अचिंतु वसहि मन माहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान नउ निधि घर महि पाहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान ता गुर का मंत्रु कमाहि ॥ जा तूं तुसहि मिहरवान ता नानक सचि समाहि ॥१॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: तुसहि = प्रसन्न होता है। अचिंतु = अचनचेत ही, सोच के यतन के बिना ही। वसहि = तू आ बसता है। निधि = खजाने। मंत्रु = उपदेश। सचि = सच में।

अर्थ: हे मेहरवान प्रभू! अगर तू प्रसन्न हो जाए तो तू सहज सुभाय ही (जीवों के) मन में आ बसता है, जीव, मानो, नौ खजाने (हृदय) घर में ही पा लेते हैं; सतिगुरू का शबद कमाने लग पड़ते हैं, और, हे नानक! जीव सत्य में लीन हो जाते हैं।1।

मः ५ ॥ किती बैहन्हि बैहणे मुचु वजाइनि वज ॥ नानक सचे नाम विणु किसै न रहीआ लज ॥२॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: किती = कई जीव। बैहनि् = बैठते हैं (अक्ष्र ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है)। बैहण = बैठने की जगह। बैहणे = जगह पर। मुचु = बहुत। वज = बाजे। लज = लाज, इज्ज्त।

अर्थ: हे नानक! (इस जगत में) बेअंत जीव इन जगहों पर बैठ गए हैं और बहुत बाजे बजा गए हैं, पर सच्चे नाम से वंचित रह के किसी की भी इज्जत नहीं रही।2।

पउड़ी ॥ तुधु धिआइन्हि बेद कतेबा सणु खड़े ॥ गणती गणी न जाइ तेरै दरि पड़े ॥ ब्रहमे तुधु धिआइन्हि इंद्र इंद्रासणा ॥ संकर बिसन अवतार हरि जसु मुखि भणा ॥ पीर पिकाबर सेख मसाइक अउलीए ॥ ओति पोति निरंकार घटि घटि मउलीए ॥ कूड़हु करे विणासु धरमे तगीऐ ॥ जितु जितु लाइहि आपि तितु तितु लगीऐ ॥२॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: कतेबा = तौरेत, जबूर, अंजील, कुरान। सणु = समेत। इंद्रासणा = इंद्र के आसन वाले। शंकर = शिव। मुखि = मुँह से। भणा = उचारते हैं। पिकाबर = पैगंबर। मसाइक = कई शेख। अउलीऐ = वली। ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ। ओति पोति = जैसे ताना और पेटा आपस में मिले हुए हैं। मउलीऐ = मौल रहा है, प्रफुल्लि्त है। तगीअै = आखिर तक निभाते हैं।

अर्थ: हे प्रभू! (तौरेत, जंबूर, अंजील, कुरान) कतेबों समेत वेद (भाव, हिंदू मुसलमान आदि सारे मतों के धर्म-पुस्तक) तुझे खड़े सिमर रहे हैं, इतने जीव तेरे दर पर गिरे हुए हैं कि उनकी गिनती नहीं गिनी जा सकती। कई ब्रहमा और सिहांसनों वाले कई इंद्र तुझे ध्याते हैं। हे हरी! कई शिव और विष्णु के अवतार तेरा यश मुँह से उचार रहे हैं, कई पीर, पैग़ंबर, बेअंत शेख और वली (तेरे गुण गा रहे हैं)। हे निरंकार! ताने-पेटे की तरह हरेक शरीर में तू मौल रहा है।

(हे प्रभू!) झूठ के कारण (जीव अपने आप का) नाश कर लेता है, धर्म के द्वारा (तेरे साथ जीवों की) आखिर तक निभ जाती है। पर, जिधर जिधर तू स्वयं लगाता है, उधर उधर ही लग सकते हैं (जीवों के वश की बात नहीं है)।2।

सलोकु मः ५ ॥ चंगिआईं आलकु करे बुरिआईं होइ सेरु ॥ नानक अजु कलि आवसी गाफल फाही पेरु ॥१॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: आलकु = आलस। सेरु = भाव, दलेर। अजु कलि = जल्दी ही। आवसी = आ जाएगा। गाफल पेरु = गाफल मनुष्य का पैर। फाही = फाही, मौत की फाही में।

अर्थ: (गाफल मनुष्य) अच्छे कामों में आलस करता है और बुरे कामों में शेर होता है; पर, हे नानक! गाफल का पैर जल्दी ही मौत की फाही में आ जाता है (भाव, मौत आ दबोचती है)।1।

मः ५ ॥ कितीआ कुढंग गुझा थीऐ न हितु ॥ नानक तै सहि ढकिआ मन महि सचा मितु ॥२॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: कितिआ = कई, कितने ही। कुढंग = बुरे ढंग, खोटे कर्म। गुझा = छुपा हुआ। तै सहि = तुझ पति ने। सहि = सहु ने।

अर्थ: हे नानक के प्रभू! हमारे कई खोटे कर्म और खोटे कर्मों का लेख तुझसे छुपा नहीं हुआ; तू ही हमारे मन में सच्चा मित्र है (भाव, तू ही हमें सच्चा मित्र दिखता है), तूने हमारे उन खोटे कर्मों पर पर्दा डाल रखा है (भाव, हमें जगत में बदनाम नहीं होने देता)।2।

पउड़ी ॥ हउ मागउ तुझै दइआल करि दासा गोलिआ ॥ नउ निधि पाई राजु जीवा बोलिआ ॥ अम्रित नामु निधानु दासा घरि घणा ॥ तिन कै संगि निहालु स्रवणी जसु सुणा ॥ कमावा तिन की कार सरीरु पवितु होइ ॥ पखा पाणी पीसि बिगसा पैर धोइ ॥ आपहु कछू न होइ प्रभ नदरि निहालीऐ ॥ मोहि निरगुण दिचै थाउ संत धरम सालीऐ ॥३॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: निधि = खजाना। बोलिआ = (तेरा नाम) उचारने से। घणा = बहुत। स्रवणी = कानों से। पीसि = (चक्की) पीस के। बिगसा = मैं खुश होता हूँ। आपहु = मेरे अपने पास से। निहालीअै = देख। मोहि = मुझे। धरमसालीअै = धर्म स्थान में, सत्संग में।

अर्थ: हे दया के घर प्रभू! मैं तुझसे (ये) माँगता हूँ (कि मुझे अपने) दासों का दास बना ले; तेरा नाम उचारने से ही मैं जीता हूँ, (और, जैसे,) नौ खजाने और (धरती का) राज पा लेता हूँ। ये अमृत-नाम रूपी खजाना तेरे सेवकों के घर में बहुत है; जब मैं उनकी संगति में (बैठ के, अपने) कानों से (तेरा) जस सुनता हूँ, मैं निहाल हो जाता हूँ। (ज्यों ज्यों) मैं उनकी सेवा करता हूँ, (मेरा) शरीर पवित्र हो जाता है, (उन्हें) पंखा करके (उनके लिए) पानी ढो के, (चक्की) पीस के, (और उनके) पैर धो के मैं खुश होता हूँ।

पर, हे प्रभू! मुझसे अपने आप से कुछ नहीं हो सकता, तू ही मेरी तरफ मेहर की नजर से देख, और मुझ गुण-हीन को संतों की संगति में जगह दे।3।

सलोक मः ५ ॥ साजन तेरे चरन की होइ रहा सद धूरि ॥ नानक सरणि तुहारीआ पेखउ सदा हजूरि ॥१॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: धूरि = धूल, ख़ाक। पेखउ = देखूँ। हजूरि = अंग संग, अपने साथ।

अर्थ: हे नानक! (ऐसे कह, कि) हे सज्जन! मैं सदा तेरे पैरों की ख़ाक होया रहूँ, मैं तेरी शरण पड़ा रहूँ और तुझे अपने अंग संग देखूँ।1।

मः ५ ॥ पतित पुनीत असंख होहि हरि चरणी मनु लाग ॥ अठसठि तीरथ नामु प्रभ जिसु नानक मसतकि भाग ॥२॥ {पन्ना 518}

पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। असंख = बेअंत (जीव)। अठसठि = अढ़सठ। मसतकि = माथे पर।

अर्थ: (विकारों में) गिरे हुए भी बेअंत जीव पवित्र हो जाते हैं अगर उनका मन प्रभू के चरणों में लग जाए, प्रभू का नाम ही अढ़सठ तीर्थ है। पर, हे नानक! (ये नाम उस मनुष्य को मिलता है) जिसके माथे पर भाग्य (लिखे) हैं।2।

पउड़ी ॥ नित जपीऐ सासि गिरासि नाउ परवदिगार दा ॥ जिस नो करे रहम तिसु न विसारदा ॥ आपि उपावणहार आपे ही मारदा ॥ सभु किछु जाणै जाणु बुझि वीचारदा ॥ अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा ॥ जिस नो लाइ सचि तिसहि उधारदा ॥ जिस दै होवै वलि सु कदे न हारदा ॥ सदा अभगु दीबाणु है हउ तिसु नमसकारदा ॥४॥ {पन्ना 518-519}

पद्अर्थ: सासि = सांस से। गिरासि = ग्रास से। सासि गिरासि = साँस लेते हुए और खाते हुए। परवदिगार = पालने वाला। रहंम = रहम, तरस। जाणु = अंतरयामी। बुझि = समझ के। सचि = सच में। अभगु = अ+भगु, ना नाश होने वाला। दीबाणु = दरबार।

अर्थ: (हे भाई!) पालनहार प्रभू का नाम साँस लेते हुए खाते हुए हर वक्त जपना चाहिए। वह प्रभू जिस बंदे पर मेहर करता है उसको (अपने मन में से) नहीं भुलाना, वह स्वयं जीवों को पैदा करने वाला है और स्वयं ही मारता है, वह अंतरजामी (जीवों के दिल की) हरेक बात जानता है और उसको समझ के (उस पर) विचार भी करता है, एक पलक में कुदरत के अनेकों रूप बना देता है, जिस मनुष्य को वह सच में जोड़ता है उसको (विकारों से) बचा लेता है।

प्रभू जिस जीव के पक्ष में हो जाता है वह जीव (विकारों के मुकाबले और मानस जनम की बाजी) कभी नहीं हारता, उस प्रभू का दरबार सदा अटॅल है, मैं उसको नमस्कार करता हूँ।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh