श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 520 सलोक मः ५ ॥ प्रेम पटोला तै सहि दिता ढकण कू पति मेरी ॥ दाना बीना साई मैडा नानक सार न जाणा तेरी ॥१॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: पटोला = पॅट का कपड़ा, रेशमी कपड़ा। प्रेम पटोला = ‘प्रेम’ का रेशमी कपड़ा। तै सहि = तुझ पति ने। मैडा = मेरा। सार = कद्र। अर्थ: मेरी नानक की इज्जत ढक के रखने के लिए (हे प्रभू!) तुमने ने मुझे अपना ‘प्यार’-रूप रेशमी कपड़ा दिया है, तू मेरा पति (मेरे दिल की) जानने वाला है, मैंने तेरी कद्र नहीं समझी।1। (पन्ना ५१९) मः ५ ॥ तैडै सिमरणि हभु किछु लधमु बिखमु न डिठमु कोई ॥ जिसु पति रखै सचा साहिबु नानक मेटि न सकै कोई ॥२॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: तैडै सिमरणि = तेरे सिमरन से। हभु किछु = हरेक चीज। कोई बिखमु = कोई मुश्किल। जिसु = जिस की। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे सिमरन (की बरकति) से मैनें (मानो) हरेक पदार्थ ढूँढ लिया है (और जिंदगी में) कोई मुश्किल नहीं देखी। हे नानक! जिस मनुष्य की इज्जत मालिक खुद रखे, (उसकी इज्जत को और) कोई नहीं मिटा सकता।2। पउड़ी ॥ होवै सुखु घणा दयि धिआइऐ ॥ वंञै रोगा घाणि हरि गुण गाइऐ ॥ अंदरि वरतै ठाढि प्रभि चिति आइऐ ॥ पूरन होवै आस नाइ मंनि वसाइऐ ॥ कोइ न लगै बिघनु आपु गवाइऐ ॥ गिआन पदारथु मति गुर ते पाइऐ ॥ तिनि पाए सभे थोक जिसु आपि दिवाइऐ ॥ तूं सभना का खसमु सभ तेरी छाइऐ ॥८॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: दयि = प्यारा (प्रभू)। दयि धिआइअै = (व्याकरण अनुसार ये दोनों शब्द ‘अधिकरण कारक’ एकवचन हैं, वाक्यांश (Phrase) को अंग्रेजी में Locative Absolute कहते हैं और पंजाबी में ‘पूरब पूरन कारदंतक’) अगर प्यारा प्रभू सिमरा जाए। (नोट: इस पउड़ी में नीचे लिखे सारे ‘वाक्यांश’ ‘पूरब पूरन कारदंतक’ में ही हैं – गुण गाइअै, प्रभि आइअै नाइ वसाइअै; आपु गवाइअै, गुर ते पाइअै। निम्नलिखित शब्दों का परस्पर अंतर याद रखा जाना चाहिए– धिआइअै, धिआईअै; गाइअै, गाईअै; आइअै, आईअै; वसाइअै, वसाईअै; गवाइअै, गवाईअै; पाइअै, पाईअै। धिआइअै–अगर सिमरें। धिआईअै–सिमरना चाहिए। गाइअै–अगर गाएं। गाईअै–गाना चाहिए)। वंञै–नाश हो जाता है। ठाढि–ठंड, शांति। चिति–चिक्त में। मंनि–मन में। नाइ– (ये शब्द ‘नाम’ से ‘अधिकरण कारक, एक वचन’ हैं) आपु–स्वै भाव। तिनि–उस मनुष्य ने। छाइअै–छाया के नीचे, साए में। अर्थ: यदि प्यारे प्रभू को सिमरें तो बहुत ही सुख होता है, अगर हरी के गुण गाएं तो रोगों के घाण (भाव, सारे ही रोग) नाश हो जाते हैं, अगर प्रभू चिक्त में आ बसे तो चिक्त में ठंड पड़ जाती है, अगर प्रभू का नाम मन में बस जाए तो आस पूरी हो जाती है (भाव, आशा-तृष्णा आदि मिट जाती है), अगर स्वैभाव गवा दें तो (जिंदगी की राह में) कोई मुश्किल नहीं आती; अगर सतिगुरू की मति हासिल करें तो (प्रभू के) ज्ञान का खजाना (मिल जाता है), पर ये सारे पदार्थ उस मनुष्य ने प्राप्त किए जिसको प्रभू ने खुद (गुरू के माध्यम से) दिलवाए हैं। (हे प्रभू!) तू सब जीवों का पति है, सारी सृष्टि तेरे साए तले है।8। सलोक मः ५ ॥ नदी तरंदड़ी मैडा खोजु न खु्मभै मंझि मुहबति तेरी ॥ तउ सह चरणी मैडा हीअड़ा सीतमु हरि नानक तुलहा बेड़ी ॥१॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: खोजु = पैर। खुंभै = गड़ा हुआ, फँसना। मंझि = मेरे अंदरं। सह = हे पति (प्रभू)! तउ चरणी = तेरे चरणों में। हीअड़ा = निमाणा सा दिल। सीतमु = मैंने सी लिया है। तुलहा = तुलहा, लकड़ियों का बँधा हुआ गॅठा जो दरिया के किनारे पर बसने वाले लोग दरिआ पार करने के लिए बरतते हैं। अर्थ: (संसार-) नदी में तैरते हुआ मेरा पैर (मोह के कीचड़ में) नहीं फँसता, क्योंकि मेरे हृदय में तेरी प्रीति है। हे पति (प्रभू)! मैंने अपना ये निमाणा सा दिल तेरे चरणों में परो लिया है, हे हरी! (संसार समुंद्र में से तैरने के लिए, तू ही) नानक का तुलहा है और बेड़ी है।1। मः ५ ॥ जिन्हा दिसंदड़िआ दुरमति वंञै मित्र असाडड़े सेई ॥ हउ ढूढेदी जगु सबाइआ जन नानक विरले केई ॥२॥ अर्थ: हमारे (असल) मित्र वही मनुष्य हैं जिनका दीदार होने से बुरी मति दूर हो जाती है। पर, हे दास नानक! मैंने सारा जगत तलाश के देख लिया है, कोई विरले (ऐसे मनुष्य मिलते हैं)।2। पउड़ी ॥ आवै साहिबु चिति तेरिआ भगता डिठिआ ॥ मन की कटीऐ मैलु साधसंगि वुठिआ ॥ जनम मरण भउ कटीऐ जन का सबदु जपि ॥ बंधन खोलन्हि संत दूत सभि जाहि छपि ॥ तिसु सिउ लाइन्हि रंगु जिस दी सभ धारीआ ॥ ऊची हूं ऊचा थानु अगम अपारीआ ॥ रैणि दिनसु कर जोड़ि सासि सासि धिआईऐ ॥ जा आपे होइ दइआलु तां भगत संगु पाईऐ ॥९॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। वुठिआ = पहुँचा। सबदु = सिफत सालाह की बाणी। खोलनि्, लाइनि् = (अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है)। सभ = सारी सृष्टि। धारीआ = टिका के रखी हुई है। अगम = अपहुँच। रैणि = रात। कर = हाथ। धिआईअै = सिमरना चाहिए। (नोट: पिछली पउड़ी की पहली तुक में देखें शब्द ‘धिआइअै’)। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे भक्तों का दर्शन करने से तू मालिक हमारे मन में आ बसता है, साध-संगति में पहुँचने से मन की मैल काटी जाती है, (साध-संगति में रह के) सिफत-सालाह की बाणी पढ़ने से सेवक का जनम-मरण का (भाव, सारी उम्र का) डर काटा जाता है, क्योंकि संत (जिस मनुष्य के माया वाले) बंधन खोलते हैं (उसके विकार रूप) सारे जिंन-भूत भाग जाते हैं। ये सारी सृष्टि जिस प्रभू की टिकाई हुई है, जिसका स्थान सबसे ऊँचा है, जो अपहुँच और बेअंत है, संत उस परमात्मा के साथ (हमारा) प्यार जोड़ देते हैं। (हे भाई!) दिन-रात स्वास-स्वास हाथ जोड़ के प्रभू का सिमरन करना चाहिए, जब प्रभू स्वयं ही दयालु होता है तो उसके भक्तों की संगति प्राप्त होती है।9। सलोक मः ५ ॥ बारि विडानड़ै हुमस धुमस कूका पईआ राही ॥ तउ सह सेती लगड़ी डोरी नानक अनद सेती बनु गाही ॥१॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: बारि विडानड़ै = बेगाने दरवाजे पर, संसार रूपी बेगानी जूह में जहाँ हरेक जीव थोड़े से समय के लिए मुसाफिर बन के आया है। हुंमस = (संस्कृत: ‘हुत वह’ = आग, प्राकृत = ‘हुअ वह’, ‘हुवह’; पंजाबी = हुंम्) आग का सेक। कूका = आवाजें, दुहाई। सह = हे सहु! तउ सेती = तेरे साथ। बनु गाही = मैं (संसार) जंगल गाह रहा हूँ। अर्थ: (जगत-रूपी इस) बेगानी जूह में (फंस जाने के कारण, अगर तृष्णा की) आग के बड़े सेक के कारण राहों में आवाजें (चीख-पुकार) पड़ रही हैं (भाव, जीव घबराए हुए हैं) पर, हे पति (प्रभू)! मैं नानक (के चिक्त) की डोर तेरे (चरणों) से लगी हुई है, (इस वास्ते) मैं आनंद से (इस संसार) जंगल में से गुजर रहा हूँ।1। मः ५ ॥ सची बैसक तिन्हा संगि जिन संगि जपीऐ नाउ ॥ तिन्ह संगि संगु न कीचई नानक जिना आपणा सुआउ ॥२॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: सची = सदा कायम रहने वाली, आखिर तक निभने वाली। बैसक = बैठक। संगि = साथ। संगु = साथ। सुआउ = स्वार्थ, गरज। अर्थ: उन मनुष्यों के साथ आखिर तक निभने वाली मुहब्बत (करनी चाहिए) जिनके साथ (बैठने से परमात्मा का) नाम सिमरा जा सके; हे नानक! जिन को (हर समय) अपनी ही गरज हो, उनके साथ साथ नहीं करना चाहिए।2। पउड़ी ॥ सा वेला परवाणु जितु सतिगुरु भेटिआ ॥ होआ साधू संगु फिरि दूख न तेटिआ ॥ पाइआ निहचलु थानु फिरि गरभि न लेटिआ ॥ नदरी आइआ इकु सगल ब्रहमेटिआ ॥ ततु गिआनु लाइ धिआनु द्रिसटि समेटिआ ॥ सभो जपीऐ जापु जि मुखहु बोलेटिआ ॥ हुकमे बुझि निहालु सुखि सुखेटिआ ॥ परखि खजानै पाए से बहुड़ि न खोटिआ ॥१०॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: परवाणु = कबूल, मंजूर होती है। जितु = जिस वक्त। भेटिआ = मिला। तेटिआ = तेट में, गिरफत में। गरभि = गर्भ में, जून में। सगल = हर जगह। ततु = निचोड़। जि = जो कुछ। सुखि सुखेटिआ = सुखी ही सुखी। अर्थ: वह घड़ी मंजूर हो गई समझें, जिस घड़ी मनुष्य को सतिगुरू मिल गया; जिस मनुष्य को गुरू की मेहर हो गई, वह दुबारा दुखों की गिरफत में नहीं आता, (गुरू मिलने से) जिस को पक्का टिकाना मिल गया, वह फिर (और और) जूनियों में नहीं पड़ता, उसे हर जगह एक ब्रहम ही दिखता है; (बाहर से अपनी) नजर को समेट के, (प्रभू में) ध्यान लगा के वह असल ऊँची समझ हासल कर लेता है; वह जो कुछ मुंह से बोलता है (प्रभू की सिफत सालाह का) जाप ही बोलता है, प्रभू की रजा को समझ के वह प्रसनन रहता है और सुखी ही सुखी रहता है। (गुरू की शरण आए जिन मनुष्यों को) परख के (प्रभू ने अपने) खजाने में डाला है वह दुबारा खोटे नहीं होते।10। सलोकु मः ५ ॥ विछोहे ज्मबूर खवे न वंञनि गाखड़े ॥ जे सो धणी मिलंनि नानक सुख स्मबूह सचु ॥१॥ {पन्ना 520} पद्अर्थ: विछोहे = बिछोड़े (के दुख)। जंबूर = चिमटे जैसा एक हथियार जिससे अपने वश में आए वैरियों को लोग मारते हैं, जंबूर से बोटी बोटी करके शरीर का माँस उधेड़ा जाता था। खवे न वंञनि = सहे नहीं जा सकते, असहनीय। गाखड़े = मुश्किल। संबूह = सारे। अर्थ: हे नानक! (प्रभू के चरणों से) विछोड़े (का दुख) जंबूर (की पीड़ा) के जैसे मुश्किल है, बर्दाश्त नहीं किए जा सकते। अगर वह प्रभू मालिक जी मिल जाएं तो यकीनन सारे सुख ही सुख हो जाते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |