श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ५ ॥ जिमी वसंदी पाणीऐ ईधणु रखै भाहि ॥ नानक सो सहु आहि जा कै आढलि हभु को ॥२॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: पाणीअै = पानी में। ईधणु = ईधन, लकड़ियां। भाहि = आग। आहि = है। आढलि = आसरे में। हभु को = हरेक जीव।

अर्थ: हे नानक! (जैसे) धरती पानी में (अडोल) बसती है और पानी को आसरा भी देती है, (जैसे) लकड़ी (अपने अंदर) आग (छुपा के) रखती है, (वैसे) वह पति (प्रभू) जिस के आसरे हरेक जीव है, (इस सारे जगत में अडोल छुपा हुआ) है।2।

पउड़ी ॥ तेरे कीते कम तुधै ही गोचरे ॥ सोई वरतै जगि जि कीआ तुधु धुरे ॥ बिसमु भए बिसमाद देखि कुदरति तेरीआ ॥ सरणि परे तेरी दास करि गति होइ मेरीआ ॥ तेरै हथि निधानु भावै तिसु देहि ॥ जिस नो होइ दइआलु हरि नामु सेइ लेहि ॥ अगम अगोचर बेअंत अंतु न पाईऐ ॥ जिस नो होहि क्रिपालु सु नामु धिआईऐ ॥११॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: गोचरे = पहुँच में, अधीन। जगि = जगत में। जि = जो। कीआ = कर दिया, हुकम दे दिया। धुरे = धुर से। बिसमु = हैरान, आश्चर्य। देखि = देख के। गति = हालत, ऊँची आत्मिक अवस्था, मुक्ति। हथि = हाथ में। निधानु = (नाम का) खजाना। देहि = तू देता है। होइ = हो के। सोइ = सेई, वही मनुष्य। होहि = तू होता है।

अर्थ: (हे प्रभू!) जो जो काम तूने किए हैं यह तू ही कर सकता है, जगत में वही कुछ हो रहा है जो करने के वास्ते तूने धुर से हुकम कर दिया है, तेरी कुदरति देख-देख के हम हैरान हो रहे हैं।

(तेरे) दास आसरा लेते हैं (मैं भी तेरी शरण आया हूँ, हे प्रभू! मेहर) कर, मेरी भी आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाए, (तेरे नाम का) खजाना तेरे (अपने) हाथ में है, अगर तुझे अच्छा लगे उसे तू (ये खजाना) देता है, जिस जिस को दयाल हो के हरी-नाम (देता है) वही जीव तेरा नाम-खजाना प्राप्त करते हैं।

हे अपहुँच! हे अगोचर! हे बेअंत प्रभू! तेरा अंत नहीं पाया जा सकता, तू जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है वह तेरा नाम सिमरता है।11।

सलोक मः ५ ॥ कड़छीआ फिरंन्हि सुआउ न जाणन्हि सुञीआ ॥ सेई मुख दिसंन्हि नानक रते प्रेम रसि ॥१॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: फिरंनि्, दिसंनि् = (अक्षर ‘न’ के साथ आधा ‘ह’ है)। सुआउ = स्वाद। सुञीआ = खाली। सेई = वही। दिसंनि् = दिखते हैं। सेई मुख दिसंनि् = वही मुख सुंदर दिखते हैं, वही मुंह सुंदर जानो। प्रेम रसि = प्रभू के प्यार के रस में।

अर्थ: हे नानक! कड़छीआं (दाल-भाजी के बर्तनों में) फिरती हैं (पर वह उस दाल-भाजी) का स्वाद नहीं जानतीं (क्योंकि वे) खाली (ही रहती) हें, (इस तरह) वह मुंह (सुंदर) दिखते हैं जो प्रेम के स्वाद में रंगे गए हैं (सिर्फ बातें करने वाले मुँह कड़छियों की तरह ही हैं)।1।

मः ५ ॥ खोजी लधमु खोजु छडीआ उजाड़ि ॥ तै सहि दिती वाड़ि नानक खेतु न छिजई ॥२॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: खोजी = खोज ढूँढने वाले (गुरू) के द्वारा। सहि = पति ने। न छिजई = नाश नहीं होता, नहीं उजड़ता।

अर्थ: (जिन कामादिकों ने मेरी खेती) उजाड़ दी थी उनका खोज मैंने खोज निकालने वाले (गुरू) के द्वारा ढूँढ लिया है। तुझ पति ने मेरी खेती को (गुरू की सहायता की) वाड़ दे दी है, अब नानक की खेती नहीं उजड़ती।2।

पउड़ी ॥ आराधिहु सचा सोइ सभु किछु जिसु पासि ॥ दुहा सिरिआ खसमु आपि खिन महि करे रासि ॥ तिआगहु सगल उपाव तिस की ओट गहु ॥ पउ सरणाई भजि सुखी हूं सुख लहु ॥ करम धरम ततु गिआनु संता संगु होइ ॥ जपीऐ अम्रित नामु बिघनु न लगै कोइ ॥ जिस नो आपि दइआलु तिसु मनि वुठिआ ॥ पाईअन्हि सभि निधान साहिबि तुठिआ ॥१२॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: दुहा सिरिआ = (कामादिक विकारों का चस्का और प्रेम रस इन) दोनों तरफ का। रासि करे = सिरे लग जाता है, ठीक कर देता है, सफल हो जाता है। उपाव = कोशिश। गहु = पकड़। लहु = ले। साहिबि = (अधिकर्ण कारक, एक वचन)। साहिबि तुठिआ = (पूर्व पूरण कारदंतक) अगर साहिब प्रसन्न हो जाए।

अर्थ: (हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को सिमरो, जिसके वश में हरेक पदार्थ है जो (माया की कशिश और नाम-रस) दोनों पक्ष का मालिक है (भाव, जो माया के मोह में फंसाने वाला भी है और नाम-रस की दाति देने वाला भी है), जो (जीवों के काम) एक पलक में पूरे कर देता है। (हे भाई!) अन्य सारे तरीकों को छोड़ो और उस परमात्मा का आसरा लो, दौड़ के उस प्रभू की शरण पड़ो और सबसे अच्छा सुख हासिल करो।

अगर संतों की संगति मिले तो वह ऊँची समझ (प्राप्त) होती है जो (मानो) सब कर्मों-धर्मों का निचोड़ है। अगर प्रभू का अमृत नाम सिमरें तो (जीवन की राह में) कोई रुकावट नहीं पड़ती। जिस मनुष्य पर प्रभू स्वयं मेहरवान हो उसके मन में स्वयं आ बसता है। प्रभू मालिक के प्रसन्न होने पर (मानो) सारे खजाने पा लेते हैं।12।

सलोक मः ५ ॥ लधमु लभणहारु करमु करंदो मा पिरी ॥ इको सिरजणहारु नानक बिआ न पसीऐ ॥१॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: लभणहारु = ढूँढनेयोग्य प्रभू। करमु = बख्शिश। मा पिरी = मेरे पिर ने। पसीअै = देखते हैं। बिआ = कोई और।

अर्थ: जब मेरे प्यारे पति ने (मेरे पर) बख्शिश की तो मैंने ढूँढने योग्य प्रभू को ढूँढ लिया, (अब) हे नानक! एक करतार ही (हर जगह) दिखाई दे रहा है, कोई और नहीं दिखता।1।

मः ५ ॥ पापड़िआ पछाड़ि बाणु सचावा संन्हि कै ॥ गुर मंत्रड़ा चितारि नानक दुखु न थीवई ॥२॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: पापड़िआ = चंदरे पापों को। पछाड़ि = भगा के, दूर करके। सचावा = सॅच का। संनि् कै = तान के। मंत्रड़ा = सुहाना मंत्र। चितार = चेते कर।

अर्थ: हे नानक! सॅच (भाव, सिमरन) का तीर तान के चंदरे पापों को भगा के, सतिगुरू का सोहाना मंत्र चेते कर, (इस तरह) दुख नहीं व्याप्ता।2।

पउड़ी ॥ वाहु वाहु सिरजणहार पाईअनु ठाढि आपि ॥ जीअ जंत मिहरवानु तिस नो सदा जापि ॥ दइआ धारी समरथि चुके बिल बिलाप ॥ नठे ताप दुख रोग पूरे गुर प्रतापि ॥ कीतीअनु आपणी रख गरीब निवाजि थापि ॥ आपे लइअनु छडाइ बंधन सगल कापि ॥ तिसन बुझी आस पुंनी मन संतोखि ध्रापि ॥ वडी हूं वडा अपार खसमु जिसु लेपु न पुंनि पापि ॥१३॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: वाहु वाहु = शाबाश। वाहु वाहु सिरजणहार = सृजनहार को शाबाश (कह)। पाइअनु = पाई है उसने (पउड़ी नं:12 के शब्द ‘पाइअनि’ और इस ‘पाईअनु’ में फर्क स्मरणीय है; ‘पाइअनि’ = पाते हैं, वर्तमानकाल, करम वाचक, बहुवचन, अॅन पुरख)। ठाढि = ठंड, शांति। तिसु नो = उस प्रभू को। समरथि = समरथ ने। बिल बिलाप = तरले, विरलाप। प्रतापि = प्रताप से। कीतीअनु = की है उस ने। रख = रक्षा। निवाजि = निवाज के। थापि = थाप के, पीठ ठोक के। कापि = काट के। तिसन = तृष्णा। पुंनी = पूरी हो गई। मन आस = मन की आशा। संतोखि = संतोष से। ध्रापि = तृप्त हो के। लेपु = लाग, असर। पुंनि = पुन्य से। पापि = पाप से।

अर्थ: (हे भाई!) उस करतार को ‘धन्य धन्य’ कह जिस ने (तेरे अंदर) स्वयं ठंड डाली है, उस प्रभू को याद कर जो सब जीवों पर मेहरवान है।

समर्थ प्रभू ने (जिस मनुष्य पर) मेहर की है उसके सारे प्रलाप समाप्त हो गए हैं, पूरे गुरू के प्रताप से उसके (सारे) कलेश, दुख और रोग दूर हो गए।

(जिन) गरीबों (भाव, जो दर पे आ गिरे हैं) को निवाज के पीठ ठोक के (उनकी) रक्षा उस (प्रभू) ने खुद की है, उनके सारे बंधन कट के उनको (विकारों से) उसने खुद छुड़ा लिया है, संतोष से तृप्त हो जाने के कारण उनके मन की आस पूरी हो गई है उनकी तृष्णा मिट गई है।

(पर) बेअंत (प्रभू) पति सबसे बड़ा है उसको (जीवों के किए) पुन्य अथवा पाप से (जाती तौर पर) कोई लाग-लबेड़ नहीं होता।13।

सलोक मः ५ ॥ जा कउ भए क्रिपाल प्रभ हरि हरि सेई जपात ॥ नानक प्रीति लगी तिन राम सिउ भेटत साध संगात ॥१॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: भेटत = मिलने से। तिन = उनकी।

अर्थ: हे नानक! जिन मनुष्यों पर प्रभू जी कृपा करते हैं वही हरी-नाम जपते हैं, साध-संगति में मिलने के कारण परमात्मा के साथ उनकी प्रीति बन जाती है।1।

मः ५ ॥ रामु रमहु बडभागीहो जलि थलि महीअलि सोइ ॥ नानक नामि अराधिऐ बिघनु न लागै कोइ ॥२॥ {पन्ना 521}

पद्अर्थ: जलि = पानी में। थलि = धरती के अंदर। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, धरती पर, भाव आकाश में। नामि = (अधिकरण कारक, एक वचन)। नामि आराधिअै = पूरब पूरन कारदंतक, Locatice Absolute = अगर नाम सिमरें।

अर्थ: हे बड़े भाग्य वालो! उस परमात्मा को सिमरो जो पानी में धरती के अंदर धरती के ऊपर (हर जगह) मौजूद है। हे नानक! यदि प्रभू का नाम सिमरें तो (जीवन राह में) कोई रुकावट नहीं होती।2।

पउड़ी ॥ भगता का बोलिआ परवाणु है दरगह पवै थाइ ॥ भगता तेरी टेक रते सचि नाइ ॥ जिस नो होइ क्रिपालु तिस का दूखु जाइ ॥ भगत तेरे दइआल ओन्हा मिहर पाइ ॥ दूखु दरदु वड रोगु न पोहे तिसु माइ ॥ भगता एहु अधारु गुण गोविंद गाइ ॥ सदा सदा दिनु रैणि इको इकु धिआइ ॥ पीवति अम्रित नामु जन नामे रहे अघाइ ॥१४॥ {पन्ना 521-522}

पद्अर्थ: पवै थाइ = कबूल होता है। टेक = आसरा। सचि = सॅच में। नाइ = नाम में। अधारु = आसरा। रैणि = रात। अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं। परवाणु = प्रवान, मानने लायक। माइ = माया।

अर्थ: बंदगी करने वाले मनुष्यों का वचन मानने के लायक होता है, प्रभू की दरगाह में (भी) कबूल होता है। हे प्रभू! भक्तों को तेरा आसरा होता है, वे सच्चे नाम में रंगे रहते हैं। प्रभू जिस मनुष्य पर मेहरवान होता है उसका दुख दूर हो जाता है। हे दयालु प्रभू! बंदगी करने वाले बंदे तेरे हो के रहते हैं, तू उनपे कृपा करता है; (जिस मनुष्य पर तू मेहर करता है) उसको माया तंग नहीं कर सकती, कोई दुख-दर्द कोई बड़े से बड़ा रोग उसे सता नहीं सकता। गोविंद के गुण गा गा के यह (सिफत सालाह) भक्तों (की जिंदगी) का आसरा बन जाती है; दिन रात सदा ही एक प्रभू को सिमर सिमर के, नाम-रूपी अमृत पी पी के सेवक नाम में ही तृप्त रहते हैं।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh