श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 522 सलोक मः ५ ॥ कोटि बिघन तिसु लागते जिस नो विसरै नाउ ॥ नानक अनदिनु बिलपते जिउ सुंञै घरि काउ ॥१॥ {पन्ना 522} पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। अनदिनु = हर रोज। घरि = घर में। अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम विसर जाता है उसको करोड़ो विघन आ घेरते हैं; हे नानक! (ऐसे लोग) हर रोज यूँ बिलकते हैं जैसे सूने घरों में कौए शोर डालते हैं (पर वहाँ उन्हें मिलता कुछ नहीं)। मः ५ ॥ पिरी मिलावा जा थीऐ साई सुहावी रुति ॥ घड़ी मुहतु नह वीसरै नानक रवीऐ नित ॥२॥ {पन्ना 522} पद्अर्थ: पिरी मिलावा = प्यारे पति का मेल। जा = जब। सुहावी = सोहणी। मुहतु = महूरत, दो घड़ी। रवीअै = सिमरें। अर्थ: वही ऋतु सुंदर है जब प्यारे प्रभू-पति का मेल होता है। सो, हे नानक! उसे हर वक्त याद करें, कभी घड़ी दो घड़ी भी उस प्रभू को ना भूलें।2। पउड़ी ॥ सूरबीर वरीआम किनै न होड़ीऐ ॥ फउज सताणी हाठ पंचा जोड़ीऐ ॥ दस नारी अउधूत देनि चमोड़ीऐ ॥ जिणि जिणि लैन्हि रलाइ एहो एना लोड़ीऐ ॥ त्रै गुण इन कै वसि किनै न मोड़ीऐ ॥ भरमु कोटु माइआ खाई कहु कितु बिधि तोड़ीऐ ॥ गुरु पूरा आराधि बिखम दलु फोड़ीऐ ॥ हउ तिसु अगै दिनु राति रहा कर जोड़ीऐ ॥१५॥ {पन्ना 522} पद्अर्थ: वरीआम = शूरवीर। होड़ीअै = रोकें। सताणी = ताण वाली, ताकतवर। हठ = हठीली। पंचा = पाँच कामादिकों ने। नारी = इन्द्रियां। अउधूत = त्यागी। जिणि = जीत के। त्रै गुण = तीन गुणों के सारे जीव। भरमु = भटकना। कोटु = किला (इस पउड़ी के पहले शलोक में के शब्द ‘कोटि’ और इस शब्द ‘कोटु’ में फर्क याद रखने योग्य है)। खाई = खाली। कितु बिधि = किस विधी से। दलु = फौज। कर = हाथ। अर्थ: (कामादिक विकार) बड़े शूरवीर और बहादर (सिपाही) हैं, किसी ने इन्हें रोका नहीं, इन पाँचों ने बड़ी बलशाली और हठीली फौज एकत्र की हुई है, (दुनियादार तो कहाँ रहे) त्यागियों को (भी) ये दस इन्द्रियां चिपका देते हैं, सबको जीत जीत के अपने मुताबिक ढाले जाते हैं। बस! यही बात ये चाहते हैं, सारे ही त्रैगुणी जीव इनके दबाव तले हैं। कोई इन्हें मोड़ नहीं सका, (माया की खातिर जीवों की) भटकना (ये, मानो, इन पाँचों का) किला है और माया (का मोह, उस किले के इर्द-गिर्द गहरी) खाई (खुदी हुई) है, (ये किला) कैसे तोड़ा जाए? पूरे सतिगुरू को याद करने से ये ताकतवर फौज सर की जा सकती है, (यदि प्रभू की मेहर हो तो) मैं दिन-रात हाथ जोड़ के उस गुरू के सामने खड़ा रहूँ।15। सलोक मः ५ ॥ किलविख सभे उतरनि नीत नीत गुण गाउ ॥ कोटि कलेसा ऊपजहि नानक बिसरै नाउ ॥१॥ {पन्ना 522} पद्अर्थ: किलविख = पाप। नीत नीत = हर रोज, सदा ही। अर्थ: हे नानक! सदा ही प्रभू की सिफत सालाह करो, (सिफत सालाह की बरकति से) सारे पाप उतर जाते हैं, अगर प्रभू का नाम भूल जाए तो करोड़ों दुख लग जाते हैं।1। मः ५ ॥ नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी होवै जुगति ॥ हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे होवै मुकति ॥२॥ {पन्ना 522} पद्अर्थ: सतिगुरि = (अधिकरण कारक, एक वचन)। सतिगुरि भेटिअै = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) यदि गुरू मिल जाए। जुगति = जीने की जाच, जिंदगी गुजारने का तरीका। पूरी = मुकंमल, जिस में कोई कमी ना रहे। विचे = माया में वरतते हुए ही। मुकति = माया के बंधनों से आजादी। अर्थ: हे नानक! अगर सतिगुरू मिल जाए तो जीने का सही सलीका आ जाता, और हँसते खेलते खाते पहनते (भाव, दुनिया के सारे काम करते हुए) माया में बरतते हुए भी कामादिक विकारों से बचे रह सकते हैं।2। पउड़ी ॥ सो सतिगुरु धनु धंनु जिनि भरम गड़ु तोड़िआ ॥ सो सतिगुरु वाहु वाहु जिनि हरि सिउ जोड़िआ ॥ नामु निधानु अखुटु गुरु देइ दारूओ ॥ महा रोगु बिकराल तिनै बिदारूओ ॥ पाइआ नामु निधानु बहुतु खजानिआ ॥ जिता जनमु अपारु आपु पछानिआ ॥ महिमा कही न जाइ गुर समरथ देव ॥ गुर पारब्रहम परमेसुर अपर्मपर अलख अभेव ॥१६॥ {पन्ना 522} पद्अर्थ: भरम गढ़ ु = भ्रम का किला। जिनि = जिस (गुरू) ने। वाहु वाहु = सोहणा। देइ = देता है। तिनै = उस (गुरू) ने ही। जिता = जीत लिया। आपु = अपने आप को। महिमा = वडिआई। समरथ = ताकत वाला, समर्थ। अपरंपर = जिसका परला छोर ना दिखे। अलख = जो समझ में ना आ सके। अभेद = जिसका भेद ना पाया जा सके। अर्थ: धन्य है वह सतिगुरू जिसने (हमारा) भ्रम का किला तोड़ दिया है, अत्भुद महिमा वाला है वह गुरू जिसने (हमें) ईश्वर से जोड़ दिया है; गुरू अमु नाम-खजाना रूपी दवाई देता है, (इस दवाई से) उस गुरू ने ही (हमारा ये) बड़ा भयानक रोग नाश कर दिया है। (जिस मनुष्य ने गुरू से) प्रभू-नाम रूपी बड़ा खजाना हासिल किया है उसने अपने आप को पहचान लिया है और मानस-जन्म (की) अपार (बाजी) जीत ली है। समर्थ गुरदेव की महिमा बयान नहीं की जा सकती। सतिगुरू उस परमेश्वर पारब्रहम का रूप है और बेअंत है अलख है और अभेव है।16। सलोकु मः ५ ॥ उदमु करेदिआ जीउ तूं कमावदिआ सुख भुंचु ॥ धिआइदिआ तूं प्रभू मिलु नानक उतरी चिंत ॥१॥ {पन्ना 522} अर्थ: हे नानक! (प्रभू की भगती का) उद्यम करते हुए आत्मिक जीवन मिलता है, (इस नाम की) कमाई करने से सुख की प्राप्ति होती है; नाम सिमरने से परमात्मा को मिल लेते है और चिंता मिट जाती है।1। मः ५ ॥ सुभ चिंतन गोबिंद रमण निरमल साधू संग ॥ नानक नामु न विसरउ इक घड़ी करि किरपा भगवंत ॥२॥ {पन्ना 522} नोट: यही शलोक राग आसा महला ५ छंत घरु ७ के शीर्षक के तले भी आया है। पद्अर्थ: सुभ = भली। चिंतन = सोच। रमण = सिमरन। निरमलु = पवित्र। न विसरउ = ना भुलाऊँ। अर्थ: हे भगवान! मुझ नानक पर कृपा कर कि मैं एक घड़ी भी तेरा नाम ना भुलाऊँ। पवित्र संत-संग करूँ, गोबिंद का सिमरन करूँ और भली सोचें सोचूँ।2। पउड़ी ॥ तेरा कीता होइ त काहे डरपीऐ ॥ जिसु मिलि जपीऐ नाउ तिसु जीउ अरपीऐ ॥ आइऐ चिति निहालु साहिब बेसुमार ॥ तिस नो पोहे कवणु जिसु वलि निरंकार ॥ सभु किछु तिस कै वसि न कोई बाहरा ॥ सो भगता मनि वुठा सचि समाहरा ॥ तेरे दास धिआइनि तुधु तूं रखण वालिआ ॥ सिरि सभना समरथु नदरि निहालिआ ॥१७॥ {पन्ना 522} पद्अर्थ: होइ = होता है, घटित होता है। काहे = क्यूँ? तिसु = उसको। अरपीअै = भेट कर दें। आइअै चिति = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) अगर चिक्त में आ जाए। बेसुमार = बेअंत। पोहे = दबाव डाले। बाहरा = आकी। वुठा = बसा। सचि = सत्य के द्वारा, सच से, (भक्तों के) सिमरन से। समाहरा = समाया हुआ। निहालिआ = निहाल करने वाला। अर्थ: अगर (हे प्रभू!) जो कुछ घटित होता है तेरा ही किया हुआ होता है तो (हम) क्यूँ (किसी से) डरें? जिस को मिल के प्रभू का नाम जपा जाए, उसके आगे अपना आप भेट कर देना चाहिए, क्योंकि अगर बेअंत साहिब चिक्त में आ बसे तो निहाल हो जाते हैं, जिसके पक्ष में निरंकार हो जाए, उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकता, क्योंकि हरेक चीज उस परमात्मा के वश में है, उसके हुकम से परे नहीं जा सकता, (भक्तों के) सिमरन के कारण वह प्रभू भक्तों के मन में आ बसता है (उनके अंदर) समा जाता है। हे प्रभू! तेरे दास तुझे याद करते हैं, तू उनकी रक्षा करता है, तू सब जीवों के सिर पर हाकिम है, मेहर की नजर करके (जीवों को) सुख देने वाला है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |