श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 527

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

रागु देवगंधारी महला ४ घरु १ ॥

सेवक जन बने ठाकुर लिव लागे ॥ जो तुमरा जसु कहते गुरमति तिन मुख भाग सभागे ॥१॥ रहाउ ॥ टूटे माइआ के बंधन फाहे हरि राम नाम लिव लागे ॥ हमरा मनु मोहिओ गुर मोहनि हम बिसम भई मुखि लागे ॥१॥ सगली रैणि सोई अंधिआरी गुर किंचत किरपा जागे ॥ जन नानक के प्रभ सुंदर सुआमी मोहि तुम सरि अवरु न लागे ॥२॥१॥ {पन्ना 527}

पद्अर्थ: लिव = लगन, प्रेम। जसु = सिफत सालाह। गुरमति = गुरू की मति पर चल के। सभागे = सौभाग्य वाले।1। रहाउ।

मोहनि = मोहन ने। बिसम = हैरान। मुखि लागे = मुखि लागि, मुंह लग के, दर्शन कर के।1।

रैणि = (जिंदगी की) रात। सोई = सोई रही। किंचत = थोड़ी सी ही। गुर किरपा = गुरू की कृपा से। मोहि = मुझे। सरि = जैसा, बराबर। अवरु = कोई और। लागे = लगता, दिखता।2।

अर्थ: (हे भाई!) जिन मनुष्यों की प्रीति मालिक प्रभू (के चरणों) से लग जाती है वह मालिक के (सच्चे) सेवक, (सच्चे) दास बन जाते हैं। (हे प्रभू!) जो मनुष्य गुरू की मति पर चल के तेरी सिफत सालाह करते हैं, उनके मुँह सुंदर भाग्यों वाले हो जाते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई!) परमात्मा के नाम से जिन मनुष्यों की लगन लग जाती है, उन के माया (के मोह) के बंधन टूट जाते हैं, स्वतंत्र हो जाते हैं। (हे सखी! मन को) मोह लेने वाले गुरू ने मेरा मन अपने प्यार में बाँध लिया है, उस सोहाने गुरू के दर्शन करके मैं मस्त हो गई हूँ। (इस वास्ते माया के मोह के रस्से मेरे पास नहीं फटकते)।1।

(हे सखी!) मैं (जिंदगी की) सारी रात माया के मोह के अंधेरे में सोई रही (आत्मिक जीवन के बारे में बेसुध रही), अब गुरू की थोड़ी सी कृपा से मैं जाग पड़ी हूँ।

हे दास नानक के सुंदर मालिक प्रभू! मुझे (अब) तेरे जैसा कोई और नहीं दिखता।2।1।

देवगंधारी ॥ मेरो सुंदरु कहहु मिलै कितु गली ॥ हरि के संत बतावहु मारगु हम पीछै लागि चली ॥१॥ रहाउ ॥ प्रिअ के बचन सुखाने हीअरै इह चाल बनी है भली ॥ लटुरी मधुरी ठाकुर भाई ओह सुंदरि हरि ढुलि मिली ॥१॥ एको प्रिउ सखीआ सभ प्रिअ की जो भावै पिर सा भली ॥ नानकु गरीबु किआ करै बिचारा हरि भावै तितु राहि चली ॥२॥२॥ {पन्ना 527}

पद्अर्थ: कहहु = बताओ। कितु = किस में? कितु गली = किस गली में? संत = हे संत जनो! मारगु = रास्ता। पीछै = (तुम्हारे) पीछे पीछे। चली = मैं चलूँ।1। रहाउ।

प्रिअ के = प्यारे के। सुखाने = मीठे लग रहे हैं। हीअरै = हृदय में। चालु = (जीवन) चाल, जुगति। लटुरी = लूटने वाली, बेकाबू हुई। मधुरी = मदरी, छोटी। ठाकुर भाई = ठाकुर को भा गई। ओह सुंदरि = वह सुंदर जीव स्त्री (शब्द ‘सुंदर’ पुलिंग है, ‘सुंदरि’ स्त्री लिंग)। ढुलि = डुल के, बह के, फिसल के, झुक के, विनम्रता सहित।1।

भावै पिर = पिर को पसंद आ जाए। सा = वह जीव स्त्री। तितु = उस में। तितु राहि = उस राह पर।2।

अर्थ: हे हरी के संत जनो! मुझे बताओ, मेरा सोहाना प्रीतम किस गली में मिलेगा? मुझे (उस गली का) रास्ता बताओ (ता कि) मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे चली चलूँ।1। रहाउ।

(हे जिज्ञासु जीव स्त्री!) जिसके हृदय में प्यारे प्रभू की सिफत-सालाह के बचन सुखद बन जाते हैं, जिसको जीवन की चाल अच्छी लगने लग पड़ती है, वह (पहले चाहे) लटोर (थी) मदरी (थी, वह) मालिक प्रभू को प्यारी लगने लग पड़ती है, वह सुंदर जीव-स्त्री विनिम्रता धार के प्रभू चरणों में मिल जाती है।1।

(हे सखी!) एक परमात्मा ही सब का पति है, सारी सखियां (जीव-सि्त्रयां) उस प्यारे की ही हैं, पर जो पति-प्रभू को पसंद आ जाती है वह अच्छी बन जाती है।

बिचारा गरीब नानक (उसके रास्ते पर चलने के लिए) क्या कर सकता है? जो जीव-स्त्री हरी-प्रभू को अच्छी लग जाए, वही उस रास्ते पर चल सकती है।2।

देवगंधारी ॥ मेरे मन मुखि हरि हरि हरि बोलीऐ ॥ गुरमुखि रंगि चलूलै राती हरि प्रेम भीनी चोलीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ हउ फिरउ दिवानी आवल बावल तिसु कारणि हरि ढोलीऐ ॥ कोई मेलै मेरा प्रीतमु पिआरा हम तिस की गुल गोलीऐ ॥१॥ सतिगुरु पुरखु मनावहु अपुना हरि अम्रितु पी झोलीऐ ॥ गुर प्रसादि जन नानक पाइआ हरि लाधा देह टोलीऐ ॥२॥३॥ {पन्ना 527}

पद्अर्थ: मन = हे मन! मुखि = मुँह से। बोलीअै = बोलना चाहिए। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। चलूले रंगि = गाढ़े रंग में। राती = रंगी जाती है। चोलीअै = चोली, हृदय। भीनी = भीग जाती है, तर हो जाती है।1। रहाउ।

हउ = मैं। फिरउ = फिरती हूँ। दिवानी = कमली। आवल बावल = बावली, झल्ली। कारणि = (मिलने के) वास्ते। ढोलीअै = ढोला, प्यारा।गुल गोलीअै = गोलियों की गोली। गोली = नौकरानी, दासी, सेवादारनी।1।

तिस की: शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। झोलीअै = झोल के, हिला के, प्रेम से। प्रसादि = कृपा से। देहि = शरीर, हृदय। टोलीअै = टोल के, तलाश के।2।

अर्थ: हे मेरे मन! मुँह से सदा परमात्मा का नाम उचारना चाहिए। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर जो जीव-स्त्री (प्रभू-प्रेम के) गाढ़े रंग में रंगी जाती है उसकी हृदय-चोली प्रभू-प्रेम से तरो-तर रहती है।1। रहाउ।

हे भाई! मैं उस प्यारे हरी-प्रभू को मिलने के वास्ते कमली हुई फिरती हूँ, झल्ली हुई फिरती हूँ। अगर कोई मुझे मेरा प्यारा प्रभू-प्रीतम मिला दे, तो मैं उसकी दासियों की दासी (बनने को तैयार हूँ)।1।

(हे जिज्ञासु जीव-स्त्री!) तू अपने गुरू सत्पुरख को प्रसन्न कर ले (गुरू के बताए हुए राह पर चलना शुरू कर, और उसका दिया हुआ) आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-जल प्रेम से पीती रह (यही तरीका है ढोल-हरी को मिलने का)।

हे दास नानक! गुरू की कृपा से ही परमात्मा मिलता है, और मिलता है अपने हृदय में ही तलाश करने से।2।3।

देवगंधारी ॥ अब हम चली ठाकुर पहि हारि ॥ जब हम सरणि प्रभू की आई राखु प्रभू भावै मारि ॥१॥ रहाउ ॥ लोकन की चतुराई उपमा ते बैसंतरि जारि ॥ कोई भला कहउ भावै बुरा कहउ हम तनु दीओ है ढारि ॥१॥ जो आवत सरणि ठाकुर प्रभु तुमरी तिसु राखहु किरपा धारि ॥ जन नानक सरणि तुमारी हरि जीउ राखहु लाज मुरारि ॥२॥४॥ {पन्ना 527-528}

पद्अर्थ: अब = अब। पहि = पास। हारि = हार के, थक के, और सारे आसरे छोड़ के। जब = अब जबकि। प्रभू की सरणि = हे प्रभू! तेरी शरण। राखु = बचा के।1। रहाउ।

लोकन की = लोगों वाली। उपमा = वडिआई। ते = वे सारी। बैसंतरि = आग में। जारि = जला दी हैं। कहउ = बेशक कहे। ढारि दीओ = ढाल दिया है, भेटा कर दी है, देह अध्यास दूर कर दिया है, शारीरिक मोह छोड़ दिया है।1।

कहउ– (हुकमी भविष्यत, अॅन पुरख, एक वचन। नोट: ये ध्यान रखना कि ये शब्द यहाँ ‘वर्तमान काल, उक्तम पुरुष एक वचन’ नहीं है)

ठाकुर प्रभ = हे ठाकुर! हे प्रभू! राखहु = तू रखता है। धारि = धार के। मुरारि = हे मुरारी! ।2।

अर्थ: अब मैं और सारे आसरे छोड़ के मालिक प्रभू की शरण आ गई हूँ। जब कि अब, हे प्रभू! मैं तेरी शरण आ गई हूँ, चाहे मुझे रख चाहे मार (जैसी तेरी रजा है मुझे उसी हाल रख)।1। रहाउ।

दुनिया वाली समझदारी, और दुनियावी बड़प्पन-इन्हें मैंने आग में जला दिया है। चाहे मुझे कोई अच्छा कहे चाहे कोई बुरा कहे, मैंने तो अपना शरीर (ठाकुर के चरनों में) भेट कर दिया है।1।

हे मालिक! हे प्रभू! जो भी कोई (भाग्यशाली) तेरी शरण आ पड़ता है, तू मेहर करके उसकी रक्षा करता है। हे दास नानक! (कह–) हे हरी जी! हे मुरारी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी इज्जत रख।2।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh