श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 528

देवगंधारी ॥ हरि गुण गावै हउ तिसु बलिहारी ॥ देखि देखि जीवा साध गुर दरसनु जिसु हिरदै नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ ॥ तुम पवित्र पावन पुरख प्रभ सुआमी हम किउ करि मिलह जूठारी ॥ हमरै जीइ होरु मुखि होरु होत है हम करमहीण कूड़िआरी ॥१॥ हमरी मुद्र नामु हरि सुआमी रिद अंतरि दुसट दुसटारी ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरणि तुम्हारी ॥२॥५॥ {पन्ना 528}

पद्अर्थ: हउ = मैं। देखि = देख के। जीवा = मैं जीता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। जिसु हिरदै = जिस हृदय में। नामु मुरारी = मुरारी का नाम (मुर = अरि, मुर = दैत्य का वैरी, परमात्मा)।1। रहाउ।

पावन = पवित्र। पुरख = सर्व व्यापक। किउ करि = कैसे? मिलह = हम मिलें। जूठारी = मलीन। जीइ = जी में, दिल में (शब्द ‘जीउ’ से बना अधिकरण कारक, एक वचन)। मुखि = मुँह में। करमहीण = बद्किस्मत। कूड़िआरी = झूठ के बंजारे।1।

मुद्र = मोहर, चिन्ह, निशान, भेष, दिखावा। रिद = हृदय। दुसट = बुरा, बुरे विचार।2।

अर्थ: मैं उस (गुरू, साधू) से कुर्बान जाता हूँ जो (हर समय) परमात्मा के सिफत-सालाह के गीत गाता रहता है। उस गुरू का साधु के दर्शन कर करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है जिसके हृदय में (सदा) परमात्मा का नाम बसता है।1। रहाउ।

हे स्वामी! हे सर्व-व्यापक प्रभू! तू सदा ही पवित्र है, पर हम मैले जीवन वाले हैं, हम तुझे कैसे मिल सकते हैं? हमारे दिल में कुछ और होता है, हमारे मुँह पर कुछ और होता है (मुँह से हम कुछ और कहते हैं), हम बुरे भाग्यों वाले हैं, हम सदा झूठी माया के ग्राहक बने रहते हैं।1।

हे हरी! हे स्वामी! तेरा नाम हमारा दिखावा है (हम दिखावे के तौर पर जपते रहते हैं), पर हमारे हृदय में सदा बुरे विचार भरे रहते हैं। हे दास नानक! (कह–) हे स्वामी! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, जैसे भी हो सके मुझे (इस पाखण्ड से) बचा ले।2।4।

देवगंधारी ॥ हरि के नाम बिना सुंदरि है नकटी ॥ जिउ बेसुआ के घरि पूतु जमतु है तिसु नामु परिओ है ध्रकटी ॥१॥ रहाउ ॥ जिन कै हिरदै नाहि हरि सुआमी ते बिगड़ रूप बेरकटी ॥ जिउ निगुरा बहु बाता जाणै ओहु हरि दरगह है भ्रसटी ॥१॥ जिन कउ दइआलु होआ मेरा सुआमी तिना साध जना पग चकटी ॥ नानक पतित पवित मिलि संगति गुर सतिगुर पाछै छुकटी ॥२॥६॥ छका १ {पन्ना 528}

पद्अर्थ: सुंदरि = (स्त्री लिंग शब्द) सुंदर स्त्री। नकटी = नाक कटी, बद्शकल। बेसुआ = वेश्वा। घरि = घर में। जमतु है = पैदा हो जाता है। परिओ है = पड़ जाता है। ध्रकटी = धरकट स्त्री का पुत्र, व्यभचारिन का पुत्र, हरामी।1। रहाउ।

हिरदै = हृदय में। सुआमी = मालिक प्रभू। ते = वह लोग। बिगड़ रूप = बिगड़ी हुई शकल वाले, बद्शकल। बेरकटी = (रकट = रक्त, लहू) बिगड़े हुए खून वाले, कोढ़ी। भ्रसटी = भ्रष्ट, विकारों में गिरे हुए, गंदे आचरण वाला।1।

पग = पैर। चकटी = चट्टे, परसे। पतित = विकारों में गिरे हुए। मिलि = मिल के। छुकटी = विकारों से बच जाते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना ये सुंदर (मानस) काया बद्शकल ही जानो। जैसे अगर किसी वैश्या के घर पुत्र पैदा हो जाए, तो उसका नाम हरामी पड़ जाता है (चाहे वह शकल से सुंदर ही क्यों ना हो)।1। रहाउ।

हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय में मालिक प्रभू की (याद) नहीं, वे मनुष्य बद्सूरत ही हैं; वे कोढ़ी हैं। जैसे कोई गुरू से बेमुख मनुष्य (चाहे चतुराई की) बहुत सारी बातें करनी जानता हो (लोगों को अपनी बातों से रिझा ले, पर) परमात्मा की दरगाह में भ्रष्ट ही (गिना जाता) है।1।

हे नानक! (कह–) जिन मनुष्यों पर प्यारा प्रभू मेहरवान होता है वे मनुष्य संत जनों के पैर परसते रहते हैं। गुरू की संगति में मिल के विकारी मनुष्य भी अच्छे आचरण वाले बन जाते हैं, गुरू के डाले हुए मार्ग पर चल के वे विकारों के पँजे में से बच निकलते हैं।2।9। छका १।

छका- छक्का, छे शब्दों का संग्रह।

नोट: शीर्षक में सिर्फ पहले शबद के साथ ही शब्द ‘महला ४’ बरता गया है। फिर कहीं नहीं। आखिरी शब्द ‘छका १’ ने ही काम चला दिया है।

देवगंधारी महला ५ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माई गुर चरणी चितु लाईऐ ॥ प्रभु होइ क्रिपालु कमलु परगासे सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि एको बाहरि एको सभ महि एकु समाईऐ ॥ घटि अवघटि रविआ सभ ठाई हरि पूरन ब्रहमु दिखाईऐ ॥१॥ उसतति करहि सेवक मुनि केते तेरा अंतु न कतहू पाईऐ ॥ सुखदाते दुख भंजन सुआमी जन नानक सद बलि जाईऐ ॥२॥१॥ {पन्ना 528}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! लाईअै = जोड़ना चाहिए। कमलु = कमल फूल। परगासे = खिल उठता है।1। रहाउ।

अंतरि = (शरीरों के) अंदर। सभ महि = सारी सृष्टि में। घटि अवघटि = हरेक शरीर में। सभ ठाई = सभ जगहों में। दिखाईअै = दिखाई देता है।1।

उसतति = वडिआई, उपमा, सिफत सालाह। मुनि केते = बेअंत मुनि जन। कतहू = किसी तरफ से भी। सुख दाते = हे सुख देने वाले! दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! सद = सदा।2।

अर्थ: हे माँ! गुरू के चरणों में चिक्त जोड़ना चाहिए। (गुरू के माध्यम से जब) परमात्मा दयावान होता है, तो (हृदय का) कमल-पुष्प खिल उठता है। हे माँ! सदा (गुरू की शरण पड़ के) परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए।1। रहाउ।

हे माँ! शरीरों के अंदर एक परमात्मा ही बस रहा है, बाहर सारे जगत पसारे में भी एक परमात्मा ही बस रहा है, सारी सृष्टि में वही एक व्यापक है। हरेक शरीर में हर जगह सर्व-व्यापक परमात्मा ही (बसता) दिखाई दे रहा है।1।

हे प्रभू! बेअंत ऋषि-मुनि जन, और, बेअंत (तेरे) सेवक-जन तेरी उपमा करते आ रहे हैं, किसी से भी तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सका। हे दास नानक! (कह–) हे सुख देने वाले! हे दुखों के नाश करने वाले! तुझसे सदा सदके जाना चाहिए।2।1।

देवगंधारी ॥ माई होनहार सो होईऐ ॥ राचि रहिओ रचना प्रभु अपनी कहा लाभु कहा खोईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ कह फूलहि आनंद बिखै सोग कब हसनो कब रोईऐ ॥ कबहू मैलु भरे अभिमानी कब साधू संगि धोईऐ ॥१॥ कोइ न मेटै प्रभ का कीआ दूसर नाही अलोईऐ ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी जिह प्रसादि सुखि सोईऐ ॥२॥२॥ {पन्ना 528}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! होनहार = जो (प्रभू के हुकम में) जरूर घटित होनी है। राचि रहिओ = खचित है, व्यस्त है। रचना = खेल। कहा = कहाँ। खोईअै = खो रहा है।1। रहाउ।

कह = कहाँ। फूलहि = बढ़ते फूलते हैं। बिखै = विषौ विकार। सोग = शोक, गम। हसनो = हसीं। कब = कब। रोईअै = रोएं। भरे = भरे हुए, लिबड़े हुए। अभिमानी = अहंकारी। साधू संगि = गुरू की संगति में।1।

मेटै = मिटा सकता। अलोईअै = देखते हैं। कहु = कह। जिह प्रसादि = जिसकी कृपा से। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोईअै = लीन रह सकते हैं।2।

अर्थ: हे माँ! (जगत में) वही कुछ घटित हो रहा है जो (परमात्मा की मर्जी के अनुसार, आज्ञा मुताबिक) जरूर होना है। परमात्मा खुद अपनी इस जगत खेल में व्यस्त है, कहीं लाभ हो रहा है, कहीं कुछ गवा रहा है।1। रहाउ।

हे माँ! (जगत में) कहीं खुशियां बढ़-फूल रही हैं, कहीं विषय-विकारों के कारण चिंता-फिक्र बढ़ रहे हैं। कहीं हसीं हो रही है, कहीं रोया जा रहा है। कहीं कोई अहंकारी मनुष्य अहंकार की मैल से लिप्त हैं, कहीं गुरू की संगति में बैठ के (अहं की मैल को) धोया जा रहा है।1।

(हे माँ! जगत में परमात्मा के बिना) कोई दूसरा नहीं दिखता, कोई जीव उस परमात्मा का किया (हुकम) मिटा नहीं सकता।

हे नानक! कह– मैं उस गुरू से कुर्बान हूँ जिसकी कृपा से (परमात्मा की रजा में रह के) आत्मिक आनंद में लीन रह सकते हैं।2।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh