श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देवगंधारी ॥ माई सुनत सोच भै डरत ॥ मेर तेर तजउ अभिमाना सरनि सुआमी की परत ॥१॥ रहाउ ॥ जो जो कहै सोई भल मानउ नाहि न का बोल करत ॥ निमख न बिसरउ हीए मोरे ते बिसरत जाई हउ मरत ॥१॥ सुखदाई पूरन प्रभु करता मेरी बहुतु इआनप जरत ॥ निरगुनि करूपि कुलहीण नानक हउ अनद रूप सुआमी भरत ॥२॥३॥ {पन्ना 529}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! सोच = चिंता। भै = ( ‘भउ’ का बहुवचन) अनेकों डर सहम। तजउ = त्यागूँ, मैं छोड़ दूँ। परत = पड़ी रह के।1। रहाउ।

भल = भला। मानउ = मानूँ, मानती हूँ। नाहिन = नहीं। काबोल = कुबोल, कटु वचन। निमख = आँख झपकने जितना समय। बिसरउ = (हुकमी भविष्यत, अॅन पुरख, एक वचन) कहीं विसर जाए। हीए मोरे ते = मेरे हृदय से। हीआ = हृदय। जाई = जाए। हउ = मैं।1।

सुखदाई = सुख देने वाला। इआनप = अंजानापन। जरत = सहता। निरगुनि = (स्त्रीलिंग) गुणहीन। करूपि = बुरे रूप वाली। हउ = मैं। भरत = भरता, पति।2।

अर्थ: हे माँ! (पति प्रभू की शरण ना पड़ने वालियों की दशा) सुन के मुझे चिंता छा जाती है, मुझमें डर-सहम व्याप्तता है, मैं डरती हूँ (कि कहीं मेरा भी ऐसा हाल ना हो। इस वास्ते मेरा सदा ही ये तमन्ना रहती है कि) मालिक-प्रभू की शरण पड़ी रहके मैं (अपने अंदर से) मेर-तेर गवा दूँ, अहंकार त्याग दूँ।1। रहाउ।

हे माँ! प्रभू-पति जो जो हुकम करता है, मैं उसी में भला समझती हूँ, मैं (उसकी मर्जी के बारे में) कोई उल्टा बोल नहीं बोलती। (हे माँ! मेरी सदैव ये प्रार्थना है कि) पलक झपकने जितने समय के लिए भी वह प्रभू-पति मेरे हृदय से ना बिसरे, (उसको) भूलने से मुझे आत्मिक मौत आ जाती है।1।

हे माँ! वह सर्व-व्यापक कर्ता-प्रभू (मुझे) सारे सुख देने वाला है, मेरे अंजानेपन को वह बहुत बर्दाश्त करता रहता है। हे नानक! (कह– हे माँ!) मैं गुण-हीन हूँ, मैं कुरूप हूँ, मेरी कुल भी श्रेष्ठ नहीं है; पर मेरा पति-प्रभू सदा खिले माथे (आनंदमयी) रहने वाला है।2।3।

देवगंधारी ॥ मन हरि कीरति करि सदहूं ॥ गावत सुनत जपत उधारै बरन अबरना सभहूं ॥१॥ रहाउ ॥ जह ते उपजिओ तही समाइओ इह बिधि जानी तबहूं ॥ जहा जहा इह देही धारी रहनु न पाइओ कबहूं ॥१॥ सुखु आइओ भै भरम बिनासे क्रिपाल हूए प्रभ जबहू ॥ कहु नानक मेरे पूरे मनोरथ साधसंगि तजि लबहूं ॥२॥४॥ {पन्ना 529}

पद्अर्थ: मन = हे मन! कीरति = सिफत सालाह। सद हूँ = सदा ही। उधारै = (संसार समुंद्र से) बचा लेता है। बरन = सवर्ण, ऊँची जाति वालों को। अबरना = अवर्ण, नीच जाति वालों को। सभ हूँ = सब को।1। रहाउ।

जह ते = जहाँ से, जिस जगह से। तही = उसी जगह में। बिधि = तरीका। तब हूँ = तब ही। जहा जहा = जहाँ जहाँ। देही = शरीर। कब हूँ = कभी भी।1।

भै = (‘भउ’ का बहुवचन)। संगि = संगति में। तजि = त्याग के। लब = लालच।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा की सिफत सालाह करता रह। (सिफत सालाह के गीत) गाने वालों को, सुनने वालों को, नाम जपने वालों को, सभी को (चाहे वह) ऊँची जाति वाले (हों, चाहे) नीच जाति वाले - सबको परमात्मा संसार समुंद्र से बचा लेता है।1। रहाउ।

(हे मेरे मन! जब सिफत सालाह करते रहें) तब ही ये बिधि समझ में आती है कि जिस प्रभू से जीव पैदा होता है (सिफत सालाह की बरकति से) उसी में लीन हो जाता है। (हे मन!) जहाँ जहाँ भी परमात्मा ने शरीर-रचना की है, कभी भी कोई सदा यहाँ टिका नहीं रह सकता।1।

(हे मेरे मन! सदा सिफत सालाह करता रह) परमात्मा जब दयावान होता है (उसकी मेहर से) आनंद (हृदय में) आ बसता है, और, सारे डर भ्रम नाश हो जाते हैं। हे नानक! कह– साध-संगति में (सिफत-सालाह की बरकति से) लालच त्याग के सारे मनोरथ पूरे हो गए हैं।2।4।

देवगंधारी ॥ मन जिउ अपुने प्रभ भावउ ॥ नीचहु नीचु नीचु अति नान्हा होइ गरीबु बुलावउ ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक अड्मबर माइआ के बिरथे ता सिउ प्रीति घटावउ ॥ जिउ अपुनो सुआमी सुखु मानै ता महि सोभा पावउ ॥१॥ दासन दास रेणु दासन की जन की टहल कमावउ ॥ सरब सूख बडिआई नानक जीवउ मुखहु बुलावउ ॥२॥५॥ {पन्ना 529}

पद्अर्थ: मन = हे मन! जिउ = जैसे हो सके। प्रभ भावउ = प्रभू को अच्छा लगने लगूँ। नाना = नन्हा, छोटा सा, निमाणा। होइ = हो के। बुलावउ = मैं बुलाता हूँ।1। रहाउ।

अडंबर = पसारे। बिरथे = व्यर्थ। ता सिउ = उन से। घटावउ = मैं घटाता हूँ। मानै = मानता है। पावउ = मैं पाता हूँ।1।

रेणु = चरण धूड़। कमावउ = मैं कमाता हूँ। जीवउ = मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। मुखहु = मुँह से। बुलावउ = मैं बुलाता हूँ।2।

अर्थ: हे मेरे मन! मैं नीचों से भी नीच हो के, बहुत छोटा हो के, निमाणा हो के, गरीब बन के, अपने प्रभ के आगे अरजोई करता रहता हूँ, (ता कि) जैसे भी हो सके मैं अपने उस प्रभू को अच्छा लगने लग जाऊँ।1। रहाउ।

हे मेरे मन! माया के ये अनेकों पसारे व्यर्थ हैं (क्योंकि इनसे साथ टूट जाना है), मैं इनसे अपना प्यार घटाए जा रहा हूँ, (मैं यही समझता हूँ कि) जैसे मेरा अपना मालिक प्रभू सुख मानता है, मैं भी उसी में (सुख मान के) इज्जत प्राप्त करता हूँ।1।

हे नानक! (कह–) मैं अपने दासों के दासों की चरण-धूड़ मांगता हूँ, मैं प्रभू के सेवकों की सेवा करता हूँ, सारे सुख सारे बड़प्पन मैं इसी में ही समझता हूँ। जब मैं अपने प्रभू को मुँह से बुलाता हूँ मैं आत्मिक जीवन हासिल कर लेता हूँ।2।5।

देवगंधारी ॥ प्रभ जी तउ प्रसादि भ्रमु डारिओ ॥ तुमरी क्रिपा ते सभु को अपना मन महि इहै बीचारिओ ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि पराध मिटे तेरी सेवा दरसनि दूखु उतारिओ ॥ नामु जपत महा सुखु पाइओ चिंता रोगु बिदारिओ ॥१॥ कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिसारिओ ॥ माइआ बंध काटे किरपा निधि नानक आपि उधारिओ ॥२॥६॥ {पन्ना 529}

पद्अर्थ: तउ प्रसादि = तव प्रसादि, तेरी कृपा से। भ्रमु = भटकना। डारिओ = दूर कर दी। ते = से। सभु को = हरेक जीव। इहै = यह ही।1। रहाउ।

कोटि = करोड़ों। पराध = अपराध, पाप। दरसनि = दर्शन से। उतारिओ = उतार लिया है। बिदारिओ = नाश कर लिया है।1।

साधू संगि = गुरू की संगति में। बिसारिओ = भुला लिया है। बंध = बंधन। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! उधारिओ = बचा लिया है।2।

अर्थ: हे प्रभू जी! तेरी मेहर से मैंने अपने मन की भटकना दूर कर ली है, तेरी कृपा से मैंने अपने मन में ये इरादा कर लिया है कि (तेरा पैदा किया हुआ) हरेक प्राणी मेरा अपना ही है।1। रहाउ।

हे प्रभू! तेरी सेवा भक्ति करने से मेरे (पहले किए हुए) करोड़ों ही पाप मिट गए हैं, तेरे दर्शनों से मैंने (अपने अंदर के हरेक) दुख दूर कर लिए हैं। तेरा नाम जपते हुए मैंने बड़ा आनंद लिया है, और, चिंता रोग (अपने मन में से) हटा दिया है।1।

हे प्रभू! गुरू की संगति में टिक के मैंने काम, क्रोध, लोभ, झूठ, निंदा (आदि विकारों को अपने मन में से) भुला लिया है। हे नानक! (कह–) हे कृपा के खजाने प्रभू! तूने मेरे माया के बंधन काट दिए हैं, तूने खुद ही मुझे (संसार समुंद्र में से) बचा लिया है।2।6।

देवगंधारी ॥ मन सगल सिआनप रही ॥ करन करावनहार सुआमी नानक ओट गही ॥१॥ रहाउ ॥ आपु मेटि पए सरणाई इह मति साधू कही ॥ प्रभ की आगिआ मानि सुखु पाइआ भरमु अधेरा लही ॥१॥ जान प्रबीन सुआमी प्रभ मेरे सरणि तुमारी अही ॥ खिन महि थापि उथापनहारे कुदरति कीम न पही ॥२॥७॥ {पन्ना 529}

पद्अर्थ: मन = हे मन! सिआनप = चतुराई। रही = खत्म हो जाती है। करन करावनहार = खुद ही सब कुछ करने और जीवों से करवाने की ताकत रखने वाला। ओट = आसरा। गही = पकड़ी।1। रहाउ।

आपु = स्वै भाव। मेटि = मिटा के। साधू गही = साधु की बताई हुई। मानि = मान के। लही = दूर हो जाती है।1।

जान = हे सुजान! प्रबीन = प्रवीण, हे माहिर! अही = मांगी है, आया हूँ। उथापनहारे = हे नाश करने की ताकत रखने वाले! कुदरति = ताकत। कीम = कीमत। नही = पड़ती।2।

अर्थ: हे नानक! (कह–) हे मेरे मन! जो मनुष्य सब कुछ कर सकने और सब कुछ (जीवों से) करा सकने वाले परमात्मा मालिक का आसरा लेता है उसकी (अपनी) सारी चतुराई खत्म हो जाती है।1। रहाउ।

हे मेरे मन! गुरू की बताई हुई यह (अपनी चतुराई-समझदारी छोड़ देने वाली) शिक्षा जिन मनुष्यों ने ग्रहण की, और, जो स्वैभाव मिटा के प्रभू की शरण आ पड़े, उन्होंने प्रभू की रजा मान के आत्मिक आनंद पाया, उनके अंदर से भ्रम (-रूपी) अंधकार दूर हो गया।1।

हे सुजान और समझदार मालिक! हे मेरे प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे एक छिन में पैदा करके नाश करने की ताकत रखने वाले प्रभू! (किसी तरफ से भी) तेरी ताकत का मूल्य नहीं पड़ सकता।1।7।

देवगंधारी महला ५ ॥ हरि प्रान प्रभू सुखदाते ॥ गुर प्रसादि काहू जाते ॥१॥ रहाउ ॥ संत तुमारे तुमरे प्रीतम तिन कउ काल न खाते ॥ रंगि तुमारै लाल भए है राम नाम रसि माते ॥१॥ महा किलबिख कोटि दोख रोगा प्रभ द्रिसटि तुहारी हाते ॥ सोवत जागि हरि हरि हरि गाइआ नानक गुर चरन पराते ॥२॥८॥ {पन्ना 529-530}

पद्अर्थ: प्रान दाते = हे जीवन देने वाले! सुखदाते = हे सुख देने वाले! प्रसादि = कृपा से। काहू = किसी विरले ने। जाते = तेरे साथ गहरी सांझ डाली।1। रहाउ।

प्रीतम = हे प्रीतम! काल = आत्मिक मौत। ना खाते = नहीं खा जाती। रंगि = प्रेम रंग में। लाल = चाव भरे। रसि = रस में। माते = मस्त।1।

किलबिख = पाप। कोटि = करोड़ों। दोख = दोष, ऐब। प्रभ = हे प्रभू! द्रिसटि = निगाह। हाते = नाश हो जाते हैं, हत्या हो जाती है। पराते = पड़ते हैं।2।

अर्थ: हे जीवन देने वाले हरी! हे सुख देने वाले प्रभू! किसी विरले मनुष्य ने गुरू की कृपा से तेरे साथ गहरी सांझ डाल ली है।1। रहाउ।

हे प्रीतम प्रभू! जो तेरे संत तेरे ही बने रहते हैं, आत्मिक मौत उनके स्वच्छता भरे जीवन को समाप्त नहीं कर सकती। हे प्रभू! वह तेरे संत तेरे प्रेम रंग में लाल हुए रहते हैं, वह तेरे नाम-रस में मस्त रहते हैं।1।

हे प्रभू! (जीवों के किए हुए) बड़े-बड़े पाप, करोड़ों एैब और रोग तेरी मेहर की निगाह से नाश हो जाते हैं।

हे नानक! (कह–) जो मनुष्य गुरू के चरणों में आ पड़ते हैं वे सोते जागते हर वक्त परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाते रहते हैं।2।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh