श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देवगंधारी महला ५ ॥ अपुने सतिगुर पहि बिनउ कहिआ ॥ भए क्रिपाल दइआल दुख भंजन मेरा सगल अंदेसरा गइआ ॥ रहाउ ॥ हम पापी पाखंडी लोभी हमरा गुनु अवगुनु सभु सहिआ ॥ करु मसतकि धारि साजि निवाजे मुए दुसट जो खइआ ॥१॥ परउपकारी सरब सधारी सफल दरसन सहजइआ ॥ कहु नानक निरगुण कउ दाता चरण कमल उर धरिआ ॥२॥२४॥ {पन्ना 533}

पद्अर्थ: पहि = पास। बिनउ = विनय, विनती। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाले प्रभू जी। रहाउ।

सभु = सारा। सहिआ = सहा। करु = हाथ (एक वचन)। मसतकि = माथे पर। धारि = रख के। साजि निवाजे = पैदा करके सवारता है। जो = जो। खइआ = नाश करने वाले।1।

सरब सधारी = सब जीवों का सहारा देने वाला। सहजइआ = आत्मिक अडोलता देने वाला। उर = हृदय।2।

अर्थ: हे भाई! जब मैंने अपने गुरू के पास अरजोई करनी शुरू की, तो दुखों का नाश करने वाले प्यारे प्रभू जी मेरे पर दयावान हुए (प्रभू जी की कृपा से) मेरी सारी चिंता-फिक्र दूर हो गई। रहाउ।

हे भाई! हम जीव पापी हैं, पाखण्डी हैं, लोभी हैं (परमात्मा इतना दयावान है कि वह) हमारा हरेक गुण अवगुण सहता है। जीवों को पैदा करके उनके माथे पर हाथ रख के उनका जीवन सँवारता है (जिसकी बरकति से कामादिक) वैरी, जो आत्मिक जीवन का नाश करने वाले हैं, समाप्त हो जाते हैं।1।

हे भाई! प्रभू जी परोपकारी हैं, सारे जीवों को आसरा देने वाले हैं, प्रभू का दीदार मानस जीवन के लिए फल-दायक है, आत्मिक अडोलता की दाति बख्शने वाला है।

हे नानक! कह– प्रभू गुण-हीन जीवों को भी दातें देने वाला है। मैंने उसके सुंदर कोमल चरण (गुरू की कृपा से अपने) हृदय में बसा लिए हैं।2।24।

देवगंधारी महला ५ ॥ अनाथ नाथ प्रभ हमारे ॥ सरनि आइओ राखनहारे ॥ रहाउ ॥ सरब पाख राखु मुरारे ॥ आगै पाछै अंती वारे ॥१॥ जब चितवउ तब तुहारे ॥ उन सम्हारि मेरा मनु सधारे ॥२॥ सुनि गावउ गुर बचनारे ॥ बलि बलि जाउ साध दरसारे ॥३॥ मन महि राखउ एक असारे ॥ नानक प्रभ मेरे करनैहारे ॥४॥२५॥ {पन्ना 533}

पद्अर्थ: अनाथ नाथ = हे निआसरों का आसरा! हे निखसमों का खसम! राखनहारे = हे सहायता करने में समर्थ प्रभू! । रहाउ।

सरब पाख = सारे पक्ष। मुरारे = हे मुरारी! आगै = परलोक में। पाछै = इस लोक में।1।

चितवउ = मैं चेते करता हूँ। उन समारि = (तेरे) उन (गुणों) को याद करके। सधारे = सहारा पकड़ता है।2।

सुनि = सुन के। गावउ = मैं गाता हूँ। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = कुर्बान। साध = गुरू।3।

राखउ = रखूँ, मैं रखता हूँ। असारे = आस। करनैहारे = हे करतार!।4।

अर्थ: हे अनाथों के नाथ! हे मेरे राखनहार प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। रहाउ।

हे मुरारी! परलोक में, इस लोक में, आखिरी समय में- हर जगह मेरी सहायता कर।1।

हे प्रभू! मैं जब भी याद करता हूँ तेरे गुण ही याद करता हूँ। (तेरे) उन (गुणों) को याद करके मेरे मन को धैर्य मिलता है।2।

हे प्रभू! मैं गुरू के दीदार से कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ। गुरू के बचन सुन के ही (हे प्रभू!) मैं (तेरी सिफत-सालाह के गीत) गाता हूँ।3।

हे नानक! (कह–) हे प्रभू! हे मेरे करतार! मैं अपने मन में सिर्फ तेरी ही सहायता की आस रखता हूँ।4।25।

देवगंधारी महला ५ ॥ प्रभ इहै मनोरथु मेरा ॥ क्रिपा निधान दइआल मोहि दीजै करि संतन का चेरा ॥ रहाउ ॥ प्रातहकाल लागउ जन चरनी निस बासुर दरसु पावउ ॥ तनु मनु अरपि करउ जन सेवा रसना हरि गुन गावउ ॥१॥ सासि सासि सिमरउ प्रभु अपुना संतसंगि नित रहीऐ ॥ एकु अधारु नामु धनु मोरा अनदु नानक इहु लहीऐ ॥२॥२६॥ {पन्ना 533}

पद्अर्थ: मनोरथु = मन की तमन्ना। क्रिपा निधान = हे कृपा के खजाने! मोहि = मुझे। दीजै = दे। चेरा = दास। रहाउ।

प्रातहकाल = सुबह, सवेर। लागउ = लगूँ, मैं लगूँ। निस = रात। बासुर = दिन। पावउ = पाऊँ। अरपि = भेटा करके। करउ = करूँ। रसना = जीभ (से)। गावउ = गाऊँ।1।

सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। सिमरउ = सिमरूँ। संगि = संगत में। रहीअै = रहना चाहिए। अधारु = आसरा। मोरा = मेरा। लहीअै = लेना चाहिए।2।

अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभू! हे दयालु प्रभू! मेरे मन की यही तमन्ना है कि मुझे ये दान दे कि मुझे अपने संतों का सेवक बनाए रख। रहाउ।

हे प्रभू! सवेरे (उठ के) मैं तेरे संतजनों के चरण लगूँ, दिन-रात मैं तेरे संत-जनों के दर्शन करता रहूँ। अपना शरीर अपना मन भेटा करके मैं (सदा) संत-जनों की सेवा करता रहूँ, और अपनी जीभ से मैं हरी गुण गाता रहूँ।1।

(हे भाई! मेरी तमन्ना है कि) मैं हरेक श्वास के साथ अपने प्रभू का सिमरन करता रहूँ। हे भाई! (कह– मेरी चाहत है कि) सिर्फ परमात्मा का नाम-धन ही मेरा जीवन-आसरा बना रहे। (हे भाई! नाम-सिमरन का) ये आनंद (सदा) लेते रहना चाहिए।2।26।

रागु देवगंधारी महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मीता ऐसे हरि जीउ पाए ॥ छोडि न जाई सद ही संगे अनदिनु गुर मिलि गाए ॥१॥ रहाउ ॥ मिलिओ मनोहरु सरब सुखैना तिआगि न कतहू जाए ॥ अनिक अनिक भाति बहु पेखे प्रिअ रोम न समसरि लाए ॥१॥ मंदरि भागु सोभ दुआरै अनहत रुणु झुणु लाए ॥ कहु नानक सदा रंगु माणे ग्रिह प्रिअ थीते सद थाए ॥२॥१॥२७॥ {पन्ना 533}

पद्अर्थ: अैसे मीता = ऐसे मित्र। पाऐ = पा लिए हैं। छोडि = छोड़ के। सद = सदा। संगे = साथ। अनदिनु = हर रोज। गुर मिलि = गुरू को मिल के।1। रहाउ।

मनोहरु = मन को मोह लेने वाला हरी। सुखैना = (सुख+अयन। अयन = घर) सुखों का घर, सुखदाता। कतहू = कहीं भी। पेखे = देखे हैं। प्रिअ रोम समसरि = प्यारे के एक बाल के बराबर।1।

मंदरि = हृदय मंदिर में। सोभ = शोभा। दुआरै = (प्रभू के) दर पर। अनहत = एक रस, लगातार। रुण झुण = मद्यम मद्यम हो रहा खुशी का गीत। ग्रिह थाऐ = गृह स्थान, जिसके हृदय घर में। सद = सदा। प्रिअ थीते = प्रभू जी टिक गए।2।1।27।

अर्थ: हे भाई! मैंने ऐसे मित्र प्रभू जी पा लिए हैं, जो मुझे छोड़ के नहीं जाते, सदा मेरे साथ रहते हैं, गुरू को मिल के हर वक्त उनके गुण गाता रहता हूँ।1। रहाउ।

हे भाई! मेरे मन को मोह लेने वाला, मुझे सारे सुख देने वाला प्रभू मिल गया है, मुझे छोड़ के वह और कहीं भी नहीं जाता, (सुखों के इकरार करने वाले) और बहुत सारे अन्य किस्मों के (व्यक्ति) देख लिए हैं, पर कोई भी प्यारे प्रभू के एक बाल जितनी भी बराबरी नहीं कर सकता।1।

हे नानक! कह– जिस जीव के हृदय-घर में प्रभू जी सदा के लिए आ टिकते हैं, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है, उसके हृदय-घर में भाग्य जाग पड़ते हैं, उसके हृदय में एक धीमा धीमा खुशी का गीत चलता रहता है, उसको प्रभू के दर से शोभा मिलती है।2।1।27।

नोट: ‘घरु ३’ के संग्रह का ये पहला शबद है। देखें अंक १। कुल जोड़ 27 है।

देवगंधारी ५ ॥ दरसन नाम कउ मनु आछै ॥ भ्रमि आइओ है सगल थान रे आहि परिओ संत पाछै ॥१॥ रहाउ ॥ किसु हउ सेवी किसु आराधी जो दिसटै सो गाछै ॥ साधसंगति की सरनी परीऐ चरण रेनु मनु बाछै ॥१॥ जुगति न जाना गुनु नही कोई महा दुतरु माइ आछै ॥ आइ पइओ नानक गुर चरनी तउ उतरी सगल दुराछै ॥२॥२॥२८॥ {पन्ना 533-534}

पद्अर्थ: कउ = के लिए। आछै = तमन्ना करता है। भ्रमि = भटक भटक के। सगल थान = सब जगह। रे = हे भाई! आहि = चाह के। संत पाछे = संतों के पीछे, संतों की शरण।1। रहाउ।

हउ = मैं। सेवी = सेवा करूँ। आराधी = आराधना करूँ। दिसटै = दिखता है। गाछै = नाशवंत है। परीअै = पड़ना चाहिए। रेनु = धूल। बाछै = मांगता है।1।

जाना = मैंने जाना। दुतरु = दुश्वार, जिसको तैरना मुश्किल है। माइ = माया। आछै = (अस्ति) है। तउ = तब। दुराछै = दूर आछै, बुरी वासना।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दर्शन करने के लिए, परमात्मा का नाम जपने के लिए, मेरे मन में चाह है। मेरा ये मन भटक-भटक के सब जगह हो आया है, अब (इसी) चाहत (के कारण) संतों की चरणीं आ पड़ा हूँ।1। रहाउ।

(हे भाई! संसार में) जो कुछ दिख रहा है वह नाशवंत है, (इस वास्ते) मैं किस की सेवा करुँ? मैं किस की आराधना करूँ? हे भाई! साध-संगत की शरण पड़ना चाहिए। मेरा मन साध जनों के चरणों की धूड़ ही मांगता है।1।

हे भाई! यह माया (एक ऐसा समुंद्र है जिससे) पार लांघना बहुत ही मुश्किल है, मुझे (इससे पार लांघने का) कोई तरीका नहीं आता, मुझ में कोई (ऐसा) गुण (भी) नहीं है (जिसकी सहायता से मैं इस माया-समुंद्र से पार लांघ सकूँ)। हे नानक! जब मनुष्य गुरू के चरणों में आ पड़ता है तब (इसके अंदर से) सारी बुरी वासना दूर हो जाती है (और, हरी-नाम जप के संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है)।2।2।28।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh