श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 532 देवगंधारी महला ५ ॥ माई प्रभ के चरन निहारउ ॥ करहु अनुग्रहु सुआमी मेरे मन ते कबहु न डारउ ॥१॥ रहाउ ॥ साधू धूरि लाई मुखि मसतकि काम क्रोध बिखु जारउ ॥ सभ ते नीचु आतम करि मानउ मन महि इहु सुखु धारउ ॥१॥ गुन गावह ठाकुर अबिनासी कलमल सगले झारउ ॥ नाम निधानु नानक दानु पावउ कंठि लाइ उरि धारउ ॥२॥१९॥ {पन्ना 532} पद्अर्थ: माई = हे माँ! निहारउ = मैं देखता हूँ। अनुग्रहु = दया। सुआमी = हे स्वामी! ते = से। कबहु = कभी भी। डारउ = दूर करूँ।1। रहाउ। साधू = गुरू। लाई = मैं लगाऊँ। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। बिखु = जहर। जारउ = मैं जला दूँ। ते = से। आतम = अपने आप को। मानउ = मैं मानता हूँ। धारउ = मैं टिकाता हूँ।1। गावह = आओ, हम गाएं। कलमल = पाप। झारउ = मैं झाड़ता हूँ। पावउ = मैं प्राप्त कर लूँ। कंठि = गले से। उरि = हृदय में।2। अर्थ: हे (मेरी) माँ! मैं (सदा) परमात्मा के (सुंदर) चरणों की ओर देखता रहता हूँ (और, अरदास करता रहता हूँ कि) हे मेरे मालिक! (मेरे पर) मेहर कर, मैं (अपने) मन से (तुझे) कभी भी ना विसारूँ।1। रहाउ। (हे माँ! मैं प्रभू के आगे अरदास करता रहता हूँ कि) मैं गुरू के पैरों की खाक अपने मुँह पर अपने माथे पर लगाता रहूँ, (और, अपने अंदर से आत्मिक जीवन को मार देने वाली) काम-क्रोध का जहर जलाता रहूँ। मैं अपने आप को सबसे नीचा समझता रहूँ, और अपने मन में (गरीबी स्वभाव वाला) ये सुख (सदा) टिकाए रखूँ।1। हे भाई! आओ, मिल के ठाकुर-प्रभू के गुण गाएं, (गुण गाने की बरकति से) मैं अपने सारे (पिछले) पाप (मन से) झाड़ रहा हूँ। हे नानक! (कह– हे प्रभू! मैं तेरे पास से ये) दान (माँगता हूँ कि) मैं तेरा नाम खजाना हासिल कर लूँ, और इसको अपने गले से लगा के अपने हृदय में टिकाए रखूँ।2।19। देवगंधारी महला ५ ॥ प्रभ जीउ पेखउ दरसु तुमारा ॥ सुंदर धिआनु धारु दिनु रैनी जीअ प्रान ते पिआरा ॥१॥ रहाउ ॥ सासत्र बेद पुरान अविलोके सिम्रिति ततु बीचारा ॥ दीना नाथ प्रानपति पूरन भवजल उधरनहारा ॥१॥ आदि जुगादि भगत जन सेवक ता की बिखै अधारा ॥ तिन जन की धूरि बाछै नित नानकु परमेसरु देवनहारा ॥२॥२०॥ {पन्ना 532} पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! पेखउ = मैं देखता रहूँ। धारु = धरण करूँ। रैनी = रात। जीअ ते = जीव से।1। रहाउ। अविलोको = मैंने देख लिए हैं। दीनानाथ = हे दीनों के नाथ! प्रानपति = हे प्राणों के मालिक! भवजल = संसार समुंद्र। उधरनहारा = बचाने की स्मर्था वाला।1। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। ताकी = देखी है। बिखै = विषयों में। अधारा = ओट। बाछै = मांगता है। देवनहारा = देने योग्य।2। अर्थ: हे प्रभू जी! (मेहर कर) मैं (सदा) तेरे दर्शन करता रहूँ। दिन-रात मैं तेरे सुंदर स्वरूप का ध्यान धरता रहूँ। तेरे दर्शन मुझे अपने प्राणों से प्यारा लगे।1। रहाउ। हे दीनों के नाथ! हे मेरे प्राणों के मालिक! हे सर्व-व्यापक! मैं शास्त्र वेद पुराण देख चुका हूँ, मैं स्मृतियों के तत्व भी विचार चुका हूँ। सिर्फ तू ही संसार समुंद्र से पार लंघाने की ताकत रखता है।1। हे प्रभू जी! तेरे भक्तजन तेरे सेवक आदि से और युगों के आरम्भ से विषौ-विकारों से बचने के लिए तेरा ही आसरा ताकते आ रहे हैं। नानक उन भक्त जनों की पैरों की ख़ाक (तुझसे) मांगता है, तू परमेश्वर (सबसे बड़ा मालिक) ही ये दाति देने की समर्था रखने वाला है।2।20। देवगंधारी महला ५ ॥ तेरा जनु राम रसाइणि माता ॥ प्रेम रसा निधि जा कउ उपजी छोडि न कतहू जाता ॥१॥ रहाउ ॥ बैठत हरि हरि सोवत हरि हरि हरि रसु भोजनु खाता ॥ अठसठि तीरथ मजनु कीनो साधू धूरी नाता ॥१॥ सफलु जनमु हरि जन का उपजिआ जिनि कीनो सउतु बिधाता ॥ सगल समूह लै उधरे नानक पूरन ब्रहमु पछाता ॥२॥२१॥ {पन्ना 532} पद्अर्थ: जनु = सेवक, भगत। रसाइणि = रसायण में। रसायण = (रस+अयन = रसों का घर) वह दवा जो उम्र लंबी करे और बुढ़ापा ना आने दे। माता = मस्त। निधि = खजाना। जा कउ = जिस मनुष्य को। कत हूँ = कहीं भी।1। रहाउ। अठसठि = अड़सठ। मजनु = स्नान। साधू धूरी = संत जनों के चरणों की धूड़ में। नाता = नहाया, स्नान कर लिया।1। सफलु = कामयाब। उपजिआ = पैदा हुआ। जिनि = जिस (हरि जन) ने। सउतु = (स+पुत्र) सउत्रा, पुत्र वाला (इसका विलोम अउत्रा, अ+पुत्र, पुत्र हीन)। सगल समूह = सारे साथियों को। लै = साथ ले के। उधरे = संसार समुंद्र से पार गुजर जाता है। बिधाता = करतार।2। अर्थ: हे प्रभू! तेरे भक्त तेरे नाम के रसायन में मस्त रहता है। जिस मनुष्य को तेरे प्रेम रस का खजाना मिल जाए, वह उस खजाने को छोड़ के किसी और जगह नहीं जाता (भटकता)।1। रहाउ। (हे भाई! प्रभू के नाम-रसायन में मस्त मनुष्य) बैठे ही हरि-नाम उचारता है, सोए हुए भी हरि-नाम में सुरति रखता है, वह मनुष्य हरि-नाम-रस (को आत्मिक जीवन की) खुराक (बना के) खाता रहता है। वह मनुष्य संत-जनों की चरण-धूड़ में स्नान करता है (मानो) वह अड़सठ तीर्थों का स्नान कर रहा है।1। हे भाई! परमात्मा के भगत का जीवन कामयाब हो जाता है, उस भक्तजन ने (मानो) परमात्मा को पुत्रवान बना दिया। हे नानक! वह मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभू के साथ गहरी सांझ बना लेता है, वह अपने और सारे ही साथियों को भी संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है।2।21। देवगंधारी महला ५ ॥ माई गुर बिनु गिआनु न पाईऐ ॥ अनिक प्रकार फिरत बिललाते मिलत नही गोसाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ मोह रोग सोग तनु बाधिओ बहु जोनी भरमाईऐ ॥ टिकनु न पावै बिनु सतसंगति किसु आगै जाइ रूआईऐ ॥१॥ करै अनुग्रहु सुआमी मेरा साध चरन चितु लाईऐ ॥ संकट घोर कटे खिन भीतरि नानक हरि दरसि समाईऐ ॥२॥२२॥ {पन्ना 532} पद्अर्थ: माई = हे माँ! गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ, परमात्मा के साथ गहरी सांझ। अनिक प्रकार = कई तरह। बिललाते = बिलकते। गासाईअै = (गो = धरती) सृष्टि के मालिक प्रभू को।1। रहाउ। बाधिओ = बंधा रहता है, जकड़ा रहता है। भरमाईअै = भटकते फिरते हैं। जाइ = जा के। रुआईअै = पुकार की जाए।1। अनुग्रहु = कृपा। साध = गुरू। संकट = दुख। घोर = भयानक। खिन भीतर = छिन में। दरसि = दर्शन में। समाईअै = लीन हो जाते हैं।2। अर्थ: हे (मेरी) माँ! गुरू (की शरण पड़ने) के बिना परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं पड़ सकती। और और ही (बेमतलब) अनेकों किस्मों के उद्यम करते हुए लोग भटकते फिरते हैं, पर (उन उद्यमों से) वे परमात्मा को नहीं मिल सकते।1। रहाउ। (हे माँ! गुरू की शरण के बिना मनुष्य का) शरीर (माया के) मोह (शारीरिक) रोगों और ग़मों से जकड़ा रहता है, अनेकों जूनियों में भटकता फिरता है। साध-संगति (की शरण) के बिना (जूनियों के चक्कर से) ठहराव नहीं हासिल किया जा सकता। (गुरू के बिना) किसी और के पास (इस दुख की निर्विक्ति के लिए) फरियाद भी नहीं की जा सकती।1। हे माँ! जब मेरा मालिक प्रभू मेहर करता है, तब ही गुरू के चरणों में चिक्त जोड़ा जा सकता है। हे नानक! (गुरू की कृपा से) भयानक दुख एक छिन में काटे जाते हैं, और, परमात्मा के दीदार में लीन हुआ जाता है।2।22। देवगंधारी महला ५ ॥ ठाकुर होए आपि दइआल ॥ भई कलिआण अनंद रूप होई है उबरे बाल गुपाल ॥ रहाउ ॥ दुइ कर जोड़ि करी बेनंती पारब्रहमु मनि धिआइआ ॥ हाथु देइ राखे परमेसुरि सगला दुरतु मिटाइआ ॥१॥ वर नारी मिलि मंगलु गाइआ ठाकुर का जैकारु ॥ कहु नानक जन कउ बलि जाईऐ जो सभना करे उधारु ॥२॥२३॥ {पन्ना 532} पद्अर्थ: ठाकुर = मालिक प्रभू जी। दइआल = दयावान। कलिआण = कल्याण, सुख शांति। अनंद रूप = आनंद भरपूर। होई है = हो जाना है। उबरे = (संसार समुंद्र में डूबने से) बच जाते हैं। बाल गोपाल = सृष्टि के पालनहार पिता का पल्ला पकड़ने वाले बच्चे। रहाउ। कर = (बहु वचन) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मनि = मन में। परमेसुरि = परमेश्वर ने। दुरतु = दुरित, पाप।1। वर नारी मिलि = नारियां वर को मिल के, ज्ञानेन्द्रियां प्रभू पति को मिल के। मंगलु = खुशी का गीत, सिफत सालाह के गीत। जैकारु = जै जै का सोहिला। जन कउ = प्रभू के सेवक से। उधार = पार उतारा।2। अर्थ: हे भाई! अपने जिस सेवक पर प्रभू जी दयावान होते हैं, उसके अंदर पूर्ण शांति पैदा हो जाती है। प्रभू की कृपा से आनंद भरपूर हो जाता है। सृष्टि के पालहार पिता का पल्ला पकड़ने वाले बच्चे (संसार समुंद्र में डूबने से) बच जाते हैं। रहाउ। हे भाई! जिन भाग्यशालियों ने अपने दोनों हाथ जोड़ के परमात्मा के आगे अरजोई की, परमात्मा को अपने मन में अराधा, परमात्मा ने अपना हाथ दे के उनको (संसार समुंद्र में डूबने से) बचा लिया, (उनके किए पिछले) सारे पाप दूर कर दिए।3। (हे भाई! जिस सेवक पर प्रभू जी दयावान हुए, उसकी) ज्ञानेन्द्रियों ने प्रभू-पति को मिल के प्रभू की सिफत-सालाह के गीत गाने शुरू कर दिए। हे नानक! कह– प्रभू के उस भक्त से कुर्बान होना चाहिए जो और सब जीवों का भी पार उतारा कर लेता है।2।23। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |