श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देवगंधारी ५ ॥ माई जो प्रभ के गुन गावै ॥ सफल आइआ जीवन फलु ता को पारब्रहम लिव लावै ॥१॥ रहाउ ॥ सुंदरु सुघड़ु सूरु सो बेता जो साधू संगु पावै ॥ नामु उचारु करे हरि रसना बहुड़ि न जोनी धावै ॥१॥ पूरन ब्रहमु रविआ मन तन महि आन न द्रिसटी आवै ॥ नरक रोग नही होवत जन संगि नानक जिसु लड़ि लावै ॥२॥१४॥ {पन्ना 531}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! ता को आइआ सफल = जगत में उसका आना सफल हो जाता है। लिव = लगन।1। रहाउ।

सुघड़ु = सुव्यवस्थित। सूरु = शूरवीर। बेता = ज्ञानवान। साधू = गुरू। संगु = साथ। उचारु करे = उच्चारण करता है। रसना = जीभ (से)। बहुड़ि = दुबारा। धावै = भटकता।1।

रविआ = हर वक्त मौजूद। आन = कोई और। जन संगि = संत जनों की संगत में। जिसु लड़ि = जिस मनुष्य को संत जनों के पल्ले लग के।2।

अर्थ: हे माँ! जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है, परमात्मा के चरणों में प्रेम बनाए रखता है, उसका जगत में आना कामयाब हो जाता है।1। रहाउ।

हे माँ! जो मनुष्य गुरू का साथ प्राप्त कर लेता है, वह मनुष्य सुजीवन वाला, सुघड़, शूरवीर बन जाता है, वह अपनी जीभ से परमात्मा का नाम उच्चारता रहता है, और मुड़-मुड़ के जूनियों में नहीं भटकता।1।

हे नानक! (कह–) जिस मनुष्य को परमात्मा संत जनों के पल्ले से लगा देता है, उसे संत जनों की संगति में नर्क व रोग नहीं व्याप्तते, सर्व-व्यापक प्रभू हर समय उसके मन में उसके हृदय में बसा रहता है, प्रभू के बिना उसको (कहीं भी) कोई और नहीं दिखता।2।14।

देवगंधारी ५ ॥ चंचलु सुपनै ही उरझाइओ ॥ इतनी न बूझै कबहू चलना बिकल भइओ संगि माइओ ॥१॥ रहाउ ॥ कुसम रंग संग रसि रचिआ बिखिआ एक उपाइओ ॥ लोभ सुनै मनि सुखु करि मानै बेगि तहा उठि धाइओ ॥१॥ फिरत फिरत बहुतु स्रमु पाइओ संत दुआरै आइओ ॥ करी क्रिपा पारब्रहमि सुआमी नानक लीओ समाइओ ॥२॥१५॥ {पन्ना 531}

पद्अर्थ: चंचलु = कभी भी एक जगह न टिकने वाला। सुपनै = सपने में। उरझाइओ = फस रहा है। कबहू = कभी। बिकल = व्याकुल, बुद्धू। संगि माइओ = माइआ से।1। रहाउ।

कुसम = फूल। रसि = रस में, स्वाद में। रचिआ = मस्त। बिखिआ = माया। उपाइओ = उपाय, दौड़ भाग। सुनै = सुनता है। मनि = मन में। बेगि = जल्दी। तहा = उस तरफ।1।

स्रमु = श्रम, थकावट। दुआरै = द्वार पर, दर पे। पारब्रहमि = परमात्मा ने।2।

अर्थ: हे भाई! कहीं भी कभी ना टिकने वाला मानस मन (चंचल मन) सपने (में दिखने जैसे पदार्थों) में फसा रहता है। कभी इतनी बात भी नहीं समझता कि यहाँ से आखिर चले जाना है। माया के मोह में बुद्धू बना रहता है।1। रहाउ।

हे भाई! मनुष्य फूलों (जैसे क्षण-भंगुर पदार्थों) के रंग व साथ के स्वाद में मस्त रहता है, सदा एक माया (एकत्र करने) का ही उपाय करता फिरता है। जब यह लोभ (की बात) सुनता है तो मन में खुशी मनाता है (जहाँ से कुछ प्राप्त होने की आशा होती है) उधर तुरंत उठ दौड़ता है।1।

हे नानक! (कह–) भटकता-भटकता जब मनुष्य बहुत थक गया और गुरू के दर पर आया, तब मालिक परमात्मा ने इस पर मेहर की, और, अपने चरणों में मिला लिया।2।15।

देवगंधारी ५ ॥ सरब सुखा गुर चरना ॥ कलिमल डारन मनहि सधारन इह आसर मोहि तरना ॥१॥ रहाउ ॥ पूजा अरचा सेवा बंदन इहै टहल मोहि करना ॥ बिगसै मनु होवै परगासा बहुरि न गरभै परना ॥१॥ सफल मूरति परसउ संतन की इहै धिआना धरना ॥ भइओ क्रिपालु ठाकुरु नानक कउ परिओ साध की सरना ॥२॥१६॥ {पन्ना 531}

पद्अर्थ: सरब = सारे। कलिमल = पाप। डारन = दूर करने योग्य। मनहि = मन को। सधारन = आसरा देने वाले। मोहि = मैं।1। रहाउ।

अरचा = देव पूजा के समय चंदन आदि की भेटा। बंदन = (देवताओं को) वंदना, नमस्कार। मोहि = मैं। बिगसै = खिल उठता है। परगासा = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। गरभै = गर्भ में, जूनि में।1।

सफल = फल देने वाली। परसउ = मैं परसता हूँ। कउ = को। साध = गुरू।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू के चरणों में पड़ने से सारे सुख मिल जाते हैं। (गुरू के चरन सारे) पाप दूर कर देते हैं, मन को सहारा देते हैं। मैं गुरू के चरणों का सहारा ले के ही (संसार-समुंद्र से) पार लांघ रहा हूँ।1। रहाउ।

हे भाई! मैं गुरू के चरणों की ही टहल सेवा करता हूँ- यही मेरे वास्ते देव-पूजा है, यही देव-मूर्ति के आगे चंदन आदि की भेट है, यही देवते की सेवा है, यही देव-मूर्ति के आगे नमस्कार है। (हे भाई! गुरू के चरणों में पड़ने से) मन खिल उठता है, आत्मिक जीवन की समझ पड़ जाती है, और, बार-बार जूनियों के चक्कर में नहीं पड़ते।1।

हे भाई! मैं संत-जनों के चरण परसता हूँ, यही मेरे वास्ते फल देने वाली मूर्ति है, यही मेरे लिए मूर्ति का ध्यान धरना है। हे भाई! जब का मालिक प्रभू मुझ नानक पर दयावान हुआ है, मैं गुरू की शरण पड़ा हुआ हूँ।2।16।

देवगंधारी महला ५ ॥ अपुने हरि पहि बिनती कहीऐ ॥ चारि पदारथ अनद मंगल निधि सूख सहज सिधि लहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ मानु तिआगि हरि चरनी लागउ तिसु प्रभ अंचलु गहीऐ ॥ आंच न लागै अगनि सागर ते सरनि सुआमी की अहीऐ ॥१॥ कोटि पराध महा अक्रितघन बहुरि बहुरि प्रभ सहीऐ ॥ करुणा मै पूरन परमेसुर नानक तिसु सरनहीऐ ॥२॥१७॥ {पन्ना 531}

पद्अर्थ: पहि = पास। कहीअै = कहनी चाहिए। चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। निधि = खजाने। सहज = आत्मिक अडोलता। सिधि = करामाती ताकत।1। रहाउ।

मानु = अहंकार। तिआगि = छोड़ के। लागउ = लगूँ, लगता हूँ। अंचलु = पल्ला। गहीअै = पकड़ना चाहिए। आँच = सेक। सागर = समुंद्र। ते = से। अहीअै = तमन्ना करनी चाहिए।1।

कोटि = करोड़ों। अक्रितघन = किए उपकार को भुला देने वाला, कृतघ्न। बहुरि = फिर, दुबारा। सहीअै = सहता है। करुणामै = करुणामय, तरस स्वरूप। करुणा = तरस।2।

अर्थ: हे भाई! अपने परमात्मा के पास ही अरजोई करनी चाहिए। (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) ये चारों पदार्थ, आनंद खुशियों के खजाने, आत्मिक अडोलता के सुख, करामाती ताकतें- हरेक चीज परमात्मा से मिल जाती हैं।1। रहाउ।

हे भाई! मैं तो अहंकार त्याग के परमात्मा के चरणों में ही पड़ा रहता हूँ। भाई! उस प्रभू का ही पल्ला पकड़ना चाहिए। (इस तरह विकारों की) आग के समुंद्र से सेक नहीं लगता। मालिक प्रभू की शरण ही मांगनी चाहिए।1।

हे भाई! बड़े-बड़े अकृतज्ञों के करोड़ों पाप परमात्मा बार बार सह लेता है। हे नानक! परमात्मा पूर्ण तौर पर करुणामय है उसी की ही शरण पड़ना चाहिए।2।17।

देवगंधारी ५ ॥ गुर के चरन रिदै परवेसा ॥ रोग सोग सभि दूख बिनासे उतरे सगल कलेसा ॥१॥ रहाउ ॥ जनम जनम के किलबिख नासहि कोटि मजन इसनाना ॥ नामु निधानु गावत गुण गोबिंद लागो सहजि धिआना ॥१॥ करि किरपा अपुना दासु कीनो बंधन तोरि निरारे ॥ जपि जपि नामु जीवा तेरी बाणी नानक दास बलिहारे ॥२॥१८॥ छके ३ ॥ {पन्ना 531}

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। सोग = चिंता फिक्र। सभि = सारे। कलेसा = दुख।1। रहाउ।

किलविख = पाप। नासहि = नाश हो जाते हैं। कोटि = करोड़ों। मजन = चॅुभी। निधानु = खजाना। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1।

कीनो = बना लिया। तोरि = तोड़ के। निरारे = (माया के मोह से) अलग (कर लिया)। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। बलिहारे = कुर्बान।2। छके3 = छे छे छकों के तीन संग्रह।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के) हृदय में गुरू के चरन टिक जाते हैं, उस मनुष्य के सारे रोग, सारे गम, सारे दुख नाश हो जाते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू के चरनों की बरकति से) जन्मों-जन्मांतरों के (किए) पाप नाश हो जाते हैं, (गुरू के चरण हृदय में बसाना ही) करोड़ों तीर्थों का स्नान है, करोड़ों तीर्थों के जल में चॅुभी है। (गुरू के चरणों की बरकति से) गोबिंद के गुण गाते-गाते नाम-खजाना मिल जाता है, आत्मिक अडोलता में सुरति जुड़ी रहती है।1।

हे भाई! परमात्मा मेहर करके जिस मनुष्य को अपना दास बना लेता है, उसके माया के बंधन तोड़ के उसको माया के मोह से निर्लिप कर लेता है। हे दास नानक! (कह– हे प्रभू!) मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, तेरी सिफत-सालाह की बाणी उचार के तेरानाम जप-जप के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा हूँ।2।18। छके 3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh