श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देवगंधारी महला ५ ॥ मै बहु बिधि पेखिओ दूजा नाही री कोऊ ॥ खंड दीप सभ भीतरि रविआ पूरि रहिओ सभ लोऊ ॥१॥ रहाउ ॥ अगम अगमा कवन महिमा मनु जीवै सुनि सोऊ ॥ चारि आसरम चारि बरंना मुकति भए सेवतोऊ ॥१॥ गुरि सबदु द्रिड़ाइआ परम पदु पाइआ दुतीअ गए सुख होऊ ॥ कहु नानक भव सागरु तरिआ हरि निधि पाई सहजोऊ ॥२॥२॥३३॥ {पन्ना 535}

पद्अर्थ: बहु बिधि = बहुत से तरीकों से। री = हे बहन! खंड = धरती के हिस्से। दीप = सात द्वीप, सारे देश। रविआ = मौजूद। लोऊ = लोक, भवन।1। रहाउ।

अगम = अपहुँच। अगंमा = अपहुँच। महिंमा = महिमा। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। सुनि = सुन के। सोऊ = शोभा। चारि आसरम = (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्त, सन्यास)। चारि वरंना = (ब्राह्मण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। सेवतोऊ = सेवत ही, सेवा भक्ति करने से।1।

गुरि = गुरू ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। दुतीअ = मेरे तेर, परमात्मा के बिना किसी और के अस्तित्व का ख्याल। भव सागरु = संसार समुंद्र। निधि = खजाना। सहजोऊ = आत्मिक अडोलता।2।

अर्थ: हे बहन! मैंने इस अनेकों रंगों वाले जगत को (ध्यान से) देखा है, मुझे इसमें परमात्मा के बिना और कोई नहीं दिखता। हे बहन! धरती के सारे खण्डों में, देशों में सभी में परमात्मा ही मौजूद है, सब भवनों में परमात्मा ही व्यापक है।1। रहाउ।

हे बहन! परमात्मा अपहुँच है, हम जीवों की बुद्धि उस तक नहीं पहुँच सकती। उसकी महिमा कोई भी बयान नहीं कर सकता। हे बहन! उसकी शोभा सुन-सुन के मेरे मन को आत्मिक जीवन मिल रहा है। चारों आश्रमों, चारों वर्णों के जीव उसकी सेवा-भक्ति कर के (माया के बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।1।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य के हृदय में गुरू ने अपना शबद पक्का करके टिका दिया उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, उसके अंदर से मेर-तेर दूर हो गई, उसको आत्मिक आनंद मिल गया, उसने संसार-समुंद्र पार कर लिया, उसको परमात्मा का नाम-खजाना मिल गया, उसको आत्मिक अडोलता हासिल हो गई।2।2।33।

रागु देवगंधारी महला ५ घरु ६    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ एकै रे हरि एकै जान ॥ एकै रे गुरमुखि जान ॥१॥ रहाउ ॥ काहे भ्रमत हउ तुम भ्रमहु न भाई रविआ रे रविआ स्रब थान ॥१॥ जिउ बैसंतरु कासट मझारि बिनु संजम नही कारज सारि ॥ बिनु गुर न पावैगो हरि जी को दुआर ॥ मिलि संगति तजि अभिमान कहु नानक पाए है परम निधान ॥२॥१॥३४॥ {पन्ना 535}

पद्अर्थ: ऐकै = एक (परमात्मा) ही। रे = हे भाई! जान = समझ, निश्चय कर। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।1। रहाउ।

काहे = क्यों? भ्रमत हउ = तू भटकता है। भाई = हे भाई! स्रब थान = सब जगह।1।

बैसंतरु = आग। कासट मझारि = लकड़ी में (काष्ट, काठ)। संजम = जुगति, मर्यादा। सारि = सारे, सिरे चढ़ता। को = का। दुआर = दरवाजा। मिलि = मिल के। तजि = त्याग के। परम निधान = सबसे श्रेष्ठ (नाम-) खजाना।2।

अर्थ: हे भाई! हर जगह एक परमात्मा को ही बसता समझ। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर एक परमात्मा को ही (हर जगह बसता) समझ।1। रहाउ।

हे भाई! तुम क्यों भटकते हो? भटकना त्याग दो। हे भाई! परमात्मा सब जगह में व्याप रहा है।1।

हे भाई! जैसे (हरेक) लकड़ी में आग (बसती है, पर) जुगति के बिना (वह आग हासिल नहीं की जा सकती, और, आग से किए जाने वाले) काम सिरे नहीं चढ़ सकते। (इसी तरह, चाहे परमात्मा हर जगह बस रहा है, पर) गुरू को मिले बिना कोई मनुष्य परमात्मा का दर नहीं पा सकेगा। हे नानक! कह– साध-संगति में मिल के अपना अहंकार त्याग के सबसे श्रेष्ठ (नाम-) खजाना मिल जाता है।2।1।34।

देवगंधारी ५ ॥ जानी न जाई ता की गाति ॥१॥ रहाउ ॥ कह पेखारउ हउ करि चतुराई बिसमन बिसमे कहन कहाति ॥१॥ गण गंधरब सिध अरु साधिक ॥ सुरि नर देव ब्रहम ब्रहमादिक ॥ चतुर बेद उचरत दिनु राति ॥ अगम अगम ठाकुरु आगाधि ॥ गुन बेअंत बेअंत भनु नानक कहनु न जाई परै पराति ॥२॥२॥३५॥ {पन्ना 535}

पद्अर्थ: ता की = उस (परमात्मा) की। गाति = गति, अवस्था, आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।

कह = कहाँ? पेखारउ = मैं दिखाऊँ। हउ = मैं। करि = कर के। बिसमन बिसमे = हैरान से हैरान, बहुत ही हैरान। कहन = कथन, बयान। कहाति = कहते, जो कहते हैं।1।

गण = शिव जी के सेवक। गंधरब = देवताओं के रागी। सिध = करामाती योगी। अरु = और। साधिक = योग साधना करने वाले। सुरिनर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। ब्रहम = परमात्मा को जानने वाले। ब्रहमादिक = ब्रह्मा जैसे देवते। चतुर = चार। अगम = अपहुँच। आगाधि = अथाह। भनु = कह, कहिए। नानक = हे नानक! परै पराति = परे से परे।2।

अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा की आत्मक अवस्था समझी नहीं जा सकती (कि परमात्मा कैसा है–ये बात जानी नहीं जा सकती)।1। रहाउ।

हे भाई! अपनी अकल का जोर लगा के मैं वह परमात्मा कहाँ से दिखाऊँ? (नहीं दिखा सकता)। जो मनुष्य उसे बयान करने का प्रयत्न करते हैं वे भी हैरान ही रह जाते हैं (उसका स्वरूप कहा नहीं जा सकता)।1।

हे भाई! शिव जी के गुण, देवताओं के रागी, करामाती योगी, योग-साधना करने वाले, दैवी गुणों वाले मनुष्य, देवते, ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मा आदि बड़े देवतागण, चारों वेद (उस परमात्मा के गुणों को) दिन-रात उच्चारण करते हैं। फिर भी उस परमात्मा तक (अपनी अकल के जोर से) पहुँच नहीं सकते, वह अपहुँच है वह अथाह है।

हे नानक! कह– परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह बेअंत है, उसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह परे से परे है।2।2।35।

देवगंधारी महला ५ ॥ धिआए गाए करनैहार ॥ भउ नाही सुख सहज अनंदा अनिक ओही रे एक समार ॥१॥ रहाउ ॥ सफल मूरति गुरु मेरै माथै ॥ जत कत पेखउ तत तत साथै ॥ चरन कमल मेरे प्रान अधार ॥१॥ समरथ अथाह बडा प्रभु मेरा ॥ घट घट अंतरि साहिबु नेरा ॥ ता की सरनि आसर प्रभ नानक जा का अंतु न पारावार ॥२॥३॥३६॥ {पन्ना 535}

पद्अर्थ: धिआऐ = ध्यान करता है। गाए = गाता है। करनैहार = सृजनहार करतार को। सहज = आत्मक अडोलता। अनिक = अनेकों रूपों वाला। उही = वही, वह (परमात्मा) ही। रे = हे भाई! समार = संभाल, हृदय में संभाल के रख।1। रहाउ।

सफल मूरति = जिसके स्वरूप का दर्शन फल देता है। मेरै माथै = मेरे माथे पर। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = मैं देखता हूँ। तत तत = वहीं वहीं ही। प्रान अधार = प्राणों का आसरा।1।

समरथ = हरेक ताकत का मालिक। घट = शरीर। साहिबु = मालिक। ताकी = देखी है। आसर = आसरा। जा का = जिस (परमात्मा) का। परावार = पार अवार, इस पार उस पार का छोर।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सृजनहार परमात्मा का ध्यान धरता है करतार के गुण गाता है, उसे कोई डर छू नहीं सकता, उसे आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद मिले रहते हैं। हे भाई! तू उस करतार को अपने हृदय में संभाल के रख, वही एक है और वही अनेकों रूपों वाला है।1। रहाउ।

हे भाई! जिस गुरू के दर्शन जीवन के फल देने वाले हैं वह मेरे माथे पर (अपना हाथ रखे हुए है, उसकी बरकति से) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही परमात्मा मुझे अपने साथ बसता प्रतीत होता है, उस परमात्मा के सुंदर चरण मेरे प्राणों का आसरा बन गए हैं।1।

हे नानक! (कह– हे भाई!) मैंने उस परमात्मा की शरण देखी है उस प्रभू का आसरा चाहा है जिस (के गुणों) का अंत नहीं पाया जा सकता, जिस (के स्वरूप) का इस पार उस पार की थाह नहीं लगाई जा सकती।2।3।36।

देवगंधारी महला ५ ॥ उलटी रे मन उलटी रे ॥ साकत सिउ करि उलटी रे ॥ झूठै की रे झूठु परीति छुटकी रे मन छुटकी रे साकत संगि न छुटकी रे ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ काजर भरि मंदरु राखिओ जो पैसै कालूखी रे ॥ दूरहु ही ते भागि गइओ है जिसु गुर मिलि छुटकी त्रिकुटी रे ॥१॥ मागउ दानु क्रिपाल क्रिपा निधि मेरा मुखु साकत संगि न जुटसी रे ॥ जन नानक दास दास को करीअहु मेरा मूंडु साध पगा हेठि रुलसी रे ॥२॥४॥३७॥ {पन्ना 535}

पद्अर्थ: उलटी = उलट ले, पलट ले। सिउ = से। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। रे = हे मन! छुटकी छुटकी = जरूर टूट जाती है। साकत संगि = साकत की संगति में। न छुटकी = विकारों की ओर से खलासी नहीं होती।1। रहाउ।

काजर = काजल, कालख। भरि = भर के। मंदरु = घर। जो पैसै = जो मनुष्य (उसमें) पड़ेगा। कालूखी = कालख से भरा हुआ। गुर मिलि = गुरू को मिल के। जिसु त्रिकुटी = जिस मनुष्य की त्रिकुटी। त्रिकुटी = (त्रि = तीन, कुटी = टेड़ी लकीर) माथे की तीन टेड़ी लकीरें, त्रिकुटी, अंदरूनी गुस्सा जो माथे पर प्रकट होता है।1।

मागउ = माँगू। क्रिपाल = हे कृपा के घर! क्रिपा निधि = हे कृपा के खजाने! न जुटसी = ना जुड़े। को = का। मूंडु = सिर। पग = पैर।2।

अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा के साथ सदा टूटे रहते हैं, उनसे अपने आप को सदा परे रख, दूर रख। हे मन! साकत झूठे मनुष्य की प्रीति को भी झूठ ही समझ, ये कभी तोड़ नहीं निभती, ये जरूर टूट जाती है। फिर, साकत की संगति में रहने से विकारों से कभी भी निजात नहीं मिल सकती।1। रहाउ।

हे मन! जैसे कोई घर काजल से भर लिया जाए, उसमें जो भी मनुष्य प्रवेश करेगा वह कालिख से भर जाएगा (वैसे ही परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य से मुंह जोड़ने से विकारों की कालिख ही मिलेगी)। गुरू को मिल के जिस मनुष्य के माथे की त्रिकुटी मिट जाती है (जिसके अंदर से विकारों की कशिश दूर हो जाती है) वह दूर से ही साकत मनुष्य से परे परे रहता है।1।

हे कृपा के घर प्रभू! हे कृपा के खजाने प्रभू! मैं तेरे पास एक दान माँगता हूँ (मेहर कर) मुझे किसी साकत का साथ ना मिले। हे दास नानक! (कह– हे प्रभू!) मुझे अपने दासों का दास बना ले, मेरा सिर तेरे संत-जनों के पैरों तले पड़ा रहे।2।4।37।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh