श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु देवगंधारी महला ५ घरु ७    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सभ दिन के समरथ पंथ बिठुले हउ बलि बलि जाउ ॥ गावन भावन संतन तोरै चरन उवा कै पाउ ॥१॥ रहाउ ॥ जासन बासन सहज केल करुणा मै एक अनंत अनूपै ठाउ ॥१॥ रिधि सिधि निधि कर तल जगजीवन स्रब नाथ अनेकै नाउ ॥ दइआ मइआ किरपा नानक कउ सुनि सुनि जसु जीवाउ ॥२॥१॥३८॥६॥४४॥ {पन्ना 536}

पद्अर्थ: सभ दिन के = सदा ही। समरथ पंथ = जीवन राह बताने की समर्था वाले। बिठुले = हे बीठल! हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले प्रभू! (बिठुल = विष्ठल, वि+स्थल, माया के प्रभाव से परे खड़ा हुआ)। हउ जाउ = मैं जाता हूँ, जाऊँ। बलि बलि = कुर्बान। उवा के चरन पाउ = उनके चरणों में पड़ा रहूँ। पाउ = मैं पड़ा रहूँ।1। रहाउ।

जास = जिन को। बासन = वासना। सहज केल = आतमक अडोलता के आनंद। करुणा मै = हे तरस स्वरूप! करुणा = तरस। मै = मय, भरपूर। अनूपै = अनूप में। ठाउ = जगह।1।

रिधि सिधि = करामाती ताकतें। निधि = खजाने। कर तल = हाथों की तलियों पर। जग जीवन = हे जगत के जीवन प्रभू! स्रब नाथ = हे सभी के नाथ प्रभू! मइआ = कृपा। सुनि = सुन के। जीवाउ = जीऊँ।2।

अर्थ: हे माया के प्रभाव से परे रहने वाले प्रभू! (मेहर कर) मैं तेरे उन संतों के चरणों में पड़ा रहूँ, और उन संतों पर से सदके जाता रहूँ, जो तेरी सिफत-सालाह के गीत गाते रहते हैं, जो तुझे अच्छे लगते हैं, और, जो सदा ही जीवन राह बताने के समर्थ हैं।1। रहाउ।

हे तरस स्वरूप प्रभू! (मेहर कर, मैं उन संतों के चरणों में पड़ा रहूँ) जिन्हें और कोई वासना नहीं, जो सदा आत्मिक अडोलता के रंग में रंगे रहते हैं, जो सदा तेरे बेअंत और सुंदर स्वरूप में टिके रहते हैं1।

हे जगत के जीवन प्रभू! हे सबके नाथ प्रभू! हे अनेकों नामों वाले प्रभू! रिद्धियां-सिद्धियां और निधियां तेरे हाथों की तलियों पर (सदा टिकी रहती हैं)। हे प्रभू! (अपने) दास नानक पर दया कर, मेहर कर, कृपा कर कि (तेरे संत-जनों से तेरी) सिफत-सालाह सुन सुन के मैं नानक आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।2।1।38।6।44।

नोट: अंक १– ‘घरु ७’ का ये एक शबद है।

शबद महला ४---------------06
शबद महला ५---------------38
जोड़–--------------------------44


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु देवगंधारी महला ९ ॥ यह मनु नैक न कहिओ करै ॥ सीख सिखाइ रहिओ अपनी सी दुरमति ते न टरै ॥१॥ रहाउ ॥ मदि माइआ कै भइओ बावरो हरि जसु नहि उचरै ॥ करि परपंचु जगत कउ डहकै अपनो उदरु भरै ॥१॥ सुआन पूछ जिउ होइ न सूधो कहिओ न कान धरै ॥ कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते काजु सरै ॥२॥१॥ {पन्ना 536}

पद्अर्थ: यह मनु = ये मन। नैक = रक्ती भर भी। कहिओ = कहा हुआ उपदेश, दी हुई शिक्षा। सीख = शिक्षा। रहिओ = मैं थक गया हूँ। अपनी सी = अपनी ओर से। ते = से। टरै = टलता।1। रहाउ।

मदि = नशे में। बावरे = पागल। जसु = सिफत सलाह। उचरै = उचारता। परपंचु = दिखावा, ठॅगी। कउ = को। डहकै = ठॅगता है, छल रहा है। उदरु = पेट।1।

सुआन = कुक्ता। जिउ = जैसा। सूधो = सीधा, स्वच्छ जीवन वाला। न कान धरै = ध्यान से नहीं सुनता। भजु = भजन कर। जा ते = जिससे। काजु = (मानस जीवन का जरूरी) काम। सरै = सिरे चढ़ जाए।2।

अर्थ: हे भाई! ये मन रक्ती भर भी मेरा कहा नहीं मानता। मैं अपनी ओर से इसे शिक्षा दे दे के थक गया हूँ, फिर भी यह खोटी मति से नहीं हटता।1। रहाउ।

हे भाई! माया के नशे में ये मन झल्ला हुआ पड़ा है, ये कभी सिफत-सालाह की बाणी नहीं उचारता, दिखावा करके दुनिया को ठॅगता रहता है, और, (ठॅगी से एकत्र किए हुए धन द्वारा) अपना पेट भरता रहता है।1।

हे भाई! कुत्ते की पूँछ की तरह ये मन कभी सीधा नहीं होता, (किसी की भी) दी हुई शिक्षा को ध्यान से नहीं सुनता। हे नानक! (दुबारा इसे) कह– (हे मन!) परमात्मा के नाम का भजन किया कर जिसकी बरकति से तेरा जनम-मनोरथ हल हो जाए।2।1।

देवगंधारी महला ९ ॥ सभ किछु जीवत को बिवहार ॥ मात पिता भाई सुत बंधप अरु फुनि ग्रिह की नारि ॥१॥ रहाउ ॥ तन ते प्रान होत जब निआरे टेरत प्रेति पुकारि ॥ आध घरी कोऊ नहि राखै घर ते देत निकारि ॥१॥ म्रिग त्रिसना जिउ जग रचना यह देखहु रिदै बिचारि ॥ कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते होत उधार ॥२॥२॥ {पन्ना 536}

पद्अर्थ: बिवहार = व्यवहार। सभ किछु = सारा, सब कुछ। को = का। जीवत को = जीवित का। मात = माँ। भाई = भ्राता। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। अरु = और। फुनि = दुबारा। ग्रिह की नारि = घर की स्त्री।1। रहाउ।

ते = से। प्रान = प्राण। निआरे = अलग। टेरत = कहते हैं। प्रेत = गुजर चुका, मर चुका। पुकारि = पुकार के। कोऊ = कोई भी संबंधी। घर ते = घर से। निकारि = निकाल।1।

म्रिगत्रिसना = मृग तृष्णा, चमकती रेत प्यासे हिरन को पानी सी लगती है, वह पानी पीने के लिए दौड़ता है, चमकती रेत आगे आगे पानी ही प्रतीत होती है। दौड़ दौड़ के हिरन प्राण गवा बैठता है। रचना = खेल, संरचना। यह = ये। रिदै = हृदय में। बिचारि = विचार के। जा ते = जिससे। उधारु = पार उतारा।2।

अर्थ: हे भाई! माता, पिता, भाई, पुत्र, रिश्तेदार और घर की पत्नी भी - ये सब कुछ जीवन का ही मेल-जोल है।1। रहाउ।

हे भाई! (मौत आने पर) जब प्राण शरीर से अलग हो जाते हैं, तब (ये सारे संबंधी) ऊँचा ऊँचा कहते हैं कि ये गुजर चुका है गुजर चुका है। कोई भी संबंधी आधी घड़ी के लिए भी (उसको) घर में नहीं रखता, घर से निकाल देते हैं।1।

हे भाई! अपने हृदय में विचार करके देख लो, ये जगत-खेल मृग-तृष्णा (ठॅग नीरे) की तरह है (प्यासे हिरन के पानी के पीछे दौड़ने की तरह मनुष्य माया के पीछे दौड़-दौड़ के आत्मिक मौत मर जाता है)। हे नानक! कह– (हे भाई!) सदा परमात्मा के नाम का भजन किया कर जिसकी बरकति से (संसार के मोह से) पार-उतारा होता है।2।2।

देवगंधारी महला ९ ॥ जगत मै झूठी देखी प्रीति ॥ अपने ही सुख सिउ सभ लागे किआ दारा किआ मीत ॥१॥ रहाउ ॥ मेरउ मेरउ सभै कहत है हित सिउ बाधिओ चीत ॥ अंति कालि संगी नह कोऊ इह अचरज है रीति ॥१॥ मन मूरख अजहू नह समझत सिख दै हारिओ नीत ॥ नानक भउजलु पारि परै जउ गावै प्रभ के गीत ॥२॥३॥६॥३८॥४७॥ {पन्ना 536}

पद्अर्थ: महि = में। प्रीति = प्यार। सिउ = से, की खातिर। सभि = सारे (संबंधी)। किआ = क्या, चाहे, यद्यपि। दारा = स्त्री।1। रहाउ।

मेरउ = मेरा। हित = मोह। सिउ = साथ। बाधिओ = बँधा हुआ। अंति कालि = आखिरी समय। संगी = साथी। कोऊ = कोई भी। रीति = मर्यादा, जगत चाल।1।

मन = हे मन! अजहू = अभी भी। सिख = शिक्षा। दै = दे के। नीत = रोजाना, सदा। भउजलु = संसार समुंद्र। जउ = जब।2।

अर्थ: हे भाई! दुनियां में (संबन्धियों का) प्यार मैंने झूठा ही देखा है। चाहे स्त्री है चाहे मित्र हैं– सारे ही अपने-अपने सुख के खातिर ही (मनुष्य के) साथ चलते फिरते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! (सबका) चिक्त मोह से बँधा होता है (उस मोह के कारण) हर कोई यही कहता है ‘ये मेरा है ये मेरा है’। पर, आखिरी वक्त पर कोई भी साथी नहीं बनता। (जगत की) ये आश्चर्यजनक रीति चली आ रही है।1।

हे मूर्ख मन! तुझे मैं सदा शिक्षा दे दे के थक गया हूँ, तू अभी भी नहीं समझता। हे नानक! (कह– हे भाई!) जब मनुष्य परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाता है, तब संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है।2।3।6।38।47।

शबद महला ९---------------03
शबद महला ४---------------06
शबद महला ५---------------38
जोड़---------------------------47

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