श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 538 गुरमति मनि अम्रितु वुठड़ा मेरी जिंदुड़ीए मुखि अम्रित बैण अलाए राम ॥ अम्रित बाणी भगत जना की मेरी जिंदुड़ीए मनि सुणीऐ हरि लिव लाए राम ॥ चिरी विछुंना हरि प्रभु पाइआ गलि मिलिआ सहजि सुभाए राम ॥ जन नानक मनि अनदु भइआ है मेरी जिंदुड़ीए अनहत सबद वजाए राम ॥२॥ {पन्ना 538} पद्अर्थ: मनि = मन में। अंम्रितु = आत्मक जीवन देने वाला नाम-जल। वुठड़ा = आ बसा। मुखि = मुंह से। बैण = वचन, शबद। अलाऐ = उचारता है। सुणीअै = सुननी चाहिए। लिव लाऐ = लिव लगा के। गलि = गले से। सहजि = आत्मक अडोलता से। सुभाऐ = गहरे प्यार कारण। अनहत = (अनाहत = बिना साज बजाए) एक रस, लगातार।2। अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! गुरू की मति की बरकति से जिस मनुष्य के मन में आत्मक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है वह मनुष्य अपने मुँह से आत्मिक जीवन देने वाली बाणी सदा उचारता रहता है। हे जिंदे! परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्यों की बाणी आत्मिक जीवन देने वाली है परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़ के वह बाणी मन से (ध्यान से) सुननी चाहिए (जो मनुष्य सुनता है उसे) चिरों से विछुड़ा हुआ परमात्मा आ मिलता है, आत्मिक अडोलता और प्रेम के कारण उसके गले से आ लगता है। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सुंदर जिंदे! उस मनुष्य के मन में आत्मिक आनंद बना रहता है, वह अपने अंदर एक-रस सिफत सालाह की बाणी का (मानो, बाजा) बजाता रहता है।2। सखी सहेली मेरीआ मेरी जिंदुड़ीए कोई हरि प्रभु आणि मिलावै राम ॥ हउ मनु देवउ तिसु आपणा मेरी जिंदुड़ीए हरि प्रभ की हरि कथा सुणावै राम ॥ गुरमुखि सदा अराधि हरि मेरी जिंदुड़ीए मन चिंदिअड़ा फलु पावै राम ॥ नानक भजु हरि सरणागती मेरी जिंदुड़ीए वडभागी नामु धिआवै राम ॥३॥ पद्अर्थ: आणि = ला के। हउ = मैं। देवउ = देऊँ, मैं दे दूँ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।3। अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! (कह–) हे मेरी सखी सहेलियो! अगर कोई मेरा हरि-प्रभू को ला के मुझसे मिला दे, अगर कोई मुझे परमात्मा की सिफत-सालाह की बातें सुनाया करे, तो मैं अपना मन उसके हवाले कर दूँ। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम सिमरा कर, (जो कोई सिमरता है वह) मन-इच्छित फल प्राप्त कर लेता है। हे नानक! (कह–) हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा की शरण पड़ी रह। बड़े भाग्यों वाला मनुष्य ही परमात्मा का नाम सिमरता है।3। करि किरपा प्रभ आइ मिलु मेरी जिंदुड़ीए गुरमति नामु परगासे राम ॥ हउ हरि बाझु उडीणीआ मेरी जिंदुड़ीए जिउ जल बिनु कमल उदासे राम ॥ गुरि पूरै मेलाइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि सजणु हरि प्रभु पासे राम ॥ धनु धनु गुरू हरि दसिआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक नामि बिगासे राम ॥४॥१॥ {पन्ना 538} पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! आइ = आ के (शब्द ‘आणि’ और ‘आइ’ आय में फर्क याद रखें)। परगासे = चमकता है, उघड़ता है। हउ = मैं। बाझ = बिना। उडीणीआ = उदास। कमल = कमल का फूल। गुरि = गुर ने। पासे = पास ही, अंग संग। धनु धनु = सलाहने योग्य। नामि = नाम से। बिगासे = खिल पड़ता है, टहक जाता है।4। अर्थ: हे मेरी सुंदर जीवात्मा! (कह–) हे प्रभू! कृपा करके मुझे आ मिल। (हे जिंदे!) गुरू की मति पर चल के ही हरि-नाम (हृदय में) चमकता है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! (कह–) मैं परमात्मा के बगैर कुम्हलाई रहती हूँ। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिसको पूरे गुरू ने सज्जन हरि मिला दिया, उसे हरि-प्रभू अपने अंग-संग बसता दिखाई देने लग जाता है। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जिंदे! गुरू सलाहने योग्य है, सदा उस्तति का पात्र है। गुरू ने जिस को (परमात्मा का) पता बता दिया (उस का हृदय) नाम की बरकति से खिल उठता है।4।1। रागु बिहागड़ा महला ४ ॥ अम्रितु हरि हरि नामु है मेरी जिंदुड़ीए अम्रितु गुरमति पाए राम ॥ हउमै माइआ बिखु है मेरी जिंदुड़ीए हरि अम्रिति बिखु लहि जाए राम ॥ मनु सुका हरिआ होइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि हरि नामु धिआए राम ॥ हरि भाग वडे लिखि पाइआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक नामि समाए राम ॥१॥ {पन्ना 538} पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मक जीवन देने वाला जल। गुरमति = गुरू की मति पर चलने से। बिखु = जहर। अंम्रिति = अमृत (पीने) से। लिखि = लिख के, लिखे अनुसार। नामि = नाम में।1। अर्थ: हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है, ये नाम-जल गुरू की मति पर चलने से ही मिलता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! अहंकार जहर है माया (का मोह) जहर है (जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है, ये जहर नाम-जल (पीने) से उतर जाता है। हे मेरी सुंदर जिंदे! जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमरता रहता है उसका सूखा हुआ (छोटा हो चुका) मन हरा हो जाता है (जैसे कोई सूखा हुआ वृक्ष पानी से हरा हो जाता है, और, कठोरपन छोड़ के नर्म हो जाता है)। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य को पूर्बले लिखे लेखों अनुसार बड़े भाग्यों से परमात्मा मिल जाता है वह सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।1। हरि सेती मनु बेधिआ मेरी जिंदुड़ीए जिउ बालक लगि दुध खीरे राम ॥ हरि बिनु सांति न पाईऐ मेरी जिंदुड़ीए जिउ चात्रिकु जल बिनु टेरे राम ॥ सतिगुर सरणी जाइ पउ मेरी जिंदुड़ीए गुण दसे हरि प्रभ केरे राम ॥ जन नानक हरि मेलाइआ मेरी जिंदुड़ीए घरि वाजे सबद घणेरे राम ॥२॥ {पन्ना 538} पद्अर्थ: सेती = साथ। बेधिआ = बेधा गया, परोया गया। लगि = लगे, लगता है। खीर = दूध। चात्रिक = पपीहा। टेरे = पुकारता है। जाइ = जा के। केरे = के। घरि = हृदय घर में। घणेरे = अनेकों।2। अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिस मनुष्य का मन परमात्मा के साथ यूँ परोया जाता है जैसे बच्चे का मन दूध से परच जाता है, उस मनुष्य को, हे मेरी जीवात्मा! परमात्मा के मिलन के बगैर ठंड नहीं पड़ती (वह सदा व्याकुल हुआ रहता है) जैसे पपीहा (स्वाति बूँद के) पानी के बिना पुकारता रहता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जा के गुरू की शरण पड़ी रह, गुरू परमात्मा के गुणों की बात बताता है। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य को गुरू ने परमात्मा मिला दिया उसके हृदय-घर में (जैसे) अनेकों सुंदर साज बजते रहते हैं।2। मनमुखि हउमै विछुड़े मेरी जिंदुड़ीए बिखु बाधे हउमै जाले राम ॥ जिउ पंखी कपोति आपु बन्हाइआ मेरी जिंदुड़ीए तिउ मनमुख सभि वसि काले राम ॥ जो मोहि माइआ चितु लाइदे मेरी जिंदुड़ीए से मनमुख मूड़ बिताले राम ॥ जन त्राहि त्राहि सरणागती मेरी जिंदुड़ीए गुर नानक हरि रखवाले राम ॥३॥ {पन्ना 538} पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। बिखु = जहर। जाले = जाल में। कपोति = कपोत ने, कबूतर ने। आपु = अपने आप को। सभि = सारे। वसि काले = काल के बस में। मोहि = मोह में। मूढ़ = मूर्ख। बिताले = ताल से टूटे हुए, जीवन चाल से थिड़के हुए। त्राहि = बचा ले। सरणागती = शरण आते हैं। नानक = हे नानक!।3। अर्थ: हे मेरी सुंदर जीवात्मा! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य अहंकार के कारण परमात्मा से विछुड़ जाते हैं, (माया के मोह का) जहर (उनके आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है, वह अहंकार के जाल में बँधे रहते हैं। हे मेरी सोहणी जिंदे! जैसे (चोगे की लालच में) कबूतर आदि पँछी अपने आप को जाल में फँसवा लेता है, वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले सारे मनुष्य आत्मिक मौत के वश में आए रहते हैं। हे मेरी सोहणी जिंदे! जो मनुष्य माया के मोह में अपना चिक्त जोड़ी रखते हैं वे मन-मानी करने वाले मनुष्य मूर्ख होते हैं, वे (सही) जीवन-चाल से टूटे रहते हैं। हे नानक! (कह–) हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा के सेवक परमात्मा की शरण आते हैं (और, प्रार्थना करते हैं– हे प्रभू! हमें) बचा ले, बचा ले। गुरू परमात्मा उनके रक्षक बनते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |