श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरि जन हरि लिव उबरे मेरी जिंदुड़ीए धुरि भाग वडे हरि पाइआ राम ॥ हरि हरि नामु पोतु है मेरी जिंदुड़ीए गुर खेवट सबदि तराइआ राम ॥ हरि हरि पुरखु दइआलु है मेरी जिंदुड़ीए गुर सतिगुर मीठ लगाइआ राम ॥ करि किरपा सुणि बेनती हरि हरि जन नानक नामु धिआइआ राम ॥४॥२॥ {पन्ना 539}

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भक्त। लिव = लगन। उबरे = (संसार समुंद्र में से) बच निकलते हैं। धुरि = धुर दरगाह से। पोतु = जहाज। खेवट = मल्लाह। सबदि = शबद ने। दइआलु = दया के घर।4।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! परमात्मा के भक्त परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़ के (संसार समुंद्र में से) बच निकलते हैं, धुर दरगाह से लिखे लेख अनुसार बड़े भाग्यों से वह परमात्मा को मिल जाते हैं। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जहाज है, (हरि के जनों को) गुरू-मल्लाह के शबद ने (संसार समुंद्र से) पार लंघा दिया। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! सर्व-व्यापक परमात्मा सदा ही दयावान है, गुरू सतिगुरू की शरण पड़ने से (हरि-जनों को परमात्मा) प्यारा लगने लग पड़ता है।

हे दास नानक! (कह–) हे हरी! मेहर कर, मेरी विनती सुन (मैं तेरा नाम सिमरता रहूँ। जिन पर तूने मेहर की निगाह की, उन्होंने) तेरा नाम सिमरा।4।2।

बिहागड़ा महला ४ ॥ जगि सुक्रितु कीरति नामु है मेरी जिंदुड़ीए हरि कीरति हरि मनि धारे राम ॥ हरि हरि नामु पवितु है मेरी जिंदुड़ीए जपि हरि हरि नामु उधारे राम ॥ सभ किलविख पाप दुख कटिआ मेरी जिंदुड़ीए मलु गुरमुखि नामि उतारे राम ॥ वड पुंनी हरि धिआइआ जन नानक हम मूरख मुगध निसतारे राम ॥१॥ {पन्ना 539}

पद्अर्थ: जगि = जगत में। सुक्रितु = श्रेष्ठ कर्म। कीरति = कीर्ति, सिफत सालाह। मनि = मन में। धारे = टिका ले। उधारे = बचा लेता है। किलविख = पाप। मलु = मैल। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। नामि = नाम से। उतारे = दूर कर लेता है। मुगध = मूर्ख। निसतारे = पार लंघा लेता है।1।

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा की सिफत सालाह करनी, परमात्मा का नाम जपना, जगत में सबसे श्रेष्ठ कर्म है। तू भी परमात्मा की सिफत सालाह किया कर, परमात्मा का नाम अपने मन में टिकाए रख। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा का नाम (विकारियों को) पवित्र करने वाला है, तू भी परमात्मा का नाम जपा कर, नाम (संसार समुंद्र में डूबने से) बचा लेता है। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! (जिस मनुष्य ने हरि-नाम सिमरा, उसने अपने अंदर से) सारे विकार, सारे पाप सारे दुख दूर कर लिए, वह मनुष्य गुरू की शरण पड़ के हरि-नाम की बरकति से विकारों की मैल उतार लेता है।

हे दास नानक! (कह–) बड़े भाग्यों से ही परमात्मा का नाम सिमरा जा सकता है। परमात्मा का नाम हम जैसे मूर्खों को, महा मूर्खों को संसार समुंद्र से पार लंघा लेता हैं।1।

जो हरि नामु धिआइदे मेरी जिंदुड़ीए तिना पंचे वसगति आए राम ॥ अंतरि नव निधि नामु है मेरी जिंदुड़ीए गुरु सतिगुरु अलखु लखाए राम ॥ गुरि आसा मनसा पूरीआ मेरी जिंदुड़ीए हरि मिलिआ भुख सभ जाए राम ॥ धुरि मसतकि हरि प्रभि लिखिआ मेरी जिंदुड़ीए जन नानक हरि गुण गाए राम ॥२॥ {पन्ना 539}

पद्अर्थ: तिना वसगति = उनके वश में। पंचे = कामादिक पाँचों (वैरी)। नवनिधि = (दुनिया के) नौ खजाने। अलखु = जिस का सही स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। लखाऐ = समझा देता है। गुरि = गुरू ने। जाऐ = दूर हो जाती है। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। प्रभि = प्रभू ने।2।

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते रहते हैं, कामादिक पाँचों वैरी उनके वश में आ जाते हैं, दुनिया के नौ खजानों की बराबरी करने वाला हरि-नाम उनके मन में आ बसता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरू उन्हें उस परमात्मा की समझ बख्श देता है जिस तक मनुष्य की अपनी समझ नहीं पहुँच सकती। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरू ने जिन मनुष्यों की आशा और मन की मनसा पूरी कर दी, उनको परमात्मा मिल गया, उनकी माया की सारी भूख उतर जाती है। हे दास नानक! (कह–) धुर दरगाह से परमात्मा ने जिस मनुष्य के माथे पर (सिमरन का लेख) लिख दिया है, वह सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।2।

हम पापी बलवंचीआ मेरी जिंदुड़ीए परद्रोही ठग माइआ राम ॥ वडभागी गुरु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए गुरि पूरै गति मिति पाइआ राम ॥ गुरि अम्रितु हरि मुखि चोइआ मेरी जिंदुड़ीए फिरि मरदा बहुड़ि जीवाइआ राम ॥ जन नानक सतिगुर जो मिले मेरी जिंदुड़ीए तिन के सभ दुख गवाइआ राम ॥३॥ {पन्ना 539}

पद्अर्थ: बलवंचीआ = छल कपट करने वाले। परद्रोही = दूसरों के साथ दगा करने वाले। गुरि पूरै = पूरे गुरू के द्वारा। गति मिति = उच्च आत्मिक जीवन की मर्यादा। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। गुरि = गुरू ने। मुखि = मुँह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मरदा = आत्मक मौत मर रहे को। बहुड़ि = दोबारा। जीवाइआ = आत्मिक जीवन दिया। सतिगुर मिले = गुरू को (जो) मिल लिए।3।

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! हम जीव पापी हैं, छल कपट करने वाले हैं, दूसरों के साथ दग़ा-फरेब करने वाले हैं, माया की खातिर ठॅगी करने वाले हैं। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जिस अति भाग्यशाली ने गुरू ढूँढ लिया उसने पूरे गुरू के द्वारा उच्च आत्मिक जीवन की मर्यादा हासिल कर ली। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिस मनुष्य के मुँह में गुरू ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल टपका दिया, उस आत्मिक मौत मर रहे मनुष्य को गुरू ने दोबारा आत्मिक जीवन बख्श दिया। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जिंदे! जो मनुष्य गुरू से मिल लिए, गुरू ने उनके सारे दुख दूर कर दिए।3।

अति ऊतमु हरि नामु है मेरी जिंदुड़ीए जितु जपिऐ पाप गवाते राम ॥ पतित पवित्र गुरि हरि कीए मेरी जिंदुड़ीए चहु कुंडी चहु जुगि जाते राम ॥ हउमै मैलु सभ उतरी मेरी जिंदुड़ीए हरि अम्रिति हरि सरि नाते राम ॥ अपराधी पापी उधरे मेरी जिंदुड़ीए जन नानक खिनु हरि राते राम ॥४॥३॥ {पन्ना 539}

पद्अर्थ: जितु = जिसके द्वारा। जितु जपीअै = जिसके जपने से। पतित = विकारों में गिरे हुए। गुरि = गुरू ने। चहु कुंडी = चहु कुंटों में, सारे संसार में। चहु जुगि = चार युगी समय में, सदा के लिए ही। जाते = प्रगट हो गए, मशहूर हो गए। अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल में। हरि सरि = हरी नाम सरोवर में। उधरे = डूबने से बच गए। राते = रंगे गए।4।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! परमात्मा का नाम बड़ा ही श्रेष्ठ है, इस नाम के जपने से सारे (पिछले) पाप दूर हो जाते हैं। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! गुरू ने हरी-नाम दे के विकारों में गिरे हुओं को भी पवित्र बना दिया है, वे सारे संसार में सदा के लिए ही मशहूर हो गए। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जिन मनुष्यों ने आत्मक जीवन देने वाले हरि-नाम-जल में, हरी-नाम-सरोवर में स्नान किया, उनके अहंकार की सारी मैल उतर गई। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जो विकारी और पापी भी एक छिन के लिए हरी-नाम के रंग में रंगे गए, वे संसार समुंद्र में डूबने से बच गए।4।3।

बिहागड़ा महला ४ ॥ हउ बलिहारी तिन्ह कउ मेरी जिंदुड़ीए जिन्ह हरि हरि नामु अधारो राम ॥ गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ मेरी जिंदुड़ीए बिखु भउजलु तारणहारो राम ॥ जिन इक मनि हरि धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए तिन संत जना जैकारो राम ॥ नानक हरि जपि सुखु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए सभि दूख निवारणहारो राम ॥१॥ {पन्ना 539}

पद्अर्थ: हउ = मैं। बलिहारी = कुर्बान। अधारो = आसरा। गुरि = गुरू ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का किया। बिखु = जहर। भउ जलु = संसार समुंद्र। तारणहारो = तैराने का समर्थता रखने वाला। इक मनि = एकाग्रता से, एक मन से। जैकारो = शोभा। जपि = जप के। सभि = सारे।1।

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! (कह–) मैं उनसे कुर्बान हूँ जिन्होंने परमात्मा के नाम को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना लिया है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरू ने सतिगुरू ने उनके हृदय में परमात्मा का नाम पक्की तरह टिका दिया है। गुरू (माया के मोह के) जहर (-भरे) संसार-समुंद्र से पार लंघाने की समर्था रखता है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिन संत जनों ने एक-मन हो के परमात्मा का नाम सिमरा है, उनकी (हर जगह) शोभा-महिमा होती है। हे नानक! (कह–) हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जप के सुख मिल जाता है, हरि-नाम सारे दुख दूर करने की समर्था वाला है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh