श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सा रसना धनु धंनु है मेरी जिंदुड़ीए गुण गावै हरि प्रभ केरे राम ॥ ते स्रवन भले सोभनीक हहि मेरी जिंदुड़ीए हरि कीरतनु सुणहि हरि तेरे राम ॥ सो सीसु भला पवित्र पावनु है मेरी जिंदुड़ीए जो जाइ लगै गुर पैरे राम ॥ गुर विटहु नानकु वारिआ मेरी जिंदुड़ीए जिनि हरि हरि नामु चितेरे राम ॥२॥ {पन्ना 540}

पद्अर्थ: सा = (स्त्री लिंग) वह। रसना = जीभ। केरे = के। ते = (बहुवचन) वह। स्रवन = कान। हहि = हैं। सुणहि = सुनते हैं। सीसु = सिर। पावनु = पवित्र। जाइ = जा के। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान जाता है। चितेरे = चेते कराया है।2।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! वह जीभ भाग्यशाली है, मुबारक है, जो (सदा) परमात्मा के गुण गाती रहती है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! वे कान सुंदर हैं अच्छे हैं जो तेरा कीर्तन सुनते रहते हैं। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! वह सिर भाग्यशाली है पवित्र है, जो गुरू के चरनों में आ लगता है। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! नानक (उस) गुरू से कुर्बान जाता है जिस ने (नानक को) परमात्मा का नाम याद कराया है।2।

ते नेत्र भले परवाणु हहि मेरी जिंदुड़ीए जो साधू सतिगुरु देखहि राम ॥ ते हसत पुनीत पवित्र हहि मेरी जिंदुड़ीए जो हरि जसु हरि हरि लेखहि राम ॥ तिसु जन के पग नित पूजीअहि मेरी जिंदुड़ीए जो मारगि धरम चलेसहि राम ॥ नानकु तिन विटहु वारिआ मेरी जिंदुड़ीए हरि सुणि हरि नामु मनेसहि राम ॥३॥ {पन्ना 540}

पद्अर्थ: ते नेत्र = वह आँखें। परवाणु = कबूल, सफल। हहि = हैं (बहुवचन)। साधू = गुरू। देखहि = देखती हैं। हसत = हस्त, हाथ। पुनीत = पवित्र। जसु = सिफत सालाह। लेखहि = लिखते हैं। पग = पैर। पूजीअहि = पूजे जाते हैं। मारगि धरम = धर्म के रास्ते पर। चलेसहि = चलेंगे, चलते हैं। सुणि = सुन के। मनेसहि = मानते हैं, मानेंगे।3।

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! वे आँखें भली हैं सफल हैं जो गुरू के दर्शन करती रहती हैं, वे हाथ पवित्र हैं जो परमात्मा की सिफत-सालाह लिखते रहते हैं। हे मेरी सोहणी जिंदे! उस मनुष्य के (वह) पैर सदा पूजे जाते हैं जो (पैर) धर्म के राह पर चलते रहते हैं। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! नानक उन (भाग्यशाली) मनुष्यों से कुर्बान जाता है जो परमात्मा का नाम सुन के नाम को मानते हैं (जीवन का आधार बना लेते हैं)।3।

धरति पातालु आकासु है मेरी जिंदुड़ीए सभ हरि हरि नामु धिआवै राम ॥ पउणु पाणी बैसंतरो मेरी जिंदुड़ीए नित हरि हरि हरि जसु गावै राम ॥ वणु त्रिणु सभु आकारु है मेरी जिंदुड़ीए मुखि हरि हरि नामु धिआवै राम ॥ नानक ते हरि दरि पैन्हाइआ मेरी जिंदुड़ीए जो गुरमुखि भगति मनु लावै राम ॥४॥४॥ {पन्ना 540}

पद्अर्थ: पउणु = हवा। बैसंतरो = बैसंतरु, आग। जसु = सिफत सालाह के गीत। वणु = जंगल। त्रिणु = घास। सभु = सारा। आकारु = दिखता संसार। मुखि = मुँह से। नानक = हे नानक! ते = (बहुवचन) वह लोग। दरि = दर पे। पैनाइआ = (आदर के सिरोपे) पहनाए जाते हैं, सम्मानित किये जाते हैं। जो = जो जो लोग। भगति मनु लावै = भक्ति में मन लगाता है।4।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! धरती, पाताल, आकाश- हरेक ही परमात्मा का नाम सिमर रहा है। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! हवा, पानी, आग- हरेक तत्व भी परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गा रहा है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! जंगल, घास, ये सारा दिखता संसार - अपने मुँह से हरेक ही परमात्मा का नाम जप रहा है। हे नानक! (कह–) हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जो जो जीव गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति में अपना मन जोड़ते हैं, वे सारे परमात्मा के दर पर सम्मानित किए जाते हैं।4।4।

बिहागड़ा महला ४ ॥ जिन हरि हरि नामु न चेतिओ मेरी जिंदुड़ीए ते मनमुख मूड़ इआणे राम ॥ जो मोहि माइआ चितु लाइदे मेरी जिंदुड़ीए से अंति गए पछुताणे राम ॥ हरि दरगह ढोई ना लहन्हि मेरी जिंदुड़ीए जो मनमुख पापि लुभाणे राम ॥ जन नानक गुर मिलि उबरे मेरी जिंदुड़ीए हरि जपि हरि नामि समाणे राम ॥१॥ {पन्ना 540}

पद्अर्थ: चेतिओ = सिमरा, याद किया। ते = (बहुवचन) वे लोग। मनमुख = अपने मन की ओर ही मुँह रखने वाले। मूढ़ = मूर्ख। मोहि = मोह में। से = (बहुवचन) वह। अंति = आखिरी वक्त। ढोई = आसरा, जगह। लहनि् = लेते (बहुवचन)। पापि = पाप में। गुर मिलि = गुरू को मिल के। उबरे = (संसार समुंद्र में डूबने से) बच जाते हैं। नामि = नाम में।1।

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! जिन मनुष्यों ने (कभी) परमात्मा का नाम याद नहीं किया, वह अपने ही मन के पीछे चलने वाले मनुष्य मूर्ख व अंजान हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जो मनुष्य माया के मोह में अपना मन जोड़े रखते हैं वह आखिरी समय में (यहाँ से) हाथ मलते हुए जाते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! अपने ही मन के पीछे चलने वाले जो मनुष्य (सदा) पाप कर्म में फंसे रहते हैं वे परमात्मा की दरगाह में आसरा प्राप्त नहीं कर सकते। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जीवात्मा! गुरू को मिल के (अति भाग्यशाली मनुष्य संसार समुंद्र में डूबने से) बच जाते हैं (क्योंकि वे) परमात्मा का नाम जप जप के परमात्मा के नाम में ही मगन रहते हैं।1।

सभि जाइ मिलहु सतिगुरू कउ मेरी जिंदुड़ीए जो हरि हरि नामु द्रिड़ावै राम ॥ हरि जपदिआ खिनु ढिल न कीजई मेरी जिंदुड़ीए मतु कि जापै साहु आवै कि न आवै राम ॥ सा वेला सो मूरतु सा घड़ी सो मुहतु सफलु है मेरी जिंदुड़ीए जितु हरि मेरा चिति आवै राम ॥ जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए जमकंकरु नेड़ि न आवै राम ॥२॥ {पन्ना 540}

पद्अर्थ: सभि = सारे। जाइ = जा के। कउ = को। कीजई = करनी चाहिए। मतु = ऐसा ना हो। कि जापै = क्या पता? कि = अथवा, या। मूरतु = मुहतु, महूरत, समय। सफलु = फल देने वाला, भाग्यशाली। जितु = जिस (समय) में। चिति = चिक्त में। कुंकरु = किंकर, दास, सेवक। जम कंकरु = जम का दास, जम दूत।2।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! (कह–) हे भाई! सभी जा के गुरू को मिल लो क्योंकि वह (गुरू) परमात्मा का नाम हृदय में पक्का कर देता है। हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जपते हुए रक्ती भर भी देर नहीं करनी चाहिए। क्या पता! अगला श्वास लिया जाय कि ना लिया जाए। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! वह वक्त भाग्यशाली है, वह घड़ी भाग्य भरपूर है, वह समय भाग्यशाली है, जिस समय प्यारा परमात्मा चिक्त में आ बसता है। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जीवात्मा! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम (हर समय) सिमरा है, जम दूत उसके नजदीक नहीं फटकता (मौत का डर उसको छू नहीं सकता, उसे आत्मिक मौत नहीं आती)।2।

हरि वेखै सुणै नित सभु किछु मेरी जिंदुड़ीए सो डरै जिनि पाप कमते राम ॥ जिसु अंतरु हिरदा सुधु है मेरी जिंदुड़ीए तिनि जनि सभि डर सुटि घते राम ॥ हरि निरभउ नामि पतीजिआ मेरी जिंदुड़ीए सभि झख मारनु दुसट कुपते राम ॥ गुरु पूरा नानकि सेविआ मेरी जिंदुड़ीए जिनि पैरी आणि सभि घते राम ॥३॥ {पन्ना 540-541}

पद्अर्थ: वेखै = देखता है। सुणै = सुनता है। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। कमते = कमाए। अंतरु हिरदा = अंदरूनी हृदय। तिनि = उस ने। जनि = जन ने। तिनि जनि = उस मनुष्य ने। सभि = सारे। नामि = नाम में। पतीजिआ = पतीज गया। मारनु = बेशक मारते रहें (हुकमी भविष्यत, अन्यपुरुष, बहुवचन। शब्द ‘मारनि’ वर्तमान काल अन्य पुरुष, बहुवचन है। इसका अर्थ है ‘मारते हैं’)। दुसटु = (कामादिक) वैरी। कुपते = झगड़ालू। नानकि = नानक ने। जिनि = जिस (गुरू) ने। आणि = ला के। सभि = सारे (दुष्ट कुपत्ते)।3।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! (जो काम हम करते हैं, जो बोल हम बोलते हैं) परमात्मा वह सब कुछ सदा देखता रहता है। जिस मनुष्य ने (सारी उम्र) पाप कमाए होते हैं, वह डरता है। (पर) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस (मनुष्य) का अंदरूनी हृदय पवित्र है, उस मनुष्य ने सारे डर उतार दिए होते हैं। जो मनुष्य निर्भय परमात्मा के नाम में पतीज जाता है, (कामादिक) सारे झगड़ालू वैरी बेशक रहें झख मारते (उस मनुष्य का कुछ नहीं बिगाड़ सकते)। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! नानक ने उस पूरे गुरू की शरण ली है जिसने सारे (कुपत्ते दुष्ट, शरण आए मनुष्य के) पैरों में ला के रख दिए हैं।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh