श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 541 सो ऐसा हरि नित सेवीऐ मेरी जिंदुड़ीए जो सभ दू साहिबु वडा राम ॥ जिन्ही इक मनि इकु अराधिआ मेरी जिंदुड़ीए तिना नाही किसै दी किछु चडा राम ॥ गुर सेविऐ हरि महलु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए झख मारनु सभि निंदक घंडा राम ॥ जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए धुरि मसतकि हरि लिखि छडा राम ॥४॥५॥ {पन्ना 541} पद्अर्थ: सेवीअै = सेवा भक्ति करनी चाहिए। सभ दू = सब से। साहिबु = मालिक। इक मनि = एक मन से, सुरति जोड़ के। चडा = मुथाजी, अधीनगी। गुर सेविअै = अगर गुरू की सेवा की जाए (शब्द ‘सेवीअै’ और ‘सेविअै’ का फर्क याद रखें)। हरि महलु = परमात्मा का घर, परमात्मा की हजूरी। सभि = सारे। घंडा = चालाक, कुपत्ते। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। लिखि छडा = लिख रखा है।4। अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! सदा उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करनी चाहिए जो सबसे बड़ा मालिक है। जिन मनुष्यों ने सुरति जोड़ के एक परमात्मा का सिमरन किया उन्हें किसी की कोई अधीनगी नहीं रह जाती। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा का दर प्राप्त हो जाता है, (फिर) सारे ही चालाक निंदक पड़े लगाते रहें जोर (उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते)। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जिंदे! (उन मनुष्यों ने ही) परमात्मा का नाम सिमरा है (जिनके) माथे पर परमात्मा ने धुर दरगाह से (सिमरन का) लेख लिख रखा है।4।5। बिहागड़ा महला ४ ॥ सभि जीअ तेरे तूं वरतदा मेरे हरि प्रभ तूं जाणहि जो जीइ कमाईऐ राम ॥ हरि अंतरि बाहरि नालि है मेरी जिंदुड़ीए सभ वेखै मनि मुकराईऐ राम ॥ मनमुखा नो हरि दूरि है मेरी जिंदुड़ीए सभ बिरथी घाल गवाईऐ राम ॥ जन नानक गुरमुखि धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि हाजरु नदरी आईऐ राम ॥१॥ {पन्ना 541} पद्अर्थ: सभि = सारे। जीअ = (‘जीउ’ का बहुवचन)। प्रभ = हे प्रभू! जीइ = जी में, मन में। कमाईअै = कमाते हैं। मनि = मन में। मुकराईअै = मुकर जाते हैं, जबान से फिर जाते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। घाल = मेहनत। गवाईअै = गायब हो जाती है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। हाजरु = प्रत्यक्ष, हर जगह बसता। आईअै = आ जाता है।1। अर्थ: हे मेरे हरी! हे मेरे प्रभू! (सृष्टि के) सारे जीव तेरे (ही पैदा किए हुए) हैं, तू (सब जीवों में) मौजूद है, जो कुछ (जीवों के) जी में चित्रित होता है तू (वह सब कुछ) जानता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा हमारे अंदर बाहर (हर जगह) हमारे साथ है, जो कुछ हमारे मन में होता है वह सब देखता है, (पर फिर भी हम) मुकर जाते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों को परमात्मा कहीं दूर बसता प्रतीत होता है, उनकी की हुई मेहनत व्यर्थ चली जाती है। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिन मनुष्यों ने गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम सिमरा है उन्हें परमात्मा हर जगह बसता दिखता है।1। से भगत से सेवक मेरी जिंदुड़ीए जो प्रभ मेरे मनि भाणे राम ॥ से हरि दरगह पैनाइआ मेरी जिंदुड़ीए अहिनिसि साचि समाणे राम ॥ तिन कै संगि मलु उतरै मेरी जिंदुड़ीए रंगि राते नदरि नीसाणे राम ॥ नानक की प्रभ बेनती मेरी जिंदुड़ीए मिलि साधू संगि अघाणे राम ॥२॥ {पन्ना 541} पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वे। मनि = मन में। भाणै = पसंद आ गए। पैनाइआ = सिरोपा दिया जाता है, आदर मिलता है। अहि = दिन। निसि = रात। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे जाते हैं। नीसाणे = (माथे पर) निशान। मिलि साधू = गुरू को मिल के। अघाणे = तृष्णा की ओर से तृप्त रहते हैं।2। अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! वह मनुष्य (असल) सेवक हैं जो प्यारे परमात्मा के मन में अच्छे लगते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! वे मनुष्य परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं, वह दिन-रात सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! उनकी संगति में रहने से (मन से विकारों की) मैल उतर जाती है वे सदा प्रभू के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। उनके माथे पर प्रभू के मेहर की निगाह का निशान होता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! (कह–) हे प्रभू! नानक की ये आरजू है (कि नानक गुरू की संगति में टिका रहे) गुरू की संगति में रहने से (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं।2। हे रसना जपि गोबिंदो मेरी जिंदुड़ीए जपि हरि हरि त्रिसना जाए राम ॥ जिसु दइआ करे मेरा पारब्रहमु मेरी जिंदुड़ीए तिसु मनि नामु वसाए राम ॥ जिसु भेटे पूरा सतिगुरू मेरी जिंदुड़ीए सो हरि धनु निधि पाए राम ॥ वडभागी संगति मिलै मेरी जिंदुड़ीए नानक हरि गुण गाए राम ॥३॥ {पन्ना 541} पद्अर्थ: रसना = जीभ। गोबिंदे = गोबिंदु। त्रिसना = तृष्णा, माया की प्यास। मनि = मन में। भेटे = मिलता है। निधि = खजाना। पाऐ = ढूँढ लेता है।3। अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! (कह–) हे मेरी जीभ! परमात्मा का नाम जपा कर, हरि नाम जप-जप के माया का लालच दूर हो जाता है। हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है, उसके मन में अपना नाम बसा देता है, जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है, वह प्रभू का नाम-धन नाम-खजाना ढूँढ लेता है। हे नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य को बड़े भाग्यों से गुरू की संगति प्राप्त होती है वह (सदा) परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता रहता है।3। थान थनंतरि रवि रहिआ मेरी जिंदुड़ीए पारब्रहमु प्रभु दाता राम ॥ ता का अंतु न पाईऐ मेरी जिंदुड़ीए पूरन पुरखु बिधाता राम ॥ सरब जीआ प्रतिपालदा मेरी जिंदुड़ीए जिउ बालक पित माता राम ॥ सहस सिआणप नह मिलै मेरी जिंदुड़ीए जन नानक गुरमुखि जाता राम ॥४॥६॥ छका १ ॥ {पन्ना 541} पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। बिधाता = सृजनहार, पैदा करने वाला। सहस = हजारों। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। जाता = सांझ पड़ती है।4। अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! सब जीवों को दातें देने वाला प्रभू परमात्मा हरेक जगह में बस रहा है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह सृजनहार प्रभू सभी घटों में व्यापक है। जैसे माता-पिता अपने बच्चों को पालते हैं, वैसे ही परमात्मा सारे जीवों को पालता है। हे दास नानक! (कह–) हे मेरी सोहणी जीवात्मा! हजारों चतुराईयों से वह परमात्मा नहीं मिल सकता, गुरू की शरण पड़ने से उसके साथ गहरी साँझ पड़ जाती है।4।6। छका1। बिहागड़ा महला ५ छंत घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि का एकु अच्मभउ देखिआ मेरे लाल जीउ जो करे सु धरम निआए राम ॥ हरि रंगु अखाड़ा पाइओनु मेरे लाल जीउ आवणु जाणु सबाए राम ॥ आवणु त जाणा तिनहि कीआ जिनि मेदनि सिरजीआ ॥ इकना मेलि सतिगुरु महलि बुलाए इकि भरमि भूले फिरदिआ ॥ अंतु तेरा तूंहै जाणहि तूं सभ महि रहिआ समाए ॥ सचु कहै नानकु सुणहु संतहु हरि वरतै धरम निआए ॥१॥ {पन्ना 541-542} पद्अर्थ: अचंभउ = अचंभा, आश्चर्य, तमाशा। लाल = हे प्यारे! धरम निआऐ = धर्म और न्याय के अनुसार। रंगु = रंग भूमि जहाँ नट अपना खेल दिखाते हैं। अखाड़ा = मैदान। पाइओनु = उसने बना दिया है। आवणु जाणु = पैदा होने और मरना। सबाऐ = सारे जीवों को। तिनहि = उस (परमात्मा) ने ही। जिनि = जिस ने। मेदनि = धरती, सृष्टि। सिरजीआ = पैदा की है। मेलि = मिला के। महलि = महल में, हजूरी में। इकि = (‘इक’ का बहुवचन)। भरमि = भटकना में पड़ के। तूं है = तू ही। सचु = अटल नियम। वरतै = कार्य व्यवहार चलाता है।1। अर्थ: हे मेरे प्यारे! मैंने परमात्मा का एक आश्चर्यजनक तमाशा देखा है कि वह जो कुछ करता है धर्म के अनुसार करता है। हे मेरे प्यारे! (ये जगत) उस परमात्मा ने एक अखाड़ा बना दिया है, एक रंग-भूमि रच दी है जिस में सारे (नटों के लिए, पहलवानों के लिए) पैदा होना मरना (भी नियत कर दिया है)। (जगत में जीवों का) पैदा होना मरना उसी परमात्मा ने बनाया है जिसने ये जगत पैदा किया है। कई जीवों को गुरू मिला के प्रभू अपनी हजूरी में टिका लेता है (ठिकाना दे देता है), और, कई जीव कुर्माग पड़ कर भटकते फिरते हैं। हे प्रभू! अपने (गुणों का) अंत तू खुद ही जानता है, तू सारी सुष्टि में व्यापक है। हे संत जनो! सुनो, नानक एक अटल नियम बताता है (कि) परमात्मा धर्म अनुसार न्याय के मुताबक दुनिया की कार चला रहा है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |