श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 542 आवहु मिलहु सहेलीहो मेरे लाल जीउ हरि हरि नामु अराधे राम ॥ करि सेवहु पूरा सतिगुरू मेरे लाल जीउ जम का मारगु साधे राम ॥ मारगु बिखड़ा साधि गुरमुखि हरि दरगह सोभा पाईऐ ॥ जिन कउ बिधातै धुरहु लिखिआ तिन्हा रैणि दिनु लिव लाईऐ ॥ हउमै ममता मोहु छुटा जा संगि मिलिआ साधे ॥ जनु कहै नानकु मुकतु होआ हरि हरि नामु अराधे ॥२॥ {पन्ना 542} पद्अर्थ: अराधे = आराधता है। करि पूरा = अभुल मान के। मारगु = रास्ता। साधे = साधता है, अच्छा बना लेता है। बिखड़ा = मुश्किल। साधि = साध के। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। पाईअै = प्राप्त कर ली जाती है। बिधातै = करतार ने। धुरहु = अपनी हजूरी से। रैणि = रात। लिव = लगन। संगि साधे = साधू गुरू की संगत में। मुकतु = विकारों से आजाद। अराधे = आराध के।2। अर्थ: हे मेरे प्यारे! (कह–) हे संत-जन सहेलियो! आओ, मिल के संत-संग में बैठो, (जो मनुष्य सत्संगियों में मिल के बैठता है वह) परमात्मा का नाम सदा सिमरता है। हे मेरे प्यारे! गुरू को अभॅुल मान के गुरू की शरण पड़ो (जो इस तरह गुरू की शरण पड़ता है वह) जम के रास्ते को (आत्मक मौत लाने वाले जीवन-राह को) अच्छा बना लेता है। गुरू की शरण पड़ कर मुश्किल जीवन राह को (सुंदर व) आसान बना के परमात्मा की हजूरी में शोभा कमाई जा सकती है। (पर) जिन मनुष्यों के माथे पर अपनी हजूरी से विधाता ने (भक्ति का लेख) लिख दिया है, उन मनुष्यों की सुरति दिन-रात (प्रभू चरनों में) लगी रहती है। जब मनुष्य गुरू की संगति में मिलता है तब उसके अंदर से अहंकार ममता (अपनत्व) दूर हो जाते हैं, मोह समाप्त हो जाता है। दास नानक कहता है कि सदा परमात्मा का नाम सिमर के मनुष्य (अहंकार, ममता, मोह आदि के प्रभाव से) स्वतंत्र हो जाता है।2। कर जोड़िहु संत इकत्र होइ मेरे लाल जीउ अबिनासी पुरखु पूजेहा राम ॥ बहु बिधि पूजा खोजीआ मेरे लाल जीउ इहु मनु तनु सभु अरपेहा राम ॥ मनु तनु धनु सभु प्रभू केरा किआ को पूज चड़ावए ॥ जिसु होइ क्रिपालु दइआलु सुआमी सो प्रभ अंकि समावए ॥ भागु मसतकि होइ जिस कै तिसु गुर नालि सनेहा ॥ जनु कहै नानकु मिलि साधसंगति हरि हरि नामु पूजेहा ॥३॥ {पन्ना 542} पद्अर्थ: कर = हाथ (बहुवचन)। होइ = हो के। पुरखु = सर्व व्यापक। बहुबिधि = कई किसमों की। खोजीआ = मैंने तलाश के देखीं हैं। अरपेहा = भेटा करें। केरा = कां। को = कोई मनुष्य। किआ पूज = कौन सी चीज बतौर भेटा। अंकि = गोद में। समाऐ = लीन हो जाता है। मसतकि = माथे पर। सनेहा = प्यार। मिलि = मिल के। पूजेहा = पूजा करें।3। अर्थ: हे मेरे प्यारे! (कह–) हे संत जनों! (साध-संगत में) एकत्र हो के परमात्मा के आगे दोनों हाथ जोड़ा करो, और, उस नाश रहित सर्व व्यापक परमात्मा की भक्ति किया करो। हे मेरे प्यारे! मैंने और कई किस्मों की पूजा-भेटा तलाश के देखी है (पर, सबसे श्रेष्ठ पूजा ये है कि) अपना ये मन ये शरीर सब भेटा कर देना चाहिए। (फिर भी, गुमान किस बात का?) ये मन, ये शरीर, ये धन सब परमात्मा का दिया हुआ है, (सो,) कोई मनुष्य (अपनी मल्कियत की) कौन सी चीज भेटा कर सकता है? जिस मनुष्य पर प्रभू मालिक कृपाल होता है दयावान होता है वह उस परमात्मा के चरणों में लीन हो जाता है (बस! यही भेटा और पूजा)। जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जाग उठते हैं, उसका अपने गुरू के साथ प्यार बन जाता है। दास नानक कहता है– (हे संत जनों!) साध-संगत में मिल के परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए।3। दह दिस खोजत हम फिरे मेरे लाल जीउ हरि पाइअड़ा घरि आए राम ॥ हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ मेरे लाल जीउ हरि तिसु महि रहिआ समाए राम ॥ सरबे समाणा आपि सुआमी गुरमुखि परगटु होइआ ॥ मिटिआ अधेरा दूखु नाठा अमिउ हरि रसु चोइआ ॥ जहा देखा तहा सुआमी पारब्रहमु सभ ठाए ॥ जनु कहै नानकु सतिगुरि मिलाइआ हरि पाइअड़ा घरि आए ॥४॥१॥ {पन्ना 542} पद्अर्थ: दहदिस = दसों दिशाओं में। पाइअड़ा = पा लिया, ढूँढ लिया। घरि = हृदय घर में। आऐ = आ के। हरि मंदरु = हरी ने अपने रहने के लिए घर। सरबे = सब जीवों में। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। अधेरा = अंधेरा। नाठा = भाग गया। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ठाऐ = जगह। सतिगुरि = गुरू ने।4। अर्थ: हे मेरे प्यारे! (परमात्मा को ढूँढने के लिए) हम दसों दिशाओं में तलाश करते फिरे, पर उस परमात्मा को अब हृदय घर में ही आ के ढूँढ लिया है। हे मेरे प्यारे! (इस मनुष्य शरीर को) परमात्मा ने अपना निवास स्थान बनाया हुआ है, परमात्मा इस (शरीर घर) में टिका रहता है। मालिक प्रभू स्वयं ही सारे जीवों में व्यापक हो रहा है, पर उसके इस अस्तित्व की समझ गुरू की शरण पड़ने से ही आती है। (गुरू जिस मनुष्य के मुँह में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल नाम-रस चोआ देता है, (उसके अंदर से माया के मोह का) अंधकार मिट जाता है, उसका सारा दुख दूर हो जाता है। (गुरू की कृपा से अब) मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मुझे मालिक परमात्मा हर जगह बसता दिखाई देता है। दास नानक कहता है– गुरू ने मुझे परमात्मा मिला दिया है, मैंने परमात्मा को अपने हृदय-घर में ढूँढ लिया है।4।1। रागु बिहागड़ा महला ५ ॥ अति प्रीतम मन मोहना घट सोहना प्रान अधारा राम ॥ सुंदर सोभा लाल गोपाल दइआल की अपर अपारा राम ॥ गोपाल दइआल गोबिंद लालन मिलहु कंत निमाणीआ ॥ नैन तरसन दरस परसन नह नीद रैणि विहाणीआ ॥ गिआन अंजन नाम बिंजन भए सगल सीगारा ॥ नानकु पइअ्मपै संत ज्मपै मेलि कंतु हमारा ॥१॥ {पन्ना 542} पद्अर्थ: अति प्रीतम = बहुत प्यारा लगने वाला। मोहना = मोह लेने वाला। घट सोहना = हरेक घट में सुशोभित है। प्रान अधारा = जिंद का आसरा। अपर अपारा = परे से परे, बेअंत। लालन = हे लाल! कंत = हे कंत! नैन = आँख। दरस परसन = दर्शनों की छूह प्राप्त करने के लिए। रैणि = रात। विहाणीआ = गुजर जाती है। अंजन = सुरमा। बिंजन = व्यंजन, भोजन। सीगारा = श्रृंगार। पइअंपै = चरणों में पड़ता है। जंपै = विनती करता है। कंतु = पति (शब्द ‘कंत’ और ‘कंतु’ में फर्क देखें)।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा बहुत ही प्यारा लगने वाला है, सबके मन को मोह लेने वाला है, सब शरीरों में सुशोभित है, सब के जीवन का सहारा है। उस दया के घर गोपाल प्यारे की सुंदर शोभा (पसर रही) है, बड़ी बेअंत शोभा है। हे दयालु गोबिंद! हे गोपाल! हे प्यारे कंत! मुझ निमाणी को मिल। मेरी आँखें तेरे दर्शनों की छूह (झलक) पाने के लिए तरसती रही हैं। मेरी जिंदगी की रात गुजरती जा रही है, (पर, मुझे तेरे मिलाप से पैदा होने वाली) शांति नहीं मिल रही। जिसको गुरू के बख्शे ज्ञान का सुरमा मिल गया, जिसको (आत्मक जीवन का) भोजन हरी-नाम मिल गया, उसके सारे (आत्मिक) श्रृंगार सफल हो गए। नानक संत जनों की चरण पड़ता है, संत-जनों के आगे अरजोई करता है, कि मुझे मेरा प्रभू-पति मिलाओ।1। लाख उलाहने मोहि हरि जब लगु नह मिलै राम ॥ मिलन कउ करउ उपाव किछु हमारा नह चलै राम ॥ चल चित बित अनित प्रिअ बिनु कवन बिधी न धीजीऐ ॥ खान पान सीगार बिरथे हरि कंत बिनु किउ जीजीऐ ॥ आसा पिआसी रैनि दिनीअरु रहि न सकीऐ इकु तिलै ॥ नानकु पइअ्मपै संत दासी तउ प्रसादि मेरा पिरु मिलै ॥२॥ {पन्ना 542-543} पद्अर्थ: उलाहने = गिले शिकवे। करउ = करूँ। उपाव = कई तरीके (‘उपाउ’, उपाय का बहुवचन)। चल = चंचल। बित = धन। अनित = नित्य ना रहने वाला। कवन बिधि = किस तरह भी। धीरीजै = धैर्य आता। जीजीअै = जीआ जाए। रैनि = रात। दिनीअरु = दिनकर, सूर्य। इकु तिलै = थोड़ा जितना समय भी। संत = हे संत! हे गुरू! तउ प्रसादि = तेरी कृपा से।2। अर्थ: जब तक परमात्मा नहीं मिलता, तब तक (मेरी भूलों के) मुझे लाखों उलाहमें मिलते हैं। मैं परमात्मा को मिलने के लिए अनेकों यतन करती हूँ, पर मेरी कोई पेश नहीं पड़ती। प्यारे प्रभू के मिलाप के बिना किसी तरह भी मन को धैर्य नहीं आता, चिक्त (धन की खातिर) हर वक्त भागा फिरता है, और, धन भी सदा साथ नहीं निभता। सारे खाने-पीने श्रृंगार प्रभू-पति के बिना व्यर्थ हैं, प्रभू-पति के बिना जीवन के कोई मायने नहीं। प्रभू-पति के बिना (दुनियावी) आशाएं (व्याकुल किए रखती हैं) माया की तृष्णा दिन-रात लगी रहती है। रक्ती भर समय के लिए भी जीवात्मा ठहराव में नहीं आती। नानक विनती करता है– हे गुरू! मैं (जीव-स्त्री) तेरी दासी आ बनी हूँ, तेरी कृपा से (ही) मेरा प्रभू पति (मुझे) मिल सकता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |