श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 546 अमिअ सरोवरो पीउ हरि हरि नामा राम ॥ संतह संगि मिलै जपि पूरन कामा राम ॥ सभ काम पूरन दुख बिदीरन हरि निमख मनहु न बीसरै ॥ आनंद अनदिनु सदा साचा सरब गुण जगदीसरै ॥ अगणत ऊच अपार ठाकुर अगम जा को धामा ॥ बिनवंति नानक मेरी इछ पूरन मिले स्रीरंग रामा ॥३॥ {पन्ना 546} पद्अर्थ: अमिअ = (‘अमृत’ से अमिउ’ प्राकृत रूप है) आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल का। सरोवरो = सुंदर सर, पवित्र तालाब। पीउ = पीते रहा करो। संगि = संगति में। मिलै = मिलता है। जपि = जप के। बिदीरन = नाश करने वाला। निमख = आँख झपकने जितना समय। मनहु = मन से। बीसरै = भूलता। अनदिनु = हर रोज। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। जगदीसरै = जगत के मालिक में। अगणत = अनगिनत। अपार = बेअंत। ठाकुर = मालिक। बगम = अपहुँच। जा को = जिस का। धामा = ठिकाना, घर। स्रीरंग = लक्ष्मी पति, परमात्मा।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाले जल का पवित्र तालाब है, (इस में से) पीते रहा करो। (पर ये नाम जल) संत-जनों की संगति में रहने से मिलता है। ये हरी-नाम जप के सारे कार्य सफल हो जाते हैं। हे भाई! जगत के मालिक परमात्मा में सारे ही गुण मौजूद हैं। वह सब जीवों के सारे कारज पूरे करने वाला है, सबके दुख नाश करने वाला है, वह सदा ही कायम रहने वाला है। जिस मनुष्य के मन से वह परमात्मा आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं बिसरता, वह मनुष्य सदा हर वक्त आत्मिक आनंत भोगता है। हे भाई! परमात्मा अनगिनत गुणों वाला है, सबसे ऊँचा और, बेअंत है, सबका मालिक है, उसका ठिकाना (सिर्फ अक्ल-समझदारी के सहारे) अपहुँच है। नानक विनती करता है– (हे भाई!) मुझे लक्ष्मी-पति परमात्मा मिल गया है, मेरी (चिरों की) तमन्ना पूरी हो गई है।3। कई कोटिक जग फला सुणि गावनहारे राम ॥ हरि हरि नामु जपत कुल सगले तारे राम ॥ हरि नामु जपत सोहंत प्राणी ता की महिमा कित गना ॥ हरि बिसरु नाही प्रान पिआरे चितवंति दरसनु सद मना ॥ सुभ दिवस आए गहि कंठि लाए प्रभ ऊच अगम अपारे ॥ बिनवंति नानक सफलु सभु किछु प्रभ मिले अति पिआरे ॥४॥३॥६॥ {पन्ना 546} पद्अर्थ: कोटिक = करोड़ों। सुणि = सन के। जपत = जपते हुए। सगले = सारे। सोहंत = सुहाने जीवन वाले बन जाते हैं। ता की = उनकी। महिमा = उपमा, वडिआई। कित = कितनी? गना = मैं गिनूँ? सद = सदा। सुभ = भले, भाग्यशाली। दिवस = दिन। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से।4। अर्थ: परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाने वाले मनुष्य परमात्मा का नाम सुन-सुन के कई करोड़ यज्ञों का फल प्राप्त कर लेते हैं, (भाव, करोड़ों किए हुए यज्ञ भी हरी-नाम के मुकाबले में तुच्छ हैं)। परमात्मा का नाम जपते हुए (जपने वाले मनुष्य) अपनी सारी कुलें भी पार लंघा लेते हैं। परमात्मा का नाम जपते-जपते मनुष्य सोहणे जीवन वाले बन जाते हैं, उन (के आत्मिक जीवन) की महिमा कितनी मैं बताऊँ? वे सदा अपने मनों में परमात्मा के दर्शन की तमन्ना रखते हैं (और, अरदासें करते रहते हैं–) हे प्राण प्यारे! (हमारे मन से कभी) ना बिसर! सबसे ऊँचा अपहुँच और बेअंत प्रभू (जिन भाग्यशालियों को) पकड़ के अपने गले से लगा लेता है उन (की जिंदगी के) भाग्यशाली दिन आ जाते हैं। नानक विनती करता है– (हे भाई!) जिन मनुष्यों को बहुत प्यारा परमात्मा मिल जाता है उन (के जीवन) का हरेक कारज सफल हो जाता है।4।3।6। बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ अन काए रातड़िआ वाट दुहेली राम ॥ पाप कमावदिआ तेरा कोइ न बेली राम ॥ कोए न बेली होइ तेरा सदा पछोतावहे ॥ गुन गुपाल न जपहि रसना फिरि कदहु से दिह आवहे ॥ तरवर विछुंने नह पात जुड़ते जम मगि गउनु इकेली ॥ बिनवंत नानक बिनु नाम हरि के सदा फिरत दुहेली ॥१॥ पद्अर्थ: अनक = अणक, तुच्छ, बहुत छोटी। अनकाऐ = तुच्छ पदार्थों में। रातड़िआ = हे रते हुए! मस्त होए हुए। वाट = (जीवन का) रास्ता। दुहेली = दुखों भरी। कमावदिआ = हे कमाने वाले! बेली = साथी। पछोतावहे = तू पछताता रहेगा। न जपहि = तू नहीं जपता। रसना = जीभ (से)। से दिह = ये दिन (बहुवचन)। आवहे = आएंगे। पात = पत्र। तरवर = वृक्ष। मगि = रास्ते पर। गउनु = गमन, चाल।7। अर्थ: हे तुच्छ पदार्थों (के मोह) में रते हुए मनुष्य! (इस मोह के कारण) तेरा जीवन-पथ दुखों से भरता जा रहा है। हे पाप कमाने वाले! तेरा कोई भी (सदा के लिए) साथी नहीं। (किए पापों की सजा में भागीदारी के लिए) तेरा कोई भी साथी नहीं बनेगा, तू सदा हाथ मलता रह जाएगा। तू अपनी जीभ से सुष्टि के मालिक प्रभू के गुण नहीं जपता, जिंदगी के ये दिन फिर कभी वापिस नहीं आएंगे (जैसे) वृक्षों से बिछुड़े हुए पत्ते (दुबारा पेड़ों से) नहीं जुड़ सकते। (किए पापों के कारण मनुष्य के प्राण) आत्मिक मौत के रास्ते पर अकेले ही चलते जाते हैं। नानक विनती करता है– परमात्मा का नाम सिमरे बिना मनुष्य के प्राण हमेशा दुखों से घिरे हुए भटकते रहते हैं।1। तूं वलवंच लूकि करहि सभ जाणै जाणी राम ॥ लेखा धरम भइआ तिल पीड़े घाणी राम ॥ किरत कमाणे दुख सहु पराणी अनिक जोनि भ्रमाइआ ॥ महा मोहनी संगि राता रतन जनमु गवाइआ ॥ इकसु हरि के नाम बाझहु आन काज सिआणी ॥ बिनवंत नानक लेखु लिखिआ भरमि मोहि लुभाणी ॥२॥ {पन्ना 546} पद्अर्थ: वलवंच = बल छल, छल कपट। लूकि = छुप के। जाणी = अंतजामी प्रभू। तिल घाणी = तिलों की घाणी (की तरह)। पीढ़े = कोल्हू में पीढ़े जाते हैं। किरत = किए हुए। कमाणे = कमाए हुए। पराणी = हे प्राणी! संगि = साथ। राता = मस्त। आन रस = और कामों में। भरमि = भटकना में। मोहि = मोह में। लुभाणी = फसी हुई।2। अर्थ: (हे प्राणी!) तू (लोगों से) छुप-छुप के छल-कपट करता रहता है, पर अंतजामी परमात्मा तेरी हरेक करतूत को जानता है। जब धर्मराज का हिसाब होता है तो (बुरे कर्म करने वाले इस तरह) पीढ़े जाते हैं जैसे तिल (घाणी में) पीढ़ा जाता है। हे प्राणी! अपने किए कमाए कर्मों के अनुसार तू भी दुख बर्दाश्त कर। (मंद-कर्मी जीव) को अनेकों जूनियों में घुमाया जाता है। जो मनुष्य सदा इस बड़ी मोह लेने वाली माया के साथ ही मस्त रहता है वह श्रेष्ठ मानस जनम गवा लेता है। नानक विनती करता है– (हे जीवात्मा!) एक परमात्मा के नाम के बगैर तू अन्य सारे कामों में समझदार (बनी फिरती है। तेरे माथे पर माया के मोह का ही) लेख लिखा जा रहा है (तभी तो तू) माया की भटकना में माया के मोह में फसी रहती है।2। बीचु न कोइ करे अक्रितघणु विछुड़ि पइआ ॥ आए खरे कठिन जमकंकरि पकड़ि लइआ ॥ पकड़े चलाइआ अपणा कमाइआ महा मोहनी रातिआ ॥ गुन गोविंद गुरमुखि न जपिआ तपत थम्ह गलि लातिआ ॥ काम क्रोधि अहंकारि मूठा खोइ गिआनु पछुतापिआ ॥ बिनवंत नानक संजोगि भूला हरि जापु रसन न जापिआ ॥३॥ {पन्ना 546} पद्अर्थ: बीचु = बिचोलापन। अक्रितघणु = (कृतघ्न) की हुई भलाई को ना जानने वाला, बेशुक्रा। खरे = बहुत। कठिन = निर्दयी । जम कंकरि = जम कंकर ने, जम दूत ने (एक वचन)। चलाइआ = आगे लगा लिया। रातिआ = रता हुआ, मस्त। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। गलि = गले से। काम क्रोध = काम में क्रोध में। अहंकारि = अहंकार में। मूठा = ठॅगा हुआ। संजोगि = (कामादिक विकारों के) संयोग के कारण। भूला = कुमार्ग पर पड़ा रहा। रसन = जीभ (से)।3। अर्थ: परमात्मा के किए हुए उपकारों को ना जानने वाला मनुष्य परमात्मा के चरणों से विछुड़ा रहता है (प्रभू से दुबारा मिलने के लिए) कोई (उसका) विचोला नहीं बनता। (उसकी सारी उम्र इसी तमन्ना में निकल जाती है, आखिर) बड़ा निर्दयी जम-दूत उसे आकर पकड़ लेता है। (जम-दूत उसे) पकड़ के आगे लगा लेता है, सारी उम्र खासी तगड़ी (ताकतवर) माया में मस्त रहने के कारण वह अपना किया पाता है। गुरू की शरण पड़ के वह परमात्मा के गुण कभी याद नहीं करता (उसकी सारी उम्र विकारों की तपश में यूँ बीतती है, जैसे) जलते-तपते स्तम्भों के गले से उसे लगाया गया है। काम में, क्रोध में, अहंकार में (फंसे रह के वह) अपना आत्मि्क जीवन लुटा बैठता है, आत्मिक जीवन की सूझ गवा के (आखिर) हाथ मलता है नानक विनती करता है–कामादिक विकारों के संजोग के कारण (सारी उम्र मनुष्य) गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, कभी अपनी जीभ से परमात्मा का नाम नहीं जपता।3। (नोट- भूत काल को वर्तमान काल में बर्थाया गया है) तुझ बिनु को नाही प्रभ राखनहारा राम ॥ पतित उधारण हरि बिरदु तुमारा राम ॥ पतित उधारन सरनि सुआमी क्रिपा निधि दइआला ॥ अंध कूप ते उधरु करते सगल घट प्रतिपाला ॥ सरनि तेरी कटि महा बेड़ी इकु नामु देहि अधारा ॥ बिनवंत नानक कर देइ राखहु गोबिंद दीन दइआरा ॥४॥ {पन्ना 546} पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। बिरदु = आदि कुदरती स्वभाव। उधारण = (विकारों में) डूबे हुओं को बचाना। क्रिपानिधि = हे कृपा के खजाने! दइआला = हे दया के घर! अंध कूप = अंधा कूँआं। ते = से। उधरु = (बाहर) निकाल ले, उद्धार। करते = हे करतार! अधारा = आसरा। कर = हाथ (बहुवचन)। देइ = दे कर। दीन दइआरा = दीनों पर दया करने वाले!।4। अर्थ: हे प्रभू! तेरे बिना (विकारों की तपश से) बचा सकने वाला और कोई नहीं है, विकारों में गिरे हुओं को (विकारों में डूबने से) बचाना तेरा बिरद है। हे विकारों में गिरे हुओं को (डूबने से) बचाने वाले! हे स्वामी! हे कृपा के खजाने! हे दया के घर! हे करतार! हे सारे शरीरों की पालना करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझे (माया के मोह के) अंधे कूएं (में डूबने) से बचा ले। नानक विनती करता है– हे गोविंद! हे दीनों पर दया करने वाले! मैं तेरी शरण आया हूँ; मेरी (माया के मोह की) करड़ी बेड़ी काट दे, मुझे अपना नाम-आसरा बख्श, अपना हाथ दे के मुझे (माया में डूबने से) बचा ले।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |