श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 547 सो दिनु सफलु गणिआ हरि प्रभू मिलाइआ राम ॥ सभि सुख परगटिआ दुख दूरि पराइआ राम ॥ सुख सहज अनद बिनोद सद ही गुन गुपाल नित गाईऐ ॥ भजु साधसंगे मिले रंगे बहुड़ि जोनि न धाईऐ ॥ गहि कंठि लाए सहजि सुभाए आदि अंकुरु आइआ ॥ बिनवंत नानक आपि मिलिआ बहुड़ि कतहू न जाइआ ॥५॥४॥७॥ {पन्ना 547} पद्अर्थ: सफलु = कामयाब, भाग्यशाली। गणिआ = समझना चाहिए। सभि = सारे। दूरि पराइआ = दूर जा पड़ते हैं। सहज = आत्मिक अडोलता। बिनोद = खुशियां। गाईअै = मिल जुल के गाएं। भजु = भजन कर, याद कर। साध संगे = साध-संगत में। मिले = मिल के। रंगे = रंगि, प्रेम से। बहुड़ि = दुबारा। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्रेम में। आदि = आरम्भ का। अंकुरु = अंगूर। कतहू = कहीं भी।5। अर्थ: हे भाई! वह दिन भाग्यशाली समझना चाहिए जब हरी-प्रभू (गुरू के) मिलाने से (मिल जाता है)। (हृदय में) सारे सुख प्रगट हो जाते हैं, और, सारे दुख दूर जा पड़ते हैं। हे भाई! आओ, जगत-पाल प्रभू के गुण नित्य गाते रहें (सिफत सालाह की बरकति से हृदय में) सदा ही आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं, खुशियां बनी रहती हैं। हे भाई! गुरू की संगति में प्रेम से मिल के परमात्मा का भजन किया कर (भजन की बरकति से) दोबारा जोनियों में पड़ना पड़ता, परमात्मा (बाँह से) पकड़ के अपने गले से लगा लेता है, आत्मिक अडोलता में प्रेम में (लीन कर देता है। हृदय में भक्ति का) आदि अंकुर फूट पड़ता है। नानक विनती करता है– (हे भाई! साध-संगति में मिलने से) प्रभू स्वयं आ मिलता है, फिर (उसका दर छोड़ के) कहीं और भटकने की जरूरत नहीं रह जाती।5।4।7। बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ सुनहु बेनंतीआ सुआमी मेरे राम ॥ कोटि अप्राध भरे भी तेरे चेरे राम ॥ दुख हरन किरपा करन मोहन कलि कलेसह भंजना ॥ सरनि तेरी रखि लेहु मेरी सरब मै निरंजना ॥ सुनत पेखत संगि सभ कै प्रभ नेरहू ते नेरे ॥ अरदासि नानक सुनि सुआमी रखि लेहु घर के चेरे ॥१॥ {पन्ना 547} पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। चेरे = सेवक। मोहन = हे मन को आकर्षित करने वाले! कलि = झगड़े। भजना = नाश करने वाले। सरब मै = हे सर्व व्यापक! निरंजना = हे निर्लिप! प्रभ = हे प्रभू! ।1। अर्थ: हे मेरे मालिक! मेरी विनती सुन। (हम जीव) करोड़ों पापों से लिबड़े हुए हैं, पर फिर भी तेरे (दर के) दास हैं। हे दुखों का नाश करने वाले! हे कृपा करने वाले! हे मोहन! हे हमारे दुख-कलेश दूर करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे निर्लिप प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी लाज रख ले। हे प्रभू! तू हमारे अति नजदीक बसता है, तू सब जीवों के अंग-संग रहता है, तू सब जीवों की अरदासें सुनता है, तू सब जीवों के किए काम देखता है। हे मेरे स्वामी! नानक की विनती सुन। मैं तेरे घर का गुलाम हूँ, मेरी इज्जत रख ले।1। तू समरथु सदा हम दीन भेखारी राम ॥ माइआ मोहि मगनु कढि लेहु मुरारी राम ॥ लोभि मोहि बिकारि बाधिओ अनिक दोख कमावने ॥ अलिपत बंधन रहत करता कीआ अपना पावने ॥ करि अनुग्रहु पतित पावन बहु जोनि भ्रमते हारी ॥ बिनवंति नानक दासु हरि का प्रभ जीअ प्रान अधारी ॥२॥ {पन्ना 547} पद्अर्थ: समरथु = सब ताकतों का मालिक। दीन = कंगाल। भेखारी = मंगते। मोहि = मोह में। मगनु = डूबा हुआ, मस्त। मुरारी = हे मुरारी! हे प्रभू! लोभि = लोभ में। बाधिओ = बँधा हुआ। दोख = पाप। अलिपत = निर्लिप। करता = करतार। अनुग्रहु = दया। पतित पावन = हे विकारियों को पवित्र करने वाले! भ्रमते = भटकते। हारी = थक गई। जीअ अधारी = जीवात्मा का आसरा।2। अर्थ: हे प्रभू! तू सब ताकतों का मालिक है, हम (तेरे दर पर) निमाणे से मंगते हैं। हे मुरारी! मैं माया के मोह में डूबा रहता हूँ, मुझे (मोह में से) निकाल ले। मैं लोभ में, मोह में, विकार में बँधा रहता हूँ। हे प्रभू! हम जीव अनेकों पाप कमाते रहते हैं। (हे भाई!) एक करतार ही निर्लिप रहता है, और बँधनों से आजाद है, हम जीव तो अपने किए कर्मों का फल भुगतते रहते हैं। हे विकारियों को पवित्र करने वाले प्रभू! मेहर कर, अनेकों जूनियों में भटक-भटक के (मेरी आत्मा) थक गई है। (हे भाई!) नानक विनती करता है– नानक उस हरी का उस प्रभू का दास है जो (सब जीवों की) जिंद का प्राणों का आसरा है।2। तू समरथु वडा मेरी मति थोरी राम ॥ पालहि अकिरतघना पूरन द्रिसटि तेरी राम ॥ अगाधि बोधि अपार करते मोहि नीचु कछू न जाना ॥ रतनु तिआगि संग्रहन कउडी पसू नीचु इआना ॥ तिआगि चलती महा चंचलि दोख करि करि जोरी ॥ नानक सरनि समरथ सुआमी पैज राखहु मोरी ॥३॥ {पन्ना 547} पद्अर्थ: पालहि = तू पालता है। अकिरतघन = की हुई भलाई को भुला देने वाले, ना शुकरे। पूरन = सदा एक सार। द्रिसटि = निगाह, नजर। अगाधि बोधि = मानवी समझ से परे अथाह। करते = हे करतार! मोहि = मैं। तिआगि = त्याग के। संग्रहन = एकत्र करना। चंचलि = चुलबुले मन वाली। दोख = पाप। जोरी = जोड़ीए इकट्ठी की। पैज = लाज, इज्जत। मोरी = मेरी। समरथ = हे समर्थ! अर्थ: हे राम! तू बड़ी ताकत वाला है, मेरी मति तो छोटी सी है (तेरे बड़प्पन को समझ नहीं सकती)। हे प्रभू! तेरी निगाह सदा एक सार है तू अकृतघनों ना-शुक्रों को भी पालता रहता है। हे करतार! हे बेअंत प्रभू! तू जीवों की समझ से परे व अथाह है, मैं नीच जीवन वाला (तेरे बारे में) कुछ भी नहीं जान सकता। हे प्रभू! तेरा कीमती नाम छोड़ के मैं कौड़ियां इकट्ठी करता रहता हूँ, मैं पशु-स्वभाव वाला हूँ, नीच हूँ, अंजान हूँ। मैं पाप कर-कर के (उस माया को ही) जोड़ता रहा जो कभी टिक के नहीं बैठती, जो जीवों का साथ छोड़ जाती है। हे नानक! (कह–) हे सब ताकतों के मालिक मेरे स्वामी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी लाज रख ले।3। जा ते वीछुड़िआ तिनि आपि मिलाइआ राम ॥ साधू संगमे हरि गुण गाइआ राम ॥ गुण गाइ गोविद सदा नीके कलिआण मै परगट भए ॥ सेजा सुहावी संगि प्रभ कै आपणे प्रभ करि लए ॥ छोडि चिंत अचिंत होए बहुड़ि दूखु न पाइआ ॥ नानक दरसनु पेखि जीवे गोविंद गुण निधि गाइआ ॥४॥५॥८॥ {पन्ना 547} पद्अर्थ: जा ते = जिस (परमात्मा) से। तिनि = उस (परमात्मा) ने। संगमे = संगम, मिलाप में, संगत में। नीके = अच्छे, सुंदर। कलिआणमै = आनंद स्वरूप परमात्मा। सेजा = हृदय सेज। सुहावी = सोहणी, सुहानी। कै संगि = के साथ। अचिंत = बेफिक्र। पेखि = देख के। गुणनिधि = गुणों का खजाना।4। अर्थ: गुणों की संगति में आ के (जिस मनुष्य ने) परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाने आरम्भ कर दिए (उस मनुष्य को) उस परमात्मा ने खुद अपने चरणों में जोड़ लिया जिससे (वह चिरों से) विछुड़ा चला आ रहा था। परमात्मा की सिफत सालाह के गीत सदा गाने की बरकति से आनंदमयी परमात्मा (हृदय में) प्रकट हो जाता है। (जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू प्रकट होता है) प्रभू की संगति से उसकी हृदय-सेज आनंद-भरपूर हो जाती है, प्रभू उसको अपना (सेवक) बना लेता है। हे नानक! (कह–) जो मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाते हैं वह (अपने अंदर) परमात्मा का दर्शन करके आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं, वह दुनियावी चिंता-फिक्र त्याग के शांत-चिक्त हो जाते हैं, उनको दोबारा कोई दुख छू नहीं सकता।4।5।8। बिहागड़ा महला ५ छंत ॥ बोलि सुधरमीड़िआ मोनि कत धारी राम ॥ तू नेत्री देखि चलिआ माइआ बिउहारी राम ॥ संगि तेरै कछु न चालै बिना गोबिंद नामा ॥ देस वेस सुवरन रूपा सगल ऊणे कामा ॥ पुत्र कलत्र न संगि सोभा हसत घोरि विकारी ॥ बिनवंत नानक बिनु साधसंगम सभ मिथिआ संसारी ॥१॥ {पन्ना 547} पद्अर्थ: सुधरमीड़िआ = हे सुधर्मी! हे श्रेष्ठ धर्म वाले! हे (सारी जूनियों में से) उक्तम फर्ज वाले! कत = क्यूँ? नेत्री देखि = आँखों से देख। बिउहारी = व्यवहार करने वाला। संगि = साथ। वेस = कपड़े। सुवरन = सोना। रूपा = चांदी। ऊणे = खाली, व्यर्थ। कलत्र = स्त्री। हसत घोरि = हाथी घोड़े। विकारी = विकारों की तरफ ले जाने वाले। मिथिआ = नाशवंत। संसारी = संसार के उद्यम।1। अर्थ: हे (सारी) जूनियों में से (उक्तम फर्ज वाले, धर्म वाले!) परमात्मा के सिफत सालाह के बोल बोला कर। (सिफत सालाह से) तूने क्यूँ चुप धारण की हुई है? अपनी आँखों से (ध्यान से) देख; (निरी) माया का व्यवहार करने वाला (यहाँ से खाली हाथ) चला जाता है। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना और कोई चीज तेरे साथ नहीं जा सकती। देशों (की हकूमतें), कपड़े सोना, चाँदी (-इनकी खातिर किए हुए) सारे उद्यम व्यर्थ हो जाते हैं। हे भाई! पुत्र, स्त्री, दुनियावी मान-सम्मान- कुछ भी मनुष्य के साथ नहीं जाता। हाथी घोड़े आदि की लालसाएं भी विकारों की ओर ले जाती हैं। नानक विनती करता है– साध-संगत के बिना दुनिया के सारे उद्यम नाशवान हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |