श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 548 राजन किउ सोइआ तू नीद भरे जागत कत नाही राम ॥ माइआ झूठु रुदनु केते बिललाही राम ॥ बिललाहि केते महा मोहन बिनु नाम हरि के सुखु नही ॥ सहस सिआणप उपाव थाके जह भावत तह जाही ॥ आदि अंते मधि पूरन सरबत्र घटि घटि आही ॥ बिनवंत नानक जिन साधसंगमु से पति सेती घरि जाही ॥२॥ {पन्ना 548} पद्अर्थ: राजन = हे धरती के सरदार! भरे = भर के। नीद भरे = गाढ़ी नींद में। कत = क्यूँ? रुदनु = विलाप, तरला। केते = कितने ही, बेअंत जीव। बिललाही = विलकते हैं। महा मोहन = बहुत ही मन मोहनी माया की खातिर। सहस = हजारों। उपाव = (शब्द ‘उपाउ’ का बहुवचन)। भावत = (प्रभू को) अच्छा लगता है। जाही = जाते हैं। आदि अंते मधि = आरम्भ में आखिरी समय में और बीच में, सदा ही। पूरन = व्यापक। सरबत्र = हर जगह। घटि घटि = हरेक शरीर में। आही = है। संगमु = मिलाप। साध संगमु = गुरू का मिलाप। पति = इज्जत। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभू चरणों में।2। अर्थ: हे धरती के सरदार, मनुष्य! तू क्यूँ माया के मोह की गाढ़ी नींद में सो रहा है? तू क्यों सचेत नहीं होता? इस माया की खातिर अनेकों ही मनुष्य झूठा रोना-धोना करते आ रहे हैं, विलकते आ रहे हैं। बेअंत प्राणी इस खासी मन-मोहनी माया की खातिर तरले लेते आ रहे हैं (कि माया मिले और माया से सुख मिले, पर) परमात्मा के नाम के बिना सुख (किसी को) नहीं मिला। जीव हजारों चतुराईयाँ हजारों वसीले करते थक जाते हैं (माया के मोह में से खलासी भी नहीं होती। हो भी कैसे?) जिधर परमात्मा की मर्जी होती है उधर ही जीव जा सकते हैं। वह परमात्मा सदा के लिए ही सर्व-व्यापक है, हर जगह मौजूद है, हरेक शरीर में है। नानक विनती करता है– जिन मनुष्यों को गुरू का मिलाप प्राप्त होता है वह (यहाँ से) इज्जत से परमात्मा की हजूरी में जाते हैं।2। नरपति जाणि ग्रहिओ सेवक सिआणे राम ॥ सरपर वीछुड़णा मोहे पछुताणे राम ॥ हरिचंदउरी देखि भूला कहा असथिति पाईऐ ॥ बिनु नाम हरि के आन रचना अहिला जनमु गवाईऐ ॥ हउ हउ करत न त्रिसन बूझै नह कांम पूरन गिआने ॥ बिनवंति नानक बिनु नाम हरि के केतिआ पछुताने ॥३॥ {पन्ना 548} पद्अर्थ: नरपति = राजा। जाणि = जान के, समझ के। ग्रहिओ = (मोह में) फस जाता है। सरपर = जरूर। मोहे = (जो) मोह में फंसते हैं। हरिचंदउरी = हरीचंद की नगरी, गंधर्व नगरी, आकाश में काल्पनिक नगरी। देखि = देख के। असथिति = स्थित, पक्का ठिकाना। कहा = कहाँ? कहीं भी नहीं। आन = अन्य, और। अहिला = आला, उक्तम। गवाईअै = गवा लेते हैं। हउ हउ = मैं (बड़ा बन जाऊँ), मैं (बड़ा बन जाऊँ)। कांम = मानस जनम का उद्देश्य। गिआन = ज्ञान, आत्मिक जीवन की समझ। केतिआ = अनेकों ही।3। अर्थ: (अगर कोई मनुष्य) राजा (बन जाता है, तो वह) अपने सेवकों को (अपने) जान के (राज के मोह में) फस जाता है। (पर दुनिया के सारे पदार्थों से) जरूर विछुड़ जाना है, (जो मनुष्य दुनियावी मोह में) फंसते हैं, वह आखिर हाथ मलते रह जाते हैं। मनुष्य आकाश के काल्पनिक शहर हरीचंदौरी जैसे जगत को देख के गलत राह पर पड़ जाता है, पर यहाँ कहीं भी सदा का ठिकाना नहीं मिल सकता। परमात्मा के नाम से टूट के, जगत-रचना के और ही पदार्थों में फंस के श्रेष्ठ मानस जन्म को गवा लेता है।3। “मैं (बड़ा बन जाऊँ), मैं (बड़ा बन जाऊँ)” - ये करते करते माया की तृष्णा खत्म नहीं होती, मानस जन्म का उद्देश्य हासिल नहीं हो सकता, आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। नानक विनती करता है– परमात्मा के नाम से टूट के अनेकों जीव हाथ मलते जाते हैं।3। धारि अनुग्रहो अपना करि लीना राम ॥ भुजा गहि काढि लीओ साधू संगु दीना राम ॥ साधसंगमि हरि अराधे सगल कलमल दुख जले ॥ महा धरम सुदान किरिआ संगि तेरै से चले ॥ रसना अराधै एकु सुआमी हरि नामि मनु तनु भीना ॥ नानक जिस नो हरि मिलाए सो सरब गुण परबीना ॥४॥६॥९॥ {पन्ना 548} पद्अर्थ: अनुग्रहो = अनुग्रह, दया। भुजा = बाँह। गहि = पकड़ के। साध संगु = गुरू का मिलाप। संगमि = संगत में। कलमल = पाप। महा धरम = नाम धर्म। दान किरिआ = नाम दान की क्रिया। से = यही (बहुवचन)। रसना = जीभ (से)। भीना = भीग जाता है। नामि = नाम से। परबीना = प्रवीण।4। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) परमात्मा दया करके अपना बना लेता है उसको गुरू का मिलाप बख्शता है, उसे बाँह से पकड़ के (मोह के कूँए में से) निकाल लेता है। जो मनुष्य गुरू की संगत में टिक के परमात्मा का नाम सिमरता रहता है उसके सारे पाप सारे दुख जल जाते हैं। हे भाई! सबसे बड़ा धर्म नाम जपने का धर्म, और सबसे बड़ा दान- नाम दान - यही काम (जगत से) तेरे साथ जा सकते हैं। हे नानक! (कह–) जो मनुष्य अपनी जीभ से एक मालिक प्रभू की आराधना करता रहता है उसका मन उसका हृदय परमात्मा के नाम-जल में तरो-तर हुआ रहता है। जिस मनुष्य को परमात्मा अपने चरणों में जोड़ लेता है वह सारे गुणों में प्रवीण हो जाता है।4।6।9। घरु २ के छंद---------------6 नोट: इस जोड़ में महला ४ के छंद शामिल नहीं हैं। कुल जोड़ है 15। बिहागड़े की वार महला ४ वार का भाव पौड़ी वार जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर की नजर करता है, उसको अपनी सिफत सालाह में जोड़ता है और विकारों में ख्वार होने से बचाता है। जिस मनुष्य को प्रभू के सिफत सालाह की दाति मिलती है, उसे कोई भी दुनियावी भूख नहीं रह जाती, इस वास्ते उसे हर जगह शोभा मिलती है। जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह करता है, उसका मन सदा पुल्कित व आनंदमयी रहता है। कोई और उसकी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि जिस प्रभू की वह बंदगी करता है उसका कोई शरीका नहीं है और बंदगी करने वाला प्रभू का ही रूप हो जाता है। सिमरन करने वाले मनुष्य को कोई चिंता नहीं सताती क्योंकि सत्संगियों के साथ मिल के प्रभू के गुणों की विचार करने से मन खिला रहता है, सब दुनियावी तृष्णाएं उतर जाती हैं और बंधन टूट जाते हैं। जगत के सारे चोज-तमाशे परमात्मा स्वयं ही कर रहा है, जिस तरफ चाहता है जीवों को लगाता है; ये भी उसी का एक खेल है कि उसकी सिफत सालाह वही मनुष्य करता है जिस पर सतिगुरू की कृपा हो। ये भी परमात्मा का ही तमाशा है कि कई जीव सारा ही समय रोटी की दौड़-भाग में ही खर्च कर देते हैं; पर जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको उस प्रभू की ‘रजा’ प्यारी लगती है। जिस सर्व-कला समर्थ प्रभू ने ये जगत रचा है और रचने के वक्त उसे किसी की सलाह की भी जरूरत नहीं पड़ी, उसी ने ही जीवों के वास्ते ये जुगति बनाई है कि जीव गुरू की शरण पड़ के उसकी बंदगी में लगें। कई मनुष्य धर्म-पुस्तकों पर चर्चा व पाप-पुंन के विचारों में ही उलझे रहते हैं पर जिन पर प्रभू खास मेहर करता है वे ऐसी चर्चा से निराले रह के अकॅथ प्रभू की सिफत सालाह में लगते हैं। ये जगत, जैसे, एक समुंद्र है (जिसमें माया-जल की प्रबल लहरें चल रही हैं), जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर करता है, उसको सतिगुरू मिलाता है, जिसके बताए राह पर चल के मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह के रत्न ढूँढ के, इस समुंद्र से सही सलामत पार होता है। जैसे पारस को छूने से हरेक धातु सोना बन जाती है, वैसे ही जो मनुष्य गुरू के चरणों से जुड़ता है, परमात्मा की सिफत सालाह की बरकति से उसके सारे पाप नाश हो के वह शुद्ध-स्वरूप हो जाता है। गुरू, मानो, शिक्षक है और उसकी संगति पाठशाला। जैसे पाठशाला में पढ़ने आए अंजान बालकों को शिक्षक प्यार से पढ़ा के समझदार बना देता है, वैसे ही सतिगुरू भी माता-पिता की तरह प्यार से शरण आए सिखों को इतना समझदार बना देता है कि वे प्रभू के चरणों में जुड़ के माया की मार से बच जाते हैं। कई मनुष्य प्रभू के बनाए हुए शिव आदि देवताओं को पूज रहे हैं, कोई शास्त्रों को पढ़ के चर्चा शास्त्रार्थ में समय गवा रहे हैं, कोई जोगी सन्यासी बन के बाहर जंगलों में परमात्मा को ढूँढ रहे हैं, पर परिपक्व व समझदार वे हैं जो सतिगुरू की शरण में आ के अंदर बसते प्रभू की याद में जुड़ते हैं। प्रभू की दरगाह का न्याय अभॅुल है, उसके दर पर भेद-भाव नहीं है, वहाँ ‘वर्णों’ का बटवारा नहीं है, किसी भी कुल में पैदा हुआ हो, जो भी मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के सिमरन करता है, उसके अंदर से ऊँची-नीची जाति व मेर-तेर वाले भेद-भाव दूर हो जाते हैं। कई लोग अढ़सठ तीर्थों पर जाकर स्नान करते हैं, कई अनेकों जुगतियाँ इस्तेमाल करते हैं और दान-पुंन करते हैं, पर, प्रभू की हजूरी में आदर उस मनुष्य को मिलता है जो गुरू के सन्मुख रह के नाम जपता है, नाम की बरकति से विकारों से बच के उस मनुष्य की इज्जत बनी रहती है। जगत, मानो, एक बाग़ है जिसमें सारे जीव एक बाग़ के पौधे हैं, परमात्मा स्वयं इन पौधों को लगाने वाला है, वह स्वयं ही इनकी रक्षा करने वाला है, पर उस माली की वडिआई ये है कि उसे रक्ती भर भी कोई तमा नहीं है। परमात्मा को कोई तमा अथवा किसी जीव की कोई मुथाजी होए भी कैसे? ये सारे जीव उसीके अपने ही बनाए हुए हैं और उसी का दिया खाते हैं। परमात्मा की सिफत सालाह करने से जीव को ही लाभ मिलता है कि एक तो ये जगह-जगह की मुथाजी करने से हट जाते हैं, दूसरे, इसके मन में से मेर-तेर मिट जाती है। प्रसन्न हो के प्रभू, जिस मनुष्य को गुरू मिलाता है, उसको सिमरन में जोड़ता है, जिसकी बरकति से वह विकारों से बच के इज्जत से जीवन जीता है और जनम-मरन के चक्कर में नहीं आता। प्रभू, मानो, एक गहरा समुंद्र है, वह कितना बड़ा है– ये बात वह खुद ही जानता है। माया की रचना रच के प्रभू इस माया से अलग निर्लिप भी है। इस रचना से पहले वह किस स्वरूप में था- ये बात भी वह खुद ही जानता है। परमात्मा की महिमा बयान नहीं की जा सकती, उसने रंग-विरंगी ये ऐसी रचना रची है कि अहंकार के सहारे हरेक जीव यहाँ अपने आप को समझदार व चतुर समझता है। अपनी-अपनी धुनि में मस्त कोई तो मोहधारी बना बैठा है और कोई औरों को उपदेश कर रहा है, हरेक को अपनी-अपनी समझ प्यारी लगती है। पर, जगत में असल कमाई तो वही मनुष्य करते हैं जो ‘नाम’ सिमरते हैं। ‘नाम’ उन्हें ऐसी आत्मिक खुराक मिल गई है कि दुनियावी अन्य सभी पदार्थों की ओर से वह तृप्त रहते हैं, वही संत हैं और प्रभू को प्यारे लगते हैं। ये दिखाई देता जगत प्रभू ने अपने ही निर्गुण स्वरूप से रचा है, रंग-विरंगे जीव रचे हैं, यहाँ कोई त्यागी कहलवाता है, कोई गृहस्ती, सबका सहारा प्रभू स्वयं ही है, उसके दर से गरीबी व संतों की संगति की ख़ैर ही माँगनी चाहिए। संपूर्ण भाव: जिस मनुष्य पर प्रभू की सीधी नजर होती है, उसको सिफत सालाह की दाति मिलती है, जिसकी बरकति से वह विकारों से बचता है और जग में शोभा कमाता है, उसकी दुनियावी कोई भूख नहीं रह जाती, उसका मन सदा खिला रहता है और कोई तौखला उसे सता नहीं सकता, क्योंकि उसके मायावी सारे बँधन टूट जाते हैं (पउड़ी १ से ४)। पर, सिफत सालाह की यह दाति सतिगुरू के द्वारा ही मिलती है, ये जुगति परमात्मा ने खुद ही जीवों के भले के लिए बनाई है, और जो मनुष्य इस जुगती का इस्तेमाल करता है, उसको दुनियावी दौड़-भाग की जगह प्रभू की रजा प्यारी लगने लग जाती है। जगत, मानो, एक समुंद्र है जिसमें मायावी विकारों की भयंकर लहरों के थपेड़े पड़ रहे हैं, धार्मिक चर्चा अथवा पाप-पुंन की कोरी विचारें इन लहरों में बह जाने से नहीं बचा सकती, यहाँ तो गुरू की शरण पड़ कर सिफत सालाह के रत्न तलाशने हैं। जैसे पारस हरेक धातु को सोना बना देता है; जैसे शिक्षक अंजान बच्चों को विद्या पढ़ा के समझदार बना देता है, वैसे सतिगुरू भी सिख के मन को, मानो, शुद्ध सोना बना देता है, इतनी ऊूंची समझ बख्शता है कि सिख माया की मार से बच जाता है। फिर भी, लोग गलतियाँ किए जा रहे हैं, कोई देवी-देवताओं की पूजा में लगा पड़ा है, कोई शास्त्रार्थ में मस्त है, कोई जंगलों में ईश्वर को खोज रहा है, कोई जाति और वर्ण बना बना के भेद-भाव बढ़ा रहा है, कोई तीर्थों पर स्नान-दान-पुंन करता फिरता है। पर, सुघड़ समझदार वे हैं जो काम-काज करते हुए ही गुरू के राह पर चल के प्रभू की सिफत सालाह करते हैं, ये सिफत सालाह ही विकारों से बचा सकती है (पउड़ी नं: ५ से १४)। (यहाँ ये भी ध्यान रखना आवश्यक है कि) इस बँदगी और सिफत सालाह की परमात्मा को कोई आवश्यक्ता नहीं, उसे ना कोई तमा है ना ही कोई मुथाजी, मजबूरी। ये जुगति मनुष्य के अपने भले के वास्ते है, बँदगी की बरकति से ये हर किसी की मुथाजी से हट जाता है, ‘मेर तेर’ मिट जाती है, और विकारों से बच के इज्जत वाला जीवन गुजारता है (पउड़ी नं: १५ से १७)। परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है– ऐसी सयानप और चतुराई की विचारें भी व्यर्थ हैं, ये बातें मनुष्य की समझ से परे की हैं। असल लाभ कमाई ‘सिमरन’ ही है, जो विनम्र स्वभाव में सतसंग की बरकति से मिलता है (पउड़ी नं: १८ से २१)। मुख्य भाव: जगत की विकारों की लहरों से मनुष्य को केवल सिफत सालाह ही बचा सकती है, अन्य देव-पूजा, शास्त्रार्थ, जंगलवास, तीर्थस्नान आदि कोई कर्म-धर्म इसका मददगार नहीं हो सकता। सिफत सालाह की बरकति से मनुष्य के अंदर मुथाजी और मेर-तेर मिट जाती है, इसकी असल कमाई है ही सिमरन और सिफत सालाह। वार की संरचना: ये ‘वार’ गुरू रामदास जी की उचारी हुई है, इस में 21 पउड़ियाँ हैं। बारहवीं पौड़ी के अलावा हरेक पउड़ी के साथ दो–दो श्लोक हैं, उसके साथ तीन श्लोक हैं। श्लोकों का कुल जोड़ 43 है वेरवा इस प्रकार है; सलोक महला ३---------------33 ‘वार’ का शीर्षक है ‘बिहागड़े की वार महला ४’ ‘वार की’ पौड़ियों के साथ बरते गए 43 श्लोकों में से सिर्फ 2 श्लोक गुरू रामदास जी के अपने हैं। सारे के सारे ही श्लोक दूसरे गुरू साहिबानों के हैं, ‘वार’ सिर्फ ‘पौड़ियों’ के समूह को कहा जा रहा है। अगर ये बात साबित हो सकती कि गुरू रामदास जी ने ये ‘वार’ उचारने और लिखने के समय गुरू नानक देव जी और गुरू अमरदास जी के उचारे हुए श्लोक इन पौड़ियों के साथ खुद ही लिखे थे, तो इससे ये मजेदार बात अपने आप साबित हो आती है कि गुरू राम दास जी के पास अपने से पहले के गुरू साहिबानों की ‘बाणी’ मौजूद थी। पर, गुरू रामदास जी ने खुद ये श्लोक दर्ज नहीं किए; वरना वे पउड़ी नंबर १४ को खाली ना रहने देते, इस पौड़ी के साथ के दोनों श्लोक गुरू अरजन देव जी के हैं जो गुरू अरजन साहिब ही दर्ज कर सकते थे। सो, पहले स्वरूप में असल ‘वार’ सिर्फ ‘पउड़ियां’ ही थीं। बिहागड़े की वार महला ४ गुर सेवा ते सुखु पाईऐ होर थै सुखु न भालि ॥ गुर कै सबदि मनु भेदीऐ सदा वसै हरि नालि ॥ नानक नामु तिना कउ मिलै जिन हरि वेखै नदरि निहालि ॥१॥ {पन्ना 548} पद्अर्थ: भेदीअै = भेद दें, परो दें। अर्थ: (हे जीव!) सुख सतिगुरू की सेवा से (ही) मिलता है किसी और जगह सुख ना ढूँढ, (क्योंकि) सतिगुरू के शबद में (जब) मन को परो दें (तब ये समझ आ जाता है कि सुख-दाता) हरी सदा अंग-संग बसता है। हे नानक! (हरी का सुखदाई) नाम उन्हें मिलता है, जिनको मेहर की नजर से देखता है।1। मः ३ ॥ सिफति खजाना बखस है जिसु बखसै सो खरचै खाइ ॥ सतिगुर बिनु हथि न आवई सभ थके करम कमाइ ॥ नानक मनमुखु जगतु धनहीणु है अगै भुखा कि खाइ ॥२॥ {पन्ना 548} अर्थ: हरी की सिफत-सलाह (रूपी) खजाना (हरी की) कृपा है (भाव, बख्शिश से ही मिलता है), जिसको बख्शता है वह स्वयं खाता है (भाव, सिफत सालाह का आनंद लेता है) और खर्चता है (अर्थात, औरों को भी सिफत करनी सिखाता है), (पर, ये कृपा) सतिगुरू के बिना मिलती नहीं, (सतिगुरू की ओट छोड़ के और) कर्म बहुत सारे लोक करके थक गए हैं (पर ये दाति नहीं मिली)। हे नानक! मन के अधीन (और सतिगुरू को भूला) हुआ संसार (यहाँ इस सिफत-रूप) धन से वंचित है, भूखा आगे क्या खाएगा? (भाव, जो मनुष्य अब मानस जन्म में नाम नहीं जपते, वे इस जन्म को गवा के क्या जपेंगे?)।2। पउड़ी ॥ सभ तेरी तू सभस दा सभ तुधु उपाइआ ॥ सभना विचि तू वरतदा तू सभनी धिआइआ ॥ तिस दी तू भगति थाइ पाइहि जो तुधु मनि भाइआ ॥ जो हरि प्रभ भावै सो थीऐ सभि करनि तेरा कराइआ ॥ सलाहिहु हरि सभना ते वडा जो संत जनां की पैज रखदा आइआ ॥१॥ {पन्ना 548} पद्अर्थ: तू (सभनी धिआइआ) = तूझे। अर्थ: हे प्रभू! सारी सृष्टि तेरी है, तू सबका मालिक है, सबको तूने ही पैदा किया है, सारे (जीवों) में तू ही व्यापक है, और सब तेरा सिमरन करते हैं, जो मनुष्य तुझे प्यारा लगता है, तू उसकी भक्ति कबूल करता है। हे हरी प्रभू! जो तुझे ठीक लगता है सो (संसार में) होता है, सारे जीव तेरा किया करते हैं। (हे भाई!) जो हरी (आदि से) भक्तों की लाज रखता आया है और सबसे बड़ा है, उसकी सिफत सालाह करो।1। सलोक मः ३ ॥ नानक गिआनी जगु जीता जगि जीता सभु कोइ ॥ नामे कारज सिधि है सहजे होइ सु होइ ॥ गुरमति मति अचलु है चलाइ न सकै कोइ ॥ भगता का हरि अंगीकारु करे कारजु सुहावा होइ ॥ {पन्ना 548} पद्अर्थ: जगि = जगत ने। सभु कोइ = हरेक जीव को। सिधि = सफलता। कारज सिधि = कार्य सिद्धि। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। अर्थ: हे नानक! ज्ञानवान मनुष्य ने संसार को (भाव, माया के मोह को) जीत लिया है, (और ज्ञानी के बिना) हरेक मनुष्य को संसार ने जीता है, (ज्ञानी के) करने वाले काम (भाव, मानस जन्म को सवाँरने) में कामयाबी नाम जपने से होती है उसे ऐसा प्रतीत होता है कि जो कुछ हो रहा है, प्रभू की रजा में हो रहा है। सतिगुरू की मति पर चलने से (ज्ञानी मनुष्य की) मति पक्की हो जाती है, कोई (मायावी व्यावहार) उसको थिड़का नहीं सकता (उसका निष्चय बन जाता है कि) प्रभू, भक्तों का साथ निभाता है (और उनके हरेक) काम रास आ जाते हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |