श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मनमुख मूलहु भुलाइअनु विचि लबु लोभु अहंकारु ॥ झगड़ा करदिआ अनदिनु गुदरै सबदि न करै वीचारु ॥ सुधि मति करतै हिरि लई बोलनि सभु विकारु ॥ दितै कितै न संतोखीअनि अंतरि त्रिसना बहुतु अग्यानु अंधारु ॥ नानक मनमुखा नालहु तुटीआ भली जिना माइआ मोहि पिआरु ॥१॥ {पन्ना 549}

नोट: गउड़ी की वार ४ की पौड़ी नं: 31 का पहला श्लोक भी यही है। पर वहाँ ये श्लोक महले चौथे का करके लिखा है, लग–मात्राओं का इससे थोड़ा सा फर्क है।

अर्थ: मन के पीछे चलने वाले मनुष्य प्रभू को बिसरे हुए हैं, क्योंकि उनके अंदर लब-लोभ और अहंकार है। उनका हरेक दिन (लब-लोभ आदि संबंधी) झगड़ा करते गुजरता है, वे गुरू के शबद में विचार नहीं करते। करतार ने उन मनमुखों की होश और अक्ल खो ली है वे निरे विकार भरे वचन ही बोलते हैं, वे किसी भी दाति के मिलने पर तृप्त नहीं होते क्योंकि उनके मन में बहुत तृष्णा अज्ञान व अंधेरा है।

हे नानक! (ऐसे) मनुष्यों से संबंध टूटा हुआ ही भला है (कोई नाता ना ही रहे तो ठीक है), क्योंकि उनका प्यार तो माया के मोह में है।1।

मः ३ ॥ तिन्ह भउ संसा किआ करे जिन सतिगुरु सिरि करतारु ॥ धुरि तिन की पैज रखदा आपे रखणहारु ॥ {पन्ना 549}

अर्थ: जिनके सिर पर प्रभू और गुरू है (अर्थात, जो प्रभू और गुरू को अपना रखवाला समझते हैं), डर और चिंता उनका क्या बिगाड़ सकती है? रक्षा करने वाला प्रभू स्वयं हमेशा से उनकी लाज रखता आया है।

मिलि प्रीतम सुखु पाइआ सचै सबदि वीचारि ॥ नानक सुखदाता सेविआ आपे परखणहारु ॥२॥ {पन्ना 549}

अर्थ: हे नानक! जो सुखदाता प्रभू खुद ही (सबकी) परख करने वाला है उसकी वह सेवा करते हैं, और (इस तरह) सच्चे शबद के द्वारा विचार करके और हरी प्रीतम को मिल के सुख पाते हैं।2।

पउड़ी ॥ जीअ जंत सभि तेरिआ तू सभना रासि ॥ जिस नो तू देहि तिसु सभु किछु मिलै कोई होरु सरीकु नाही तुधु पासि ॥ तू इको दाता सभस दा हरि पहि अरदासि ॥ जिस दी तुधु भावै तिस दी तू मंनि लैहि सो जनु साबासि ॥ सभु तेरा चोजु वरतदा दुखु सुखु तुधु पासि ॥२॥ {पन्ना 549}

अर्थ: हे हरी! सारे जीव-जन्तु तेरे हैं, तू सबका खजाना है, जिस मनुष्य को तू (अपने नाम की) दाति बख्शता है, उसे (जैसे) हरेक वस्तु मिल जाती है (क्योंकि रोकने वाला) और कोई तेरा शरीक तेरे पास नहीं है, तू एक ही सबका दाता है (इसलिए,) हे हरी! (सब जीवों की) तेरे ही आगे विनती होती है; जिसकी विनती तुझे ठीक लगे, तू उसकी प्रवान कर लेता है और उस मनुष्य को शाबाश मिलती है। ये सारा तेरा ही करिश्मा बरत रहा है, (सबका) दुख व सुख (का तरला) तेरे पास ही होता है।2।

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि सचै भावदे दरि सचै सचिआर ॥ साजन मनि आनंदु है गुर का सबदु वीचार ॥ अंतरि सबदु वसाइआ दुखु कटिआ चानणु कीआ करतारि ॥ नानक रखणहारा रखसी आपणी किरपा धारि ॥१॥ {पन्ना 549}

पद्अर्थ: करतारि = करतार ने।

अर्थ: सतिगुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सच्चे प्रभू को प्यारे लगते हैं और सच्चे दर पर वह व्यापारी (समझे जाते हैं); सतिगुरू के शबद को विचारने वाले उन सज्जनों के मन (सदा) पुल्कित रहते हैं; सतिगुरू का शबद उनके हृदय में बसा है (इसलिए) सृजनहार ने उनका दुख काट दिया है और उनका हृदय प्रकाशित कर दिया है। हे नानक! रक्षा करने वाला प्रभू अपनी मेहर से उनकी सदा रक्षा करता है।1।

मः ३ ॥ गुर की सेवा चाकरी भै रचि कार कमाइ ॥ जेहा सेवै तेहो होवै जे चलै तिसै रजाइ ॥ नानक सभु किछु आपि है अवरु न दूजी जाइ ॥२॥ {पन्ना 549}

पद्अर्थ: भै = डर में। चाकरी = नौकरी। कमाइ = करे। तिसै = उस प्रभू की। अवरु = कोई और। जाइ = जगह।

अर्थ: अगर मनुष्य (प्रभू के) डर में रह के गुरू की बताई हुई सेवा चाकरी करे और उसी प्रभू की रजा में चले तो उस प्रभू जैसा ही हो जाता है जिसे वह सिमरता है। फिर, हे नानक! (ऐसे मनुष्यों को) सब जगह प्रभू ही प्रभू दिखता है, (उसके बिना) कोई और नहीं दिखता, और ना ही किसी और (आसरे की) जगह दिखती है।2।

पउड़ी ॥ तेरी वडिआई तूहै जाणदा तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तुधु जेवडु होरु सरीकु होवै ता आखीऐ तुधु जेवडु तूहै होई ॥ जिनि तू सेविआ तिनि सुखु पाइआ होरु तिस दी रीस करे किआ कोई ॥ तू भंनण घड़ण समरथु दातारु हहि तुधु अगै मंगण नो हथ जोड़ि खली सभ होई ॥ तुधु जेवडु दातारु मै कोई नदरि न आवई तुधु सभसै नो दानु दिता खंडी वरभंडी पाताली पुरई सभ लोई ॥३॥ {पन्ना 549}

पद्अर्थ: तू = तुझे। तिनि = उस मनुष्य ने। पुरई = पुरियों में। लोई = (14) लोकों में।

अर्थ: तू कितना बड़ा है– ये तू खुद ही जानता है, क्योंकि तेरे जितना और कोई नहीं है, अगर तेरे जितना और कोई शरीक हो (उसे देख के) तब ही बता सकते हैं (कि तू कितना बड़ा है) (पर) तेरे जितना तू खुद ही है।

जिस मनुष्य ने तुझे सिमरा है उस ने सुख पाया है, कोई अन्य मनुष्य उसकी क्या बराबरी कर सकता है? शरीरों को नाश भी तू स्वयं ही कर सकता है और बना भी तू स्वयं ही सकता है। सब दातें भी बख्शने वाला है सारी सृष्टि तेरे आगे दातें मांगने के लिए हाथ जोड़ के खड़ी हुई है।

मुझे तेरे जितना और कोई दानी नजर नहीं आता, खण्डों, ब्रहमण्डों, पातालों, पुरियों, सारे (चौदह ही) लोकों में तूने ही सब जीवों पर कृपा की हुई है।3।

सलोक मः ३ ॥ मनि परतीति न आईआ सहजि न लगो भाउ ॥ सबदै सादु न पाइओ मनहठि किआ गुण गाइ ॥ नानक आइआ सो परवाणु है जि गुरमुखि सचि समाइ ॥१॥ {पन्ना 549}

अर्थ: अगर मन में (हरी के अस्तित्व की) प्रीति ना आई, और सहज अडोलता में प्यार ना बना (ठहराव ना आया), अगर शबद का रस ना मिला, तो मन के हठ से सिफत सालाह करने का भी क्या लाभ? हे नानक! (संसार में) पैदा हुआ वह जीव मुबारक है जो सतिगुरू के सन्मुख रहके सच में लीन हो जाए।1।

मः ३ ॥ आपणा आपु न पछाणै मूड़ा अवरा आखि दुखाए ॥ मुंढै दी खसलति न गईआ अंधे विछुड़ि चोटा खाए ॥ सतिगुर कै भै भंनि न घड़िओ रहै अंकि समाए ॥ अनदिनु सहसा कदे न चूकै बिनु सबदै दुखु पाए ॥ कामु क्रोधु लोभु अंतरि सबला नित धंधा करत विहाए ॥ चरण कर देखत सुणि थके दिह मुके नेड़ै आए ॥ सचा नामु न लगो मीठा जितु नामि नव निधि पाए ॥ जीवतु मरै मरै फुनि जीवै तां मोखंतरु पाए ॥ धुरि करमु न पाइओ पराणी विणु करमा किआ पाए ॥ गुर का सबदु समालि तू मूड़े गति मति सबदे पाए ॥ नानक सतिगुरु तद ही पाए जां विचहु आपु गवाए ॥२॥ {पन्ना 549-550}

पद्अर्थ: भै = डर में। अंकि = गोद में। सहसा = तौख़ला, शंका। अनदिनु = हर रोज। सबला = बलवान। जितु = जिसके द्वारा। नव निधि = नौ खजाने, सारे पदार्थ। फुनि = दुबारा। मोखंतरु = मोख का अंतरा, मोक्ष का रहस्य।

अर्थ: मूर्ख मनुष्य अपने आप की पहिचान नहीं करता और औरों को कह–कह के दुखी करता रहता है, (सतिगुरू के दर पर पहुँच के भी) अंधे की मूलभूत (दूसरों को दुखी करने वाली) आदत नहीं जाती, और (वह हरी से) विछुड़ के दुख सहता है।

मूर्ख मनुष्य सतिगुरू के भय में रह के मन (के पिछले बुरे संस्कारों) को तोड़ के (नए हरी सिमरन वाले संस्कार) नहीं घड़ता, (ऐसे कर्म नहीं करता कि वह) (प्रभू की) गोद में समाया रहे, (जिस कारण) हर रोज किसी भी वक्त उसकी चिंता दूर नहीं होती, (और वह) शबद (का आसरा लिए) बिना दुख पाता है।

मूर्ख के हृदय में काम, क्रोध और लोभ प्रबल है, और सदा धंधे करते हुए उम्र गुजरती है। पैर, हाथ, (आँखें) देख-देख के और (कान) सुन-सुन के थक गए हैं, (उम्र के) दिन गुजर गए हैं, (मरने के दिन नजदीक आ गए हैं)। जिस नाम के माध्यम से नौ निधियाँ प्राप्त हो जाएं वह सच्चा नाम (मूर्ख को) अच्छा नहीं लगता, (लगे भी कैसे?) (संसार में) कार-व्यवहार करता हुआ (जो, संसार से) मुर्दा हो जाए (इस तरह) मर के फिर (हरी की याद में) पुनर्जीवित (चैतन्य) हो, तो ही मुक्ति का भेद मिलता है।

पर जिस मनुष्य को धुर से ही परमात्मा की कृपा नसीब ना हुई हो, वह (पिछले अच्छे संस्कारों वाले) कामों के बिना (अब बंदगी वाले संस्कार) कैसे पाए? हे मूर्ख! सतिगुरू के शबद को (हृदय में) सम्भाल (क्योंकि) ऊँची आत्मिक अवस्था और भली मति शबद से ही मिलती है। (पर) हे नानक! सतिगुरू भी तभी मिलता है जब मनुष्य हृदय में से अहंकार दूर करता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh