श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 550 पउड़ी ॥ जिस दै चिति वसिआ मेरा सुआमी तिस नो किउ अंदेसा किसै गलै दा लोड़ीऐ ॥ हरि सुखदाता सभना गला का तिस नो धिआइदिआ किव निमख घड़ी मुहु मोड़ीऐ ॥ जिनि हरि धिआइआ तिस नो सरब कलिआण होए नित संत जना की संगति जाइ बहीऐ मुहु जोड़ीऐ ॥ सभि दुख भुख रोग गए हरि सेवक के सभि जन के बंधन तोड़ीऐ ॥ हरि किरपा ते होआ हरि भगतु हरि भगत जना कै मुहि डिठै जगतु तरिआ सभु लोड़ीऐ ॥४॥ {पन्ना 550} पद्अर्थ: किव = क्यूँ? निमख = आँख झपकने जितने समय भर के लिए। कलिआण = सुख। मुहि डिठै = अगर मुँह देखें, दर्शन करने से। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में प्यारा प्रभू निवास करे, उसे किसी बात की चिंता नहीं रह जातीं प्रभू हर किस्म के सुख देने वाला है, उसका सिमरन किए बिना एक छिन भर भी नहीं रहना चाहिए। जिस मनुष्य ने हरी को सिमरा है, उसे सारे सुख प्राप्त होते हैं, (इस वास्ते) सदा साध-संगति में ही बैठना चाहिए और (प्रभू के गुणों के बारे में) विचार करनी चाहिए। हरी के भक्त के सारे कलेश, भूख व रोग दूर हो जाते हैं, और सारे बंधन टूट जाते हैं, (क्योंकि) हरी का भक्त हरी की अपनी कृपा से बनता है। चाहिए तो ये कि हरी के भक्तों के दर्शन करके (भाव, उनकी संगति में रह के) सारा संसार ही तैर जाए (पर, अफसोस, संसार इस राह पर चलता ही नहीं)।4। सलोक मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का सुआउ न पाइआ ॥ नानक रसना सबदि रसाइ जिनि हरि हरि मंनि वसाइआ ॥१॥ {पन्ना 550} पद्अर्थ: रसना = जीभ। सुआउ = स्वाद। रसाइ = रस जाती है, भीग जाती है। जिनि = जिस जीभ ने। अर्थ: जिस जीभ ने हरी (के नाम) का स्वाद नहीं चखा, वह जीभ जल जाए (भाव, वह जीभ किसी काम की नहीं); हे नानक! वह जीभ गुरू के शबद में रस जाती है जिस (जीभ) ने परमात्मा मन में बसाया है। मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का नाउ विसारिआ ॥ नानक गुरमुखि रसना हरि जपै हरि कै नाइ पिआरिआ ॥२॥ {पन्ना 550} अर्थ: जिस जीभ ने हरी का नाम विसारा है, वह जीभ जल जाए। हे नानक! (दरअसल) सतिगुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य की जीभ (ही) हरी का नाम जपती है हरी के नाम से प्यार करती है।2। पउड़ी ॥ हरि आपे ठाकुरु सेवकु भगतु हरि आपे करे कराए ॥ हरि आपे वेखै विगसै आपे जितु भावै तितु लाए ॥ हरि इकना मारगि पाए आपे हरि इकना उझड़ि पाए ॥ हरि सचा साहिबु सचु तपावसु करि वेखै चलत सबाए ॥ गुर परसादि कहै जनु नानकु हरि सचे के गुण गाए ॥५॥ {पन्ना 550} पद्अर्थ: विगसै = खुश होता है। जितु = जिधर। मारगि = (सीधे) राह पर। उझड़ि = कुमार्ग। अर्थ: प्रभू खुद ही ठाकुर, खुद ही सेवक और भक्त है, स्वयं ही करता है और स्वयं (जीवों से) करवाता है, खुद ही देखता है, खुद ही प्रसन्न होता है, जिधर चाहता है उधर (जीवों को) लगाता है, इन्हें खुद ही सीधे रास्ते पर डालता है, और इनको खुद ही गलत राह पर चला देता है। हरी सच्चा मालिक है, उसका न्याय भी अभॅुल है, वह स्वयं ही सारे तमाशे करके देख रहा है। दास नानक कहता है कि सतिगुरू की मेहर से (ही मनुष्य ऐसे) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू के गुण गाता है।5। सलोक मः ३ ॥ दरवेसी को जाणसी विरला को दरवेसु ॥ जे घरि घरि हंढै मंगदा धिगु जीवणु धिगु वेसु ॥ जे आसा अंदेसा तजि रहै गुरमुखि भिखिआ नाउ ॥ तिस के चरन पखालीअहि नानक हउ बलिहारै जाउ ॥१॥ {पन्ना 550} पद्अर्थ: को = कोई। हंढै = घूमता फिरे। धिगु = धिक्कार। वेसु = भेस, (फकीर वाला) पहिरावा। अर्थ: कोई विरला फ़कीर ही फकीरी (के आदर्श) को समझता है, (फ़कीर हो के) अगर घर घर माँगता फिरे, तो उसके जीने को धिक्कार है और उसके (फकीरी) भेष को भी धिक्कार है। अगर (दरवेश हो के) आशा और चिंता को त्याग दे तो सतिगुरू के सन्मुख रह के नाम की भिक्षा मांगे, तो, हे नानक! मैं उससे सदके हूँ, उसके चरण धोने चाहिए।1। मः ३ ॥ नानक तरवरु एकु फलु दुइ पंखेरू आहि ॥ आवत जात न दीसही ना पर पंखी ताहि ॥ बहु रंगी रस भोगिआ सबदि रहै निरबाणु ॥ हरि रसि फलि राते नानका करमि सचा नीसाणु ॥२॥ {पन्ना 550} पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। पंखेरू = पक्षी। पर = पंख। निरबाणु = वासना रहित, चाहत रहित। रसि = रस में। नीसाणु = निशान, टिक्का। करमि = बख्शिश से, कृपा द्वारा। अर्थ: हे नानक! (संसार एक) वृक्ष (के समान है, इस वृक्ष) पर (माया के मोह रूपी) एक फल (लगा हुआ है), (इस पेड़ पर ही) दो (किस्म के, गुरमुख और मनमुख) पक्षी (बैठे) हैं। इन पक्षियों के पंख नहीं हैं और वे आते-जाते दिखते भी नहीं (भाव, ये पता नहीं चलता कि ये जीव पक्षी कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं)। बहुत सारे तो रंग (-तमाशें में स्वाद लेने) वाले हैं (जो) रसों के भोग में (गलतान) हैं और निर्वाण (पक्षी) शबद में (लीन) रहते हैं। हे नानक! हरी की कृपा से (जिनके माथे पर) सच्चा निशान है, वे नाम के रस (रूपी) फल (के स्वाद) में मस्त हैं।2। पउड़ी ॥ आपे धरती आपे है राहकु आपि जमाइ पीसावै ॥ आपि पकावै आपि भांडे देइ परोसै आपे ही बहि खावै ॥ आपे जलु आपे दे छिंगा आपे चुली भरावै ॥ आपे संगति सदि बहालै आपे विदा करावै ॥ जिस नो किरपालु होवै हरि आपे तिस नो हुकमु मनावै ॥६॥ {पन्ना 550-551} पद्अर्थ: छिंगा = दाँतों में फँसा हुआ अन्न निकालने वाली सुई। विदा करावै = भेज देता है, विदा करता है। अर्थ: प्रभू स्वयं ही जमीन है स्वयं ही उसे जोतने वाला है, स्वयं ही (अन्न) उगाता है और स्वयं ही पिसवाता है, खुद पकाता है और खुद ही बर्तन दे के परोसता है और खुद ही बैठ के खाता है। खुद ही जल देता है और छिंगा भी खुद देता है और खुद ही चुल्ली करवाता है। हरी खुद ही संगति को बुला के बैठाता है और खुद ही विदा करता है। जिस पर प्रभू स्वयं दयालु होता है उसको अपनी रजा (मीठी करके) मनवाता है।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |