श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ३ ॥ करम धरम सभि बंधना पाप पुंन सनबंधु ॥ ममता मोहु सु बंधना पुत्र कलत्र सु धंधु ॥ जह देखा तह जेवरी माइआ का सनबंधु ॥ नानक सचे नाम बिनु वरतणि वरतै अंधु ॥१॥ {पन्ना 551}

पद्अर्थ: कलत्र = स्त्री। धंधु = काम धंधा। अंधु = अंधा मनुष्य।

अर्थ: (कर्म काण्ड के) कर्म-धर्म सारे बँधन (का रूप ही) हैं और अच्छे-बुरे काम भी (संसार से) जोड़ के रखने का वसीला हैं (अर्थात, कर्म-काण्ड व पाप-पुंन करने से जनम-मरन से गति नहीं हो सकती)। ममता और मोह भी बँधन ही है, पुत्र और स्त्री- (इनका प्यार भी) कष्ट का कारण है, जिधर देखता हूँ उधर ही माया के मोह (रूपी) जंजीर है। हे नानक! सच्चे नाम के बिना अंधा मनुष्य (माया के) व्यवहार को ही बरतता है।1।

मः ४ ॥ अंधे चानणु ता थीऐ जा सतिगुरु मिलै रजाइ ॥ बंधन तोड़ै सचि वसै अगिआनु अधेरा जाइ ॥ सभु किछु देखै तिसै का जिनि कीआ तनु साजि ॥ नानक सरणि करतार की करता राखै लाज ॥२॥ {पन्ना 551}

पद्अर्थ: थीअै = होता है। रजाइ = प्रभू की रजा के अनुसार। सचि = सत्य में।

अर्थ: अंधे मनुष्य को प्रकाश तब ही होता है जब (प्रभू की) रजा में उस को सतिगुरू मिल जाए (क्योंकि सतिगुरू के मिलने से) वह (माया के) बँधन तोड़ लेता है, सच्चे हरी में लीन हो जाता है और उसका अज्ञान (रूपी) अंधकार दूर हो जाता है।

जिसने शरीर बना के पैदा किया है, (सतिगुरू के मिलने से) मनुष्य सब कुछ उसी का ही समझता है, और, हे नानक! वह मनुष्य सृजनहार की शरण पड़ता है और सृजनहार उसकी लाज रखता है (भाव, उसे विकारों से बचा लेता है)।2।

पउड़ी ॥ जदहु आपे थाटु कीआ बहि करतै तदहु पुछि न सेवकु बीआ ॥ तदहु किआ को लेवै किआ को देवै जां अवरु न दूजा कीआ ॥ फिरि आपे जगतु उपाइआ करतै दानु सभना कउ दीआ ॥ आपे सेव बणाईअनु गुरमुखि आपे अम्रितु पीआ ॥ आपि निरंकार आकारु है आपे आपे करै सु थीआ ॥७॥ {पन्ना 551}

पद्अर्थ: थाटु = रचना। बीआ = दूसरा, कोई अन्य। करतै = करतार ने। दानु = बख्शिश, रोज़ी। बणाईअनु = बनाई उस प्रभू ने। निरंकार = निर+आकार, जिसका कोई खास रूप ना हो।

अर्थ: जब प्रभू ने खुद बैठ के रचना रची तब उसने किसी दूसरे सेवक से सलाह नहीं ली थी, जब कोई और दूसरा पैदा ही नहीं किया, तो किसी ने किसी के पास से लेना ही क्या था और देना क्या था? (भाव, कोई ऐसा था ही नहीं जो परमात्मा को सलाह दे सकता)।

फिर हरी ने खुद संसार को पैदा किया और सब जीवों को रोज़ी दी। गुरू के माध्यम से सिमरन की जुगति प्रभू ने खुद ही बनाई है और खुद ही उसने (नाम-रूपी) अमृत पीया, प्रभू खुद ही आकार से रहित है और खुद ही आकार वाला (साकार) है, जो वह खुद करता है वही होता है।7।

सलोक मः ३ ॥ गुरमुखि प्रभु सेवहि सद साचा अनदिनु सहजि पिआरि ॥ सदा अनंदि गावहि गुण साचे अरधि उरधि उरि धारि ॥ अंतरि प्रीतमु वसिआ धुरि करमु लिखिआ करतारि ॥ नानक आपि मिलाइअनु आपे किरपा धारि ॥१॥ {पन्ना 551}

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। सहजि = सहज में, आत्मिक अडोलता में। पिआरि = प्यार से। अरधि उरधि = नीचे ऊपर हर जगह मौजूद हरी। उरि = हृदय में। करमु = बख्शिश (का लेख)। धुरि = शुरू से ही। करतारि = करतार ने। मिलाइअनु = मिलाए हैं उस प्रभू ने।

अर्थ: सतिगुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य हर समय सहज अवस्था में लिव जोड़ के (भाव, सदा एकाग्रचिक्त रहके) सदा सच्चे प्रभू को सिमरते हैं, और ऊपर-नीचे हर जगह व्यापक हरी को हृदय में परो के चढ़दीकला में (रह के) सदा सच्चे की सिफत सालाह करते हैं।

धुर से ही करतार ने (उनके लिए) बख्शिशों (का फुरमान) लिख दिया है (इसलिए) उनके हृदय में प्यारा प्रभू बसता है। हे नानक! उस प्रभू ने स्वयं ही कृपा करके उन्हें अपने में मिला लिया है।1।

मः ३ ॥ कहिऐ कथिऐ न पाईऐ अनदिनु रहै सदा गुण गाइ ॥ विणु करमै किनै न पाइओ भउकि मुए बिललाइ ॥ गुर कै सबदि मनु तनु भिजै आपि वसै मनि आइ ॥ नानक नदरी पाईऐ आपे लए मिलाइ ॥२॥ {पन्ना 551}

अर्थ: (जब तक सतिगुरू के शबद द्वारा हृदय ना भीगे और प्रभू की बख्शिश का भागी ना बने, तब तक) (चाहे) हर वक्त सदा गुण गाता रहे, (इस तरह) कहते हुए हाथ नहीं आता, मेहर के बिना किसी को नहीं मिला, कई रोते-कुरलाते मर-खप गए हैं। सतिगुरू के शबद से ही मन और तन भीगता है और प्रभू हृदय में बसता है। हे नानक! प्रभू अपनी कृपा-दृष्टि से ही मिलता है, वह स्वयं ही (जीव को) अपने साथ मिलाता है।2।

पउड़ी ॥ आपे वेद पुराण सभि सासत आपि कथै आपि भीजै ॥ आपे ही बहि पूजे करता आपि परपंचु करीजै ॥ आपि परविरति आपि निरविरती आपे अकथु कथीजै ॥ आपे पुंनु सभु आपि कराए आपि अलिपतु वरतीजै ॥ आपे सुखु दुखु देवै करता आपे बखस करीजै ॥८॥ {पन्ना 551}

पद्अर्थ: कथै = कहता है। भीजै = भीगता है। परपंचु = जगत का पसारा। परविरति = जगत पसारे में व्यस्त रहने वाला। निरविरती = निर्वृत अवस्था में, अलग रहने वाला। अलिपतु वरतीजै = अलग रहता है। बखश = कृपा, बख्शिश।

अर्थ: सारे वेद-पुराण व शास्त्र प्रभू स्वयं ही रचने वाला है, खुद ही इनकी कथा करता है और खुद ही (सुन के) प्रसन्न होता है, हरी स्वयं ही बैठ के (पुराण आदिक मतानुसार) पूजा करता है और स्वयं ही (अन्य) पसारा पसारता है। खुद ही संसार में खचित हो रहा है और खुद ही इससे किनारा किए बैठा है और कथन से परे अपना आप खुद ही बयान करता है। पुंन भी आप ही करवाता है, फिर (पाप) पुंन से निर्लिप भी आप ही वरतता है, आप ही प्रभू सुख-दुख देता है और आप ही मेहर करता है।8।

सलोक मः ३ ॥ सेखा अंदरहु जोरु छडि तू भउ करि झलु गवाइ ॥ गुर कै भै केते निसतरे भै विचि निरभउ पाइ ॥ मनु कठोरु सबदि भेदि तूं सांति वसै मनि आइ ॥ सांती विचि कार कमावणी सा खसमु पाए थाइ ॥ नानक कामि क्रोधि किनै न पाइओ पुछहु गिआनी जाइ ॥१॥ {पन्ना 551}

पद्अर्थ: भेदि = छेद कर दे, भेद दे। थाइ पाऐ = प्रवान करता है। कामि = काम में (फसे रहने से)।

अर्थ: हे शेख! हृदय में से हठ त्याग दे, ये पागलपन दूर कर और सतिगुरू का डर हृदय में बसा (भाव, अदब में आ) सतिगुरू के अदब में रहके कितने ही पार हो गए, (कितनों ने ही) भय में रह के निर्भय प्रभू को पा लिया।

(हे शेख!) अपने कठोर मन को (मन, जो हठ के कारण कठोर है) सतिगुरू के शबद से भेद दे ता कि तेरे मन में शांति और ठंड आ के बसे। फिर इस में (भजन बंदगी वाली) जो कार करेगा, मालिक उसे कबूल करेगा। हे नानक! किसी ज्ञान वाले को जा के पूछ ले, काम और क्रोध (आदि विकारों) के अधीन होने से किसी को भी ईश्वर नहीं मिलता।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh