श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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चूड़ा भंनु पलंघ सिउ मुंधे सणु बाही सणु बाहा ॥ एते वेस करेदीए मुंधे सहु रातो अवराहा ॥ ना मनीआरु न चूड़ीआ ना से वंगुड़ीआहा ॥ जो सह कंठि न लगीआ जलनु सि बाहड़ीआहा ॥ सभि सहीआ सहु रावणि गईआ हउ दाधी कै दरि जावा ॥ अमाली हउ खरी सुचजी तै सह एकि न भावा ॥ माठि गुंदाईं पटीआ भरीऐ माग संधूरे ॥ अगै गई न मंनीआ मरउ विसूरि विसूरे ॥{पन्ना 557-558}

पद्अर्थ: भंनु = तोड़ दे। सिउ = साथ। मुंधे = हे स्त्री! सणु = समेत। बाही = पलंघ की बाहियां। ऐते = इतने, ये कई। वेस = श्रृंगार। करेदीऐ = करने वाली! रातो = रंगा हुआ है, प्यार कर रहा है। अवराहा = औरों से। मनीआरु = चूड़ीयां चढ़ाने वाला। ना से वंगुड़ीआहा = ना ही वे कंगन सुंदर जानो। सह कंठि = पति के गले से। जलनु = जल जाएं (व्याकरण के अनुसार शब्द ‘जलनु’ हुकमी भविश्यत्, अन्न पुरख, बहुवचन है। इस का एक वचन है ‘जलउ’ जैसे ‘कलम जलउ सणु मसवाणीअै’)। सभि = सारी। रावणि = प्रसंन्न करना। हउ = मैं। दाधी = गरम, (विकारों में) जली हुई। कै दरि = किस दर पर? अंमाली = (अम्आली) हे सखी! खरी = बहुत। सुचजी = अच्छे आचार वाली, अच्छी कुदरत वाली। ऐकि = एक के कारण, एक भी गुण के कारण। माठि = सवार के। गुंदाई = मैं गुदांती हूँ। माग = मांग, पटियों के बीच का चीर। न मंनीआ = मुझे आदर नहीं मिलता। मरउ = मैं मरती हूँ। विसूरि विसूरे = विसूरि, विसूरि झुर झुर के, धुख धुख के।

अर्थ: हे भोली स्त्री! (तूने पति को मिलने के लिए अपनी बाँहों में चूड़ा डाला, व और भी कई श्रृंगार किए, पर) हे इतने सारे श्रृंगार करने वाली नारी! अगर तेरा पति (फिर भी) औरों से ही प्यार करता रहा (तो इतने सारे श्रृंगारों के क्या लाभ? फिर) पलंघ से मार-मार के अपना चूड़ा तोड़ दे, पलंघ की बाहियां ही तोड़ डाल और अपनी सजाई हुई बाँहें ही तोड़ डाल क्योंकि ना उन बाँहों को सजाने वाला मनियार ही तेरा कुछ सवार सका, ना ही उसकी दी हुई चूड़ियाँ और कंगन किसी काम आए। जल जाएं वे (सजी हुई) बाँहें जो पति के गले से ना लग सकीं। (भाव, अगर जीव-स्त्री सारी उम्र धार्मिक भेष करने में ही गुजार दे, इसको धर्मोपदेश देने वाला भी अगर बाहरी भेष की तरफ ही उसे प्रेरित करता रहे, तो ये सारे उद्यम व्यर्थ चले गए। क्योंकि, धार्मिक वेश-भूसा से ईश्वर को प्रसन्न नहीं किया जा सकता। उससे तो सिर्फ आत्मिक मिलाप ही हो सकता है)।

(प्रभू-चरणों में जुड़ने वाली) सारी सहेलियाँ (तो) प्रभू पति को प्रसन्न करने के यतन कर रही हैं (पर, मैं जो निरे दिखावे के ही धर्म-वेष करती रही) मैं कर्म जली किसके दर पर जाऊँ? हे सखी! मैं (इन धर्म-भेषों पर ही टेक रख के) अपनी ओर से तो बड़ी अच्छी करतूत वाली बनी बैठी हूँ। पर, (हे) प्रभू पति! किसी एक भी गुण के कारण मैं तुझे पसंद नहीं आ रही। मैं सवार-सवार के चोटियाँ गूँदती हूँ, मेरी पटियों के चीर में सिंदूर भी भरा जाता है, पर तेरी हजूरी में मैं फिर भी प्रवान नहीं हो रही, (इस वास्ते) झुर झुर के मर रही हूँ।

मै रोवंदी सभु जगु रुना रुंनड़े वणहु पंखेरू ॥ इकु न रुना मेरे तन का बिरहा जिनि हउ पिरहु विछोड़ी ॥ सुपनै आइआ भी गइआ मै जलु भरिआ रोइ ॥ आइ न सका तुझ कनि पिआरे भेजि न सका कोइ ॥ आउ सभागी नीदड़ीए मतु सहु देखा सोइ ॥ तै साहिब की बात जि आखै कहु नानक किआ दीजै ॥ सीसु वढे करि बैसणु दीजै विणु सिर सेव करीजै ॥ किउ न मरीजै जीअड़ा न दीजै जा सहु भइआ विडाणा ॥१॥३॥ {पन्ना 558}

पद्अर्थ: रुंना = रो पड़ा है, तरस कर रहा है। वणहु = जंगल में से। पंखेरू = पक्षी। इकु = सिर्फ। मेरे तन का बिरहा = मेरे अंदर का तेरे चरणों से विछोड़ा। जिनि = जिस (विछोड़े) ने। पिरहु = पति (-प्रभू) ये। सुपनै = सपने में। भी = मुड़। जलु भरिआ रोइ = आँसू भर के रोई। तुझ कनि = तेरे पास। कोइ = किसी को। मतु देखा = शायद मैं देख लूँ। जि = जो मनुष्य। दीजै = देना चाहिए। वढे करि = काट कर। बैसणु = बैठने के लिए जगह। किउ न मरीजै = स्वै भाव क्यों ना मारें? किउ जीअड़ा न दीजै = जिंद क्यों ना सदके करें? विडाणा = बेगाना।१।

अर्थ: (प्रभू-पति से विछुड़ के) मैं इतनी दुखी हो रही हूँ (कि) सारा जगत मेरे पर तरस कर रहा है, जंगल के पक्षी भी (मेरी दुखी हालत पर) तरस कर रहे हैं। सिर्फ ये मेरे अंदर का विछोड़ा ही है जो तरस नहीं करता (जो मेरी खलासी नहीं करता), इसने मुझे प्रभू-पति से विछोड़ा हुआ है।

(हे पति!) मुझे तू सपने में मिला (सपना खत्म हुआ, और तू) फिर चला गया, (विछोड़े के दुख में) मैं आूंसू भर के रोई। हे प्यारे! मैं (निमाणी) तेरे पास पहुँच नहीं सकती, मैं (गरीब) किसी को तेरे पास भेज नहीं सकती (जो मेरी हालत तुझे बताए। नींद के आगे ही तरले करती हूँ-) हे सौभाग्यशाली सुंदर नींद! तू (मेरे पास आ) शायद (तेरे द्वारा ही) मैं अपने पति-प्रभू का दीदार कर सकूँ।

हे नानक! (प्रभू-दर पर) कह– हे मेरे मालिक! अगर कोई गुरमुखि मुझे तेरी कोई बात सुनाए तो मैं उसके आगे कौन सी भेटा रखूँ! अपना सिर काट के मैं उसके बैठने के लिए आसन बना दूँ (भाव,) स्वै भाव दूर करके मैं उसकी सेवा करूँ।

जब हमारा प्रभू-पति (हमारी मूर्खता के कारण) हमसे अलग हो जाए (तो उसे दुबारा अपना बनाने के लिए यही एक तरीका है कि) हम स्वैभाव मार दें, और अपनी जिंद उस पर सदके कर दें।1।3।

वडहंसु महला ३ घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मनि मैलै सभु किछु मैला तनि धोतै मनु हछा न होइ ॥ इह जगतु भरमि भुलाइआ विरला बूझै कोइ ॥१॥ जपि मन मेरे तू एको नामु ॥ सतगुरि दीआ मो कउ एहु निधानु ॥१॥ रहाउ ॥ सिधा के आसण जे सिखै इंद्री वसि करि कमाइ ॥ मन की मैलु न उतरै हउमै मैलु न जाइ ॥२॥ इसु मन कउ होरु संजमु को नाही विणु सतिगुर की सरणाइ ॥ सतगुरि मिलिऐ उलटी भई कहणा किछू न जाइ ॥३॥ भणति नानकु सतिगुर कउ मिलदो मरै गुर कै सबदि फिरि जीवै कोइ ॥ ममता की मलु उतरै इहु मनु हछा होइ ॥४॥१॥ {पन्ना 558}

पद्अर्थ: मनि मैलै = (विकारों से हुए) मैले मन से। तनि धोतै = धोए हुए शरीर से, अगर शरीर को (तीर्थों आदि पे) स्नान करा लिया जाए। भरमि = भुलेखे में (पड़ के)।1।

मन = हे मन! सतगुरि = गुरू ने। मो कउ = मुझे। निधानु = खजाना।1।

सिखै = सीख लिए। वसि करि = बस में करके।2।

संजमु = तरीका, यतन। सतिगुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए।3।

भणति = कहता है। कउ = को। मरै = (विकारों से) अछूता हो जाए। सबदि = शबद से।4।

अर्थ: हे मेरे मन! तू (विकारों से बचने के लिए) सिर्फ परमात्मा का नाम जपा कर। यह (नाम-) खजाना गुरू ने बख्शा है।1। रहाउ।

हे भाई! अगर मनुष्य का मन (विकारों की) मैल से भरा रहे (तो उतने वक्त मनुष्य जो कुछ करता है) सब कुछ विकार ही करता है, शरीर को (तीर्थ आदि के) स्नान करवाने से मन पवित्र नहीं हो सकता। पर ये संसार (तीर्थ-स्नान आदि से मन की पवित्रता मिल जाने के) भुलेखे में पड़ के गलत राह पर चला जा रहा है। कोई दुर्लभ मनुष्य ही (इस सच्चाई को) समझता है।1।

अगर मनुष्य चमत्कारी योगियों वाले आसन सीख ले, अगर काम-वासना को जीत के (आसनों के अभ्यास की) कमाई करने लग जाए, तो भी मन की मैल नहीं उतरती, (मन में से) अहंकार की मैल नहीं जाती।2।

हे भाई! गुरू की शरण पड़े बिना और कोई यत्न इस मन को पवित्र नहीं कर सकता। अगर गुरू मिल जाए तो मन बिरती संसार से पलट जाती है (और मन की ऐसी ऊँची दशा बन जाती है जो) बयान नहीं की जा सकती।3।

नानक कहता है– जो मनुष्य गुरू को मिल के (विकारों से) अछूता हो जाता है, और, फिर गुरू के शबद में जुड़ के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है (उसके अंदर से माया की) ममता की मैल उतर जाती है, उसका ये मन पवित्र हो जाता है।4।1।

वडहंसु महला ३ ॥ नदरी सतगुरु सेवीऐ नदरी सेवा होइ ॥ नदरी इहु मनु वसि आवै नदरी मनु निरमलु होइ ॥१॥ मेरे मन चेति सचा सोइ ॥ एको चेतहि ता सुखु पावहि फिरि दूखु न मूले होइ ॥१॥ रहाउ ॥ नदरी मरि कै जीवीऐ नदरी सबदु वसै मनि आइ ॥ नदरी हुकमु बुझीऐ हुकमे रहै समाइ ॥२॥ जिनि जिहवा हरि रसु न चखिओ सा जिहवा जलि जाउ ॥ अन रस सादे लगि रही दुखु पाइआ दूजै भाइ ॥३॥ सभना नदरि एक है आपे फरकु करेइ ॥ नानक सतगुरि मिलिऐ फलु पाइआ नामु वडाई देइ ॥४॥२॥ {पन्ना 558}

पद्अर्थ: नदरी = (परमात्मा की कृपा की) नजर से। सेवीअै = सेवा की जा सकती है, शरण ली जा सकती है। वसि = काबू में। निरमलु = पवित्र।1।

चेति = सिमर, याद करता रह। सचा = सदा कायम रहने वाला प्रभू! मूले = बिल्कुल।1। रहाउ।

मरि कै = विकारों की ओर से अछूता हो के। जीवीअै = आत्मिक जीवन प्राप्त किया जाता है। मनि = मन में। हुकमे = हुकमि ही, हुकम में ही।2।

जिनि = जिस ने। जिनि जिहवा = जिस जीभ ने। जलि जाउ = जल जाए, वह जलने योग्य है। अन = अन्य। सादे = स्वाद में। दूजै भाइ = माया के प्यार में।3।

आपे = आप ही। करेइ = करता है। सतगुरि मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। देइ = देता है।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को याद किया कर। अगर तू उस एक परमात्मा को याद करता रहेगा तो सुख हासिल करेगा, और तुझे कभी भी कोई दुख नहीं छू सकेगा।1। रहाउ।

(हे भाई!) परमात्मा की मेहर की निगाह से ही गुरू की शरण पड़ सकते हैं, मेहर की नजर से ही परमात्मा की सेवा भक्ति हो सकती है। मेहर की निगाह से ही ये मन काबू में आता है, और पवित्र हो जाता है।1।

(हे भाई!) परमात्मा की कृपा की नजर से ही विकारों से हट के आत्मिक जीवन हासिल किया जाता है, और गुरू का शबद मन में आ बसता है। मेहर की निगाह से ही परमात्मा की रजा को समझा जा सकता है, और रजा में सदा टिके रहा जाता है।2।

हे भाई! जिस जीभ ने कभी परमात्मा के नाम का स्वाद नहीं चखा वह जीभ जलने योग्य ही है, (क्योंकि जिस मनुष्य की जीभ) अन्य रसों के स्वाद में लगी रहती है, वह मनुष्य माया के मोह में फंस के दुख (ही) पाता रहता है।3।

(हे भाई! वैसे तो) सब जीवों पर एक परमात्मा की ही कृपा की नजर रहती है, (पर कोई अच्छा बन जाता है कोई विकारी हो जाता है, यह) फर्क (भी) परमात्मा खुद ही बनाता है (क्योंकि) हे नानक! अगर गुरू मिल जाए (तो ही परमात्मा की मेहर की निगाह का) फल मिलता है (परमात्मा गुरू के द्वारा अपना) नाम बख्शता है (ये नाम-प्राप्ति ही सब से बड़ी) इज्जत (है)।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh