श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 559 वडहंसु महला ३ ॥ माइआ मोहु गुबारु है गुर बिनु गिआनु न होई ॥ सबदि लगे तिन बुझिआ दूजै परज विगोई ॥१॥ मन मेरे गुरमति करणी सारु ॥ सदा सदा हरि प्रभु रवहि ता पावहि मोख दुआरु ॥१॥ रहाउ ॥ गुणा का निधानु एकु है आपे देइ ता को पाए ॥ बिनु नावै सभ विछुड़ी गुर कै सबदि मिलाए ॥२॥ मेरी मेरी करदे घटि गए तिना हथि किहु न आइआ ॥ सतगुरि मिलिऐ सचि मिले सचि नामि समाइआ ॥३॥ आसा मनसा एहु सरीरु है अंतरि जोति जगाए ॥ नानक मनमुखि बंधु है गुरमुखि मुकति कराए ॥४॥३॥ {पन्ना 559} पद्अर्थ: गुबारु = घोर अंधकार। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। सबदि = शबद में। तिन = उन्होंने। दूजै = माया के मोह में। परज = दृष्टि। विगोई = ख्वार हो रही है।1। करणी = जीवन कर्तव्य। सारु = संभाल। रवहि = (यदि) तू सिमरता रहे। मोख = मोक्ष, विकारों से खलासी।1। रहाउ। निधानु = खजाना। देइ = देता है। को = कोई मनुष्य। सबदि = शबद के द्वारा।2। घटि गऐ = आत्मिक जीवन कमजोर हो गया। हथि = हाथ में। किहु = (आत्मिक जीवन में से) कुछ भी। सतगुरि मिलिअै = अगर सतिगुरू मिल जाए। सचि = सदा स्थिर प्रभू में। नामि = नाम में।3। मनसा = मन का फुरना, मनीषा। जोति जगाऐ = आत्मिक जीवन की रोशनी कर देता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। बंधु = रोक, बंधन। मुकति = (विकारों के बँधनों से) मुक्ति।4। अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की मति ले के जीवन-चाल चल। अगर तू सदा परमात्मा का नाम सिमरता रहे तो (माया के बँधनों से) निजात का रास्ता मिल जाएगा।1। रहाउ। (हे भाई! आत्मिक जीवन के राह में) माया का मोह (जैसे) घोर अंधकार है, गुरू की शरण पड़े बिना (इस घोर अंधकार में से) आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ सकती। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़े रहते हैं उन्हें समझ आ जाती है, (वरना) माया के मोह में फंस के संसार दुखी होता रहता है।1। हे भाई! एक हरी-नाम ही सारे गुणों का खजाना है, पर इस खजाने को तब ही कोई मनुष्य हासिल करता है जब प्रभू खुद ही ये खजाना देता है। परमात्मा के नाम सिमरन के बिना सृष्टि परमात्मा से विछुड़ी रहती है। गुरू के शबद में जुड़ के (प्रभू अपने चरणों में) मिला लेता है।2। माया के अपनत्व की बातें कर करके जीवों के आत्मिक जीवन कमजोर होते रहते हैं (आत्मिक जीवन की पूँजी में से) उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। (पर) अगर गुरू मिल जाए तो जीव सदा-स्थिर प्रभू में जुड़े रहते हैं, सदा स्थिर प्रभू के नाम में लीन रहते हैं।3। हे भाई! मनुष्य का ये शरीर आसा और मनसा (के साथ बँधा रहता) है, (गुरू इस के) अंदर आत्मिक जीवन की रौशनी पैदा करता है। हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के राह में (आसा और मनसा के) बँधन पड़े रहते हैं, गुरू की शरण पड़े मनुष्य को (परमात्मा इस आसा-मनसा से) निजात दिलवा देता है।4।3। वडहंसु महला ३ ॥ सोहागणी सदा मुखु उजला गुर कै सहजि सुभाइ ॥ सदा पिरु रावहि आपणा विचहु आपु गवाइ ॥१॥ मेरे मन तू हरि हरि नामु धिआइ ॥ सतगुरि मो कउ हरि दीआ बुझाइ ॥१॥ रहाउ ॥ दोहागणी खरीआ बिललादीआ तिना महलु न पाइ ॥ दूजै भाइ करूपी दूखु पावहि आगै जाइ ॥२॥ गुणवंती नित गुण रवै हिरदै नामु वसाइ ॥ अउगणवंती कामणी दुखु लागै बिललाइ ॥३॥ सभना का भतारु एकु है सुआमी कहणा किछू न जाइ ॥ नानक आपे वेक कीतिअनु नामे लइअनु लाइ ॥४॥४॥ {पन्ना 559} पद्अर्थ: सोहागणी = सोहाग भाग वाली, प्रभू पति को सिर पर जीता जागता जानने वालियां। उजला = रौशन। गुर कै = गुरू के शबद की बरकति से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाव = प्रेम में। पिरु = पति। रावहि = हृदय में संभाल के रखती हें। आपु = स्वै भाव।1। सतगुरि = गुरू ने। मो कउ = मुझे।1। रहाउ। खरीआ = बहुत। महलु = प्रभू की हजूरी। करूपी = कोझे (आत्मिक) रूप वालियां, बुरे (आत्मिक) जीवन वालियां। आगै = परलोक में। जाइ = जा के।2। रवै = याद रखती है। वसाइ = बसा के। कामणी = (जीव-) स्त्री।3। भतारु = पति। वेक = अलग अलग स्वभाव वाले। कीतिअनु = उसने बना दिए हैं। नामे = नाम में। लइअनु लाइ = उसने लगा लिए हैं।4। अर्थ: हे मेरे मन! तू सदा हरी नाम सिमरता रह। गुरू ने मुझे हरी-नाम (सिमरन) की सूझ दे दी है।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू-पति को सिर पर जीता-जागता जानने वाली जीव-सि्त्रयों का मुँह सदा रौशन रहता है, गुरू के शबद के द्वारा वे सदा आत्मिक अडोलता में और प्रभू प्रेम में टिकी रहती हैं। वह अपने अंदर से स्वैभाव दूर करके सदा अपने प्रभू पति को हृदय में सम्भाल के रखतीं हैं।1। पर छुटॅड़ जीव-सि्त्रयां दुखी ही रहती हैं, उन्हें प्रभू की हजूरी नसीब नहीं होती। माया के मोह में गलतान रहने के कारण वे बुरे आत्मिक जीवन वाली ही रहती हैं, परलोक में भी जा के वे दुख ही सहती हैं।2। गुणवान जीव-स्त्री अपने दिल में प्रभू-नाम बसा के सदा प्रभू के गुण याद करती रहती है। पर, अवगुण भरी जीव-स्त्री को दुख चिपका रहता है वह सदा विलकती रहती है।3। (पर, ये एक आश्चर्यजनक खेल है) कुछ कहा नहीं जा सकता (कोई सुहागनें हैं तो कोई दुहागनें हैं, और) सबका पति एक परमात्मा मालिक ही है। हे नानक! प्रभू ने स्वयं ही जीवों को अलग-अलग स्वभाव वाले बना दिया है, उसने खुद ही जीव अपने नाम में जोड़े हुए हैं।4।4। वडहंसु महला ३ ॥ अम्रित नामु सद मीठा लागा गुर सबदी सादु आइआ ॥ सची बाणी सहजि समाणी हरि जीउ मनि वसाइआ ॥१॥ हरि करि किरपा सतगुरू मिलाइआ ॥ पूरै सतगुरि हरि नामु धिआइआ ॥१॥ रहाउ ॥ ब्रहमै बेद बाणी परगासी माइआ मोह पसारा ॥ महादेउ गिआनी वरतै घरि आपणै तामसु बहुतु अहंकारा ॥२॥ किसनु सदा अवतारी रूधा कितु लगि तरै संसारा ॥ गुरमुखि गिआनि रते जुग अंतरि चूकै मोह गुबारा ॥३॥ सतगुर सेवा ते निसतारा गुरमुखि तरै संसारा ॥ साचै नाइ रते बैरागी पाइनि मोख दुआरा ॥४॥ एको सचु वरतै सभ अंतरि सभना करे प्रतिपाला ॥ नानक इकसु बिनु मै अवरु न जाणा सभना दीवानु दइआला ॥५॥५॥ {पन्ना 559} पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। सद = सदा। सबदी = शबद के द्वारा। सादु = स्वाद, आनंद। सची बाणी = सदा स्थिर हरी के सिफत सालाह की बाणी के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मनि = मन में।1। करि = करके। सतगुरि = गुरू के द्वारा।1। रहाउ। ब्रहमै = ब्रहमा ने। पसारा = खिलारा। महादेउ = शिव। वरतै = मस्त रहता है। घरि = हृदय घर में। तामसु = क्रोध।2। किसनु = विष्णु। रूधा = व्यस्त रहता है। कितु लगि = किस के चरणों में लग के? गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य। गिआनि = ज्ञान में, आत्मिक जीवन की सूझ (के आनंद) में। जुग अंतरि = जमाने में, जगत में। गुबारा = घोर अंधेरा।3। ते = से। निसतारा = पार उतारा। साचै नाइ = सदा स्थिर प्रभू के नाम में। बैरागी = माया के मोह से निर्लिप। पाइनि = पहनते हैं। मोख = मोह से खलासी।4। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। प्रतिपाला = पालना। दीवानु = आसरा, हाकम जिसके पास फरियाद की जा सके। न जाणा = मैं नहीं जानता, ना जानूँ।5। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा ने कृपा करके (जिस मनुष्य को) गुरू मिला दिया, उसने पूरे गुरू के द्वारा परमात्मा का नाम सिमरना शुरू कर दिया।1। रहाउ। (जिस मनुष्य को गुरू मिल गया, उसको) आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम सदा मीठा लगने लगा, गुरू के शबद की बरकति से उसको हरी के नाम का स्वाद आने लग पड़ा, सदा स्थिर प्रभू के सिफत सालाह की बाणी के द्वारा आत्मिक अडोलता में उसकी लीनता हो गई; उसने परमात्मा को अपने मन में परो लिया।1। (कहते हैं कि) ब्रहमा ने वेदों की बाणी प्रगट की। पर, उसने भी माया के मोह का पसारा ही बिखेरा, (कहते हैं कि) महादेव आत्मिक जीवन की सूझ वाला है, वह अपने हृदय-गृह में मस्त रहता है, (पर उसके अंदर भी) बड़ा क्रोध व अहंकार (बताया जाता) है।2। विष्णु सदा अवतार धारने में व्यस्त हुआ (बताया जा रहा) है। (बताओ) जगत किस के चरणों में लग के संसार-सागर से पार हो? (हाँ) जो मनुष्य जगत में गुरू की शरण पड़ के (गुरू से मिले आत्म) ज्ञान में रंगे रहते हैं, उनके अंदर से मोह का घुप अँधेरा दूर हो जाता है।3। हे भाई! गुरू की बताई सेवा-भक्ति की बरकति से ही पार उतारा होता है, गुरू की शरण पड़ कर ही जगत संसार-समुंद्र से पार लांघता है। (गुरू के द्वारा) सदा स्थिर प्रभू के नाम में रंगे हुए मनुष्य माया के मोह से निर्लिप हो जाते हैं, और, माया के मोह से छुटकारे का दरवाजा तलाश लेते हैं।4। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ने से ये समझ आ जाती है कि) सारी सृष्टि में एक सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही बसता है, (वही) सब जीवों की पालणा करता है। हे नानक! (कह–) एक परमात्मा के बगैर मैं किसी और को (उस जैसा) नहीं जानता, वही दया का घर प्रभू सब जीवों का आसरा-सहारा है।5।5। वडहंसु महला ३ ॥ गुरमुखि सचु संजमु ततु गिआनु ॥ गुरमुखि साचे लगै धिआनु ॥१॥ गुरमुखि मन मेरे नामु समालि ॥ सदा निबहै चलै तेरै नालि ॥ रहाउ ॥ गुरमुखि जाति पति सचु सोइ ॥ गुरमुखि अंतरि सखाई प्रभु होइ ॥२॥ गुरमुखि जिस नो आपि करे सो होइ ॥ गुरमुखि आपि वडाई देवै सोइ ॥३॥ गुरमुखि सबदु सचु करणी सारु ॥ गुरमुखि नानक परवारै साधारु ॥४॥६॥ {पन्ना 559-560} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सचु = सदा स्थिर प्रभू (का नाम सिमरना)। संजमु = इन्द्रियों को वश में करने के यत्न। ततु = असल। साचे = सदा कायम रहने वाले प्रभू में।1। मन = हे मन! समालि = सम्भाल, याद करता रह।1। रहाउ। जाति पति = जाति पाति, ऊँची कुल। सखाई = मित्र, साथी।2। जिस नो: शब्द ‘जिस’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण नहीं लगी है। वडाई = इज्जत।3। करणी = कर्तव्य, जीवन उद्देश्य। परवारै = परिवार के वास्ते। साधारु = सु आधार। आधार सहित, आसरा देने योग्य।4। अर्थ: हे मन! गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम सदा याद करता रह। ये नाम ही तेरे साथ जाने वाला है साथ निभाने वाला है। रहाउ। हे भाई! गुरू की शरण पड़ के सदा स्थिर प्रभू का नाम-सिमरन ही इन्द्रियों का सही यत्न है, और आत्मिक जीवन की सूझ का मूल है। गुरू की शरण पड़ने से सदा कायम रहने वाले परमात्मा में सुरति जुड़ी रहती है।1। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर वह सदा स्थिर हरी का नाम-सिमरन ऊँची जाति व ऊँची कुल (का मूल) है। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर परमात्मा आ बसता है, और उसका (सदा का) साथी बन जाता है।2। पर वही मनुष्य गुरू के सन्मुख हो सकता है जिसको परमात्मा स्वयं (इस लायक) बनाता है, वह परमात्मा खुद मनुष्य को गुरू के सन्मुख करके सम्मान बख्शता है।3। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी (हृदय में) संभाल, यही करने योग्य काम है। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपने परिवार के वास्ते भी आसरा देने के काबिल हो जाता है।4।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |