श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 570 माइआ मोहु सभु दुखु है खोटा इहु वापारा राम ॥ कूड़ु बोलि बिखु खावणी बहु वधहि विकारा राम ॥ बहु वधहि विकारा सहसा इहु संसारा बिनु नावै पति खोई ॥ पड़ि पड़ि पंडित वादु वखाणहि बिनु बूझे सुखु न होई ॥ आवण जाणा कदे न चूकै माइआ मोह पिआरा ॥ माइआ मोहु सभु दुखु है खोटा इहु वापारा ॥२॥ {पन्ना 570} पद्अर्थ: सभु दुखु = निरा दुख। खोटा = (आत्मिक जीवन में) घाटा डालने वाला। बोलि = बोल के। बिखु = (आत्मिक जीवन को खत्म करने वाली माया के मोह का) जहर। वधहि = बढ़ते हैं। सहसा = सहम। पति = इज्जत। वादु = झगड़ा, बहस। वखाणहि = उचारते हैं। न चूकै = नहीं समाप्त होता।2। अर्थ: हे भाई! माया का मोह निरा दुख ही (पैदा करता) है (निरी माया की खातिर दौड़-भाग) आत्मिक जीवन में घाटा डालने वाला व्यापार है, (इस तरह) झूठ बोल बोल के (आत्मिक मौत लाने वाले मोह का) जहर खाया जाता है, (जिसके कारण मनुष्य के अंदर) अनेकों विकार बढ़ते जाते हैं। अनेकों विकार बढ़ते जाते हैं, ये जगत भी (निरा) सहम (का घर ही प्रतीत होता) है, परमात्मा के नाम से टूट के मनुष्य (लोक-परलोक में) इज्जत गवा लेता है। जिस मनुष्य को सदा माया का मोह प्यारा लगता है उसके जनम-मरण का चक्र कभी समाप्त नहीं होता। हे भाई! माया का मोह निरा दुख ही (पैदा करता) है, (निरी माया की खातिर दौड़-भाग) आत्मिक जीवन में घाटा डालने वाला व्यापार है।2। खोटे खरे सभि परखीअनि तितु सचे कै दरबारा राम ॥ खोटे दरगह सुटीअनि ऊभे करनि पुकारा राम ॥ ऊभे करनि पुकारा मुगध गवारा मनमुखि जनमु गवाइआ ॥ बिखिआ माइआ जिनि जगतु भुलाइआ साचा नामु न भाइआ ॥ मनमुख संता नालि वैरु करि दुखु खटे संसारा ॥ खोटे खरे परखीअनि तितु सचै दरवारा राम ॥३॥ {पन्ना 570} पद्अर्थ: सभि = सारे। परखीअनि = परखे जाते हैं। तितु = उस में। तितु दरबारा = उस दरबार में। सुटीअनि = परे फेंके जाते हैं, रद्द किए जाते हैं। ऊभे = खड़े हुए। करनि = करते हैं। मुगध = मूर्ख। मनमुखि = अपने मन के पीछे चल के। बिखिआ = जहर। जिनि = जिस (माया) ने। भुलाइआ = गलत रास्ते पर डाल दिया। साचा = सदा कायम रहने वाला। भाइआ = पसंद आया। करि = करके। तितु सचै दरवारा = उस सदा कायम रहने वाले दरबार में।3। अर्थ: हे भाई! बुरे और अच्छे सारे (जीव) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा के दरबार में परखे जाते हैं। बुरे लोग तो दरबार में रद्द कर दिए जाते हैं, वे वहां खड़े हो के पुकार करते हैं। जिन मनुष्यों ने अपने मन के पीछे चल के अपना मानस जन्म गवा लिया, वह मूर्ख गवार (प्रभू की दरगाह में परे फेंके जाने पर) खड़े पुकार करते हैं (तरले मिन्नतें करते हैं)। (आत्मिक जीवन को खत्म करने वाली) जिस जहर-माया ने जगत को गलत रास्ते पर डाल रखा है (उस में फंस के उनको) सदा कायम रहने वाला हरी-नाम अच्छा नहीं था लगा। (संत-जन ऐसे मनुष्यों को उपदेश तो करते हैं, पर) अपने मन के पीछे चलने वाला जगत सेंत-जनों के साथ वैर करके दुख सहेड़ता रहता है। हे भाई! बुरे और अच्छे (सारे जीव) उस सदा कायम रहने वाले के दरबार में परखे जाते हैं।3। आपि करे किसु आखीऐ होरु करणा किछू न जाई राम ॥ जितु भावै तितु लाइसी जिउ तिस दी वडिआई राम ॥ जिउ तिस दी वडिआई आपि कराई वरीआमु न फुसी कोई ॥ जगजीवनु दाता करमि बिधाता आपे बखसे सोई ॥ गुर परसादी आपु गवाईऐ नानक नामि पति पाई ॥ आपि करे किसु आखीऐ होरु करणा किछू न जाई ॥४॥४॥ {पन्ना 570} पद्अर्थ: होरु = (उसकी रजा के उलट कोई) अन्य (काम)। जितु = जिस (काम) में। तितु = उस (काम) में। तिस दी: शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘दी’ के कारण हटा दी गई है। वरीआमु = शूरवीर। फुसी = कमजोर। करमि = (जीव के किए) कर्म अनुसार। बिधाता = पैदा करने वाला। परसादी = कृपा से। आपु = स्वै भाव (शब्द ‘आपि’ और ‘आपु’ में अंतर का ध्यान रखें)। नामि = नाम में (जुड़ के)। पति = इज्जत।4। अर्थ: (हे भाई! जीवों को ‘खोटे-खरे’ परमात्मा) खुद ही बनाता है। (किसी जीव के खोटे अथवा खरे होने का गिला) किसी के पास नहीं किया जा सकता। (प्रभू की रजा के उलट) और कुछ भी नहीं किया जा सकता। जिस काम में (जीवों को लगाने की प्रभू की) मर्जी होती है उस काम में लगा देता है, जैसे उसकी रजा होती है (वैसे करवाता है)। जैसे उस प्रभू की रजा होती है वैसे ही (जीवों से काम) करवाता है (अपने आप में) ना कोई जीव शूरवीर है ना ही कोई कमजोर है। जगत का सहारा दातार जो जीवों के किए कर्मों के अनुसार जीवों को पैदा करने वाला है वह स्वयं ही कृपा करता है (और जीवों को सही जीवन राह बताता है)। हे नानक! (कह– हे भाई!) गुरू की कृपा से ही स्वै भाव दूर किया जा सकता है (जिसने स्वै भाव दूर कर लिया, उसने) परमात्मा के नाम में जुड़ के (लोक-परलोक में) सम्मान पा लिया है। (हे भाई! जीवों को खोटे-खरे परमात्मा) खुद ही बनाता है (किसी जीव के खोटे या खरे होने का गिला) किसी के पास नहीं किया जा सकता। (प्रभू की रजा के उलट) और कुछ भी नहीं किया जा सकता।4।4। वडहंसु महला ३ ॥ सचा सउदा हरि नामु है सचा वापारा राम ॥ गुरमती हरि नामु वणजीऐ अति मोलु अफारा राम ॥ अति मोलु अफारा सच वापारा सचि वापारि लगे वडभागी ॥ अंतरि बाहरि भगती राते सचि नामि लिव लागी ॥ नदरि करे सोई सचु पाए गुर कै सबदि वीचारा ॥ नानक नामि रते तिन ही सुखु पाइआ साचै के वापारा ॥१॥ {पन्ना 570} पद्अर्थ: सचा = सदा साथ निभने वाला। वणजीअै = खरीदा जा सकता है। अफारा = बहुत। सचि वापारि = सदा स्थिर हरी के नाम सिमरन के व्यापार में। अंतरि = हृदय में। बाहरि = दुनिया के साथ कार्य व्यवहार करते हुए। लिव = लगन। सच = सदा स्थिर हरी नाम। सबदि = शबद में। नामि = नाम में। साचै = सदा कायम रहने वाले प्रभू के।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही सदा साथ निभने वाला सौदा है व्यापार है। ये हरी नाम गुरू की मति पे चल कर कमाया जा सकता है, इसका मूल्य बहुत ही ज्यादा है (दुनिया का कोई भी पदार्थ इसकी बराबरी नहीं कर सकता)। सदा स्थिर प्रभू के नाम का व्यापार बहुत अनमोल है, जो मनुष्य इस व्यापार में लगते हैं वे भाग्यशाली हो जाते हैं। वे मनुष्य अंतरात्मे भक्ति रंग में रंगे रहते हैं, दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी वे भक्ति रंग में रंगे रहते हैं, सदा-स्थिर हरी-नाम में उनकी लगन लगी रहती है। पर, हे भाई! वही मनुष्य गुरू के शबद द्वारा विचार करके सदा-स्थिर हरी-नाम सौदा हासिल करता है जिस पर परमात्मा मेहर की नजर करता है। हे नानक! (कह–) जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं उन्होंने ही सदा-स्थिर प्रभू के नाम व्यापार में आत्मिक आनंद प्राप्त किया है।1। हंउमै माइआ मैलु है माइआ मैलु भरीजै राम ॥ गुरमती मनु निरमला रसना हरि रसु पीजै राम ॥ रसना हरि रसु पीजै अंतरु भीजै साच सबदि बीचारी ॥ अंतरि खूहटा अम्रिति भरिआ सबदे काढि पीऐ पनिहारी ॥ जिसु नदरि करे सोई सचि लागै रसना रामु रवीजै ॥ नानक नामि रते से निरमल होर हउमै मैलु भरीजै ॥२॥ {पन्ना 570} पद्अर्थ: भरीजै = भर जाती है, लिबड़ जाती है, मैला हो जाता है। रसना = जीभ (से)। पीजै = पीना चाहिए। अंतरु = अंदरूनी, हृदय (शब्द ‘अंतरु’ और ‘अंतरि’ में फर्क याद रखें)। अंतरि = अंदर, मन में। खूहटा = सुंदर सा कूँआ, चश्मा। अंम्रिति = अमृत से, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। पीअै = पीई जाती है। पनिहारी = पानी भरने वाली। सचि = सदा स्थिर हरी नाम में। रवीजै = सिमरना चाहिए। होर = बाकी की दुनिया।2। अर्थ: हे भाई! अहंकार और माया (की ममता मनुष्य के आत्मिक जीवन को मैला करने वाली) मैल है, मनुष्य का मन माया (की ममता) की मैल से लिबड़ा रहता है। गुरू की मति पर चलने से मन पवित्र हो जाता है (इस वास्ते, हे भाई! गुरू की मति पर चल के) जीभ से परमात्मा का नाम-जल पीते रहना चाहिए। जीभ हरी-नाम-जल पीते रहना चाहिए, (इस नाम जल से) हृदय तरो-तर हो जाता है, और सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद से विचारवान हो जाता है। हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से भरा हुआ चश्मा (कुई) मनुष्य के अंदर ही है, जिस मनुष्य की सुरति गुरू के शबद के द्वारा ये नाम-जल भरना जानती है वह मनुष्य (अंदर के चश्मे में से नाम-जल) निकाल के पीता रहता है। (पर, हे भाई!) वही मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम में लगता है जिस पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है। (हे भाई!) जीभ से परमात्मा का नाम सिमरते रहना चाहिए। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, वे पवित्र हो जाते हैं, बाकी की दुनिया अहंकार की मैल से लिबड़ी रहती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |