श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 571 पंडित जोतकी सभि पड़ि पड़ि कूकदे किसु पहि करहि पुकारा राम ॥ माइआ मोहु अंतरि मलु लागै माइआ के वापारा राम ॥ माइआ के वापारा जगति पिआरा आवणि जाणि दुखु पाई ॥ बिखु का कीड़ा बिखु सिउ लागा बिस्टा माहि समाई ॥ जो धुरि लिखिआ सोइ कमावै कोइ न मेटणहारा ॥ नानक नामि रते तिन सदा सुखु पाइआ होरि मूरख कूकि मुए गावारा ॥३॥ {पन्ना 571} पद्अर्थ: जोतकी = ज्योतिषी। सभि = सारे। कूकदे = ऊँचा ऊँचा बोल के (औरों को ही) सुनाते हैं। पहि = पास, साथ। अंतरि = (उनके) अंदर। जगति = जगत में। आवणि = आने मे। जाणि = जाने में। आवणि जाणि = जनम मरन के चक्र में। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाला माया के मोह का जहर। सिउ = साथ। समाई = समा जाता है, गर्क हो जाता है, आत्मिक जीवन समाप्त कर लेता है। धुर = धुर दरगाह से। नामि = नाम में। होरि = (शब्द ‘होर’ का बहुवचन) बाकी के मनुष्य। कूकि = ऊँचा ऊँचा (औरों को) उपदेश कर करके। मुऐ = आत्मिक मौत मरते हैं।3। अर्थ: पंडित और ज्योतिषी, ये सारे (ज्योतिषि आदि की पुस्तकें) पढ़-पढ़ के ऊँचा ऊँचा औरों को उपदेश करते रहते हैं, पर ये ऊँची आवाज में किसको सुनाते हैं? इनके अपने अंदर तो माया का मोह (प्रबल) है, (इनके अपने मन को तो माया की) मैल लगी रहती है, (इनके सारे उपदेश) माया के ही व्यापार हैं। (ऐसे मनुष्य को) जगत में (ये धर्म उपदेश) माया के व्यापार (की तरह ही) प्यारे हैं, (औरों को उपदेश करता है, पर स्वयं) जनम-मरन के चक्र में दुख पाता रहता है। (ऐसा मनुष्य सारी उम्र आत्मिक मौत लाने वाला मोह-) जहर का कीड़ा बना रहता है, इसी जहर से चिपका रहता है, इसी गंद में आत्मिक जीवन समाप्त कर लेता है। (परमात्मा ने ऐसे मनुष्य के पिछले किए कर्मों के अनुसार) जो कुछ धुर से (उसके माथे पर) लिख दिया है (जगत में आ के) ये वही कुछ कमाता रहता है। कोई मनुष्य (उसके माथे के उन लेखों को) मिटा नहीं सकता। हे नानक! जो मनुष्य माया के नाम-रंग में रंगे रहते हैं वे सदा ही आनंद भोगते हैं, बाकी के वो मूर्ख हैं गवार हैं जो औरों को उपदेश कर करके खुद आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं।3। माइआ मोहि मनु रंगिआ मोहि सुधि न काई राम ॥ गुरमुखि इहु मनु रंगीऐ दूजा रंगु जाई राम ॥ दूजा रंगु जाई साचि समाई सचि भरे भंडारा ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै सचि सवारणहारा ॥ आपे मेले सो हरि मिलै होरु कहणा किछू न जाए ॥ नानक विणु नावै भरमि भुलाइआ इकि नामि रते रंगु लाए ॥४॥५॥ {पन्ना 571} पद्अर्थ: मोहि = मोह में। सुधि = (आत्मिक जीवन की) समझ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। जाई = दूर हो जाती है। साचि = सदा स्थिर हरी नाम में। सचि = सदा स्थिर हरी नाम धन से। भरमि = भटकना में (पड़ के)। इकि = (शब्द ‘इक’ से बहुवचन) कई मनुष्य। लाऐ = लगा के।4। अर्थ: हे भाई! माया के मोह में (इस मनुष्य का) मन रंगा जाता है, मोह में (फस के उसको आत्मिक जीवन की) कोई समझ नहीं आती। अगर इस मन को गुरू की शरण पड़ के (नाम-रंग से) रंग लिया जाए, तो (इससे) माया के मोह का रंग उतर जाता है। (जब मनुष्य के मन से) माया के मोह का रंग उतर जाता है, तब (मनुष्य) सदा-स्थिर हरी नाम में लीन हो जाता है, सदा स्थिर हरी नाम धन से (उसके आत्मिक) खजाने भरे जाते हैं। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है वही (इस भेद को) समझता है। वह सदा-स्थिर हरी-नाम से अपने जीवन को सुंदर बना लेता है। पर, हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा खुद (अपने साथ) मिलाता है वही परमात्मा को मिल सकता है (परमात्मा की अपनी मेहर के अतिरिक्त) और कोई उपाय बताया नहीं जा सकता। हे नानक! जगत, नाम के बिना भटकना में पड़ के गलत राह पर पड़ा रहता है। कई ऐसे भी हैं जो (प्रभू चरणों से) प्रीति जोड़ के प्रभू के नाम-रंग में रंगे रहते हैं।4।5। वडहंसु महला ३ ॥ ए मन मेरिआ आवा गउणु संसारु है अंति सचि निबेड़ा राम ॥ आपे सचा बखसि लए फिरि होइ न फेरा राम ॥ फिरि होइ न फेरा अंति सचि निबेड़ा गुरमुखि मिलै वडिआई ॥ साचै रंगि राते सहजे माते सहजे रहे समाई ॥ सचा मनि भाइआ सचु वसाइआ सबदि रते अंति निबेरा ॥ नानक नामि रते से सचि समाणे बहुरि न भवजलि फेरा ॥१॥ {पन्ना 571} पद्अर्थ: आवागउणु = (जगत में) आना और (जगत से) जाना, जनम मरन। संसारि = जगत (का मोह)। अंति = आखिर को। सचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में (जुड़ने से)। निबेड़ा = (आवगवन का) खात्मा। सचा = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। सहजे = आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। मनि = मन में। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सबदि = गुरू के शबद में। नामि = नाम में। बहुरि = दुबारा, फिर। भवजलि = संसार समुंद्र में।1। अर्थ: हे मेरे मन! जगत (का मोह जीव के वास्ते) जनम-मरन (के चक्कर लाता) है, आखिर सदा कायम रहने वाले परमात्मा में जुड़ने से (जनम-मरण के चक्कर का) खात्मा हो जाता है। जिस मनुष्य को सदा स्थिर रहने वाला प्रभू खुद ही बख्शता है उसको जगत में बार बार फेरा नहीं डालना पड़ता। उसको बार बार जनम मरण के चक्कर नहीं मिलते, सदा स्थिर हरी-नाम में रंगे जाते हैं, वे आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं, और आत्मिक अडोलता के द्वारा ही परमात्मा में लीन हो जाते हैं। हे मेरे मन! जिन मनुष्यों को सदा स्थिर रहने वाला प्रभू प्यारा लगने लग जाता है, जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू को अपने मन में बसा लेते हैं, जो मनुष्य गुरू के शबद में रंगे जाते हैं, उनके जनम-मरण का आखिर खात्मा हो जाता है। हे नानक! प्रभू के नाम-रंग में रंगे हुए मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू में लीन हो जाते हैं, उनको संसार-समुंद्र में बार-बार फेरा नहीं डालना पड़ता।1। माइआ मोहु सभु बरलु है दूजै भाइ खुआई राम ॥ माता पिता सभु हेतु है हेते पलचाई राम ॥ हेते पलचाई पुरबि कमाई मेटि न सकै कोई ॥ जिनि स्रिसटि साजी सो करि वेखै तिसु जेवडु अवरु न कोई ॥ मनमुखि अंधा तपि तपि खपै बिनु सबदै सांति न आई ॥ नानक बिनु नावै सभु कोई भुला माइआ मोहि खुआई ॥२॥ {पन्ना 571} पद्अर्थ: सभु = सारा, निरा। बरलु = पागलपन। दूजै भाइ = माया के मोह में। खुआई = गलत रास्ते पर पड़ी हुई है। हेतु = मोह। हेते = मोह में ही। पलचाई = उलझी हुई, फसी हुई। पुरबि = पहले जनम में। जिनि = जिस (करतार) ने। करि = कर के, माया का मोह रच के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। तपि तपि = जल जल के। खपै = दुखी होता है। मोहि = मोह में।2। अर्थ: माया का मोह पूरी तरह पागलपन है (जो दुनिया को चिपका हुआ है, दुनिया इस) माया के मोह में सही रास्ते से टूटती जा रही है। (ये मेरी) माँ (है, ये मेरा) पिता (है, ये मेरी स्त्री है, ये मेरा पुत्र है’ ये भी) निरा मोह है, इस मोह में ही दुनिया उलझी पड़ी है। पूबर्लि जनम में किए कर्मों के अनुसार (दुनिया संन्धियों के) मोह में फँसी रहती है, (अपनी किसी समझदारी-चतुराई से पूबर्लि कर्मों के संस्कारों को) कोई मनुष्य मिटा नहीं सकता। जिस करतार ने ये सृष्टि पैदा की है, वह यह माया का मोह रच के (तमाशा) देख रहा है (कोई उसके रास्ते पर रुकावट नहीं खड़ी कर सकता, क्योंकि) उसके बराबर का कोई और नहीं। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में अंधा हो के (मोह में) जल-जल के दुखी होता है, गुरू के शबद के बिना उसको शांति नहीं मिल सकती। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना हरेक जीव गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है, माया के मोह के कारण सही जीवन राह से टूटा हुआ है।2। एहु जगु जलता देखि कै भजि पए हरि सरणाई राम ॥ अरदासि करीं गुर पूरे आगै रखि लेवहु देहु वडाई राम ॥ रखि लेवहु सरणाई हरि नामु वडाई तुधु जेवडु अवरु न दाता ॥ सेवा लागे से वडभागे जुगि जुगि एको जाता ॥ जतु सतु संजमु करम कमावै बिनु गुर गति नही पाई ॥ नानक तिस नो सबदु बुझाए जो जाइ पवै हरि सरणाई ॥३॥ {पन्ना 571} पद्अर्थ: देखि कै = देख के। करीं = मैं करता हूँ। वडाई = इज्जत। दाता = बख्शिशें करने वाला। अवरु = कोई और। जुगि जुगि ऐको = जो हरेक युग में एक खुद ही खुद है। जाता = गहरी सांझ डाली। जतु = काम वासना रोकने का यतन। सतु = उच्च आचरण। संजमु = इन्द्रियों को वश में करने का यत्न। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।3। तिस नो: शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! इस संसार को (विकारों में) जलता देख के (जो मनुष्य) दौड़ के परमात्मा की शरण जा पड़ते हैं (वे जलने से बच जाते हैं)। मैं (भी) पूरे गुरू के आगे अरजोई करता हूँ- मुझे (विकारों में जलने से) बचा ले, मुझे (ये) बड़प्पन बख्श। मुझे अपनी शरण में रख परमात्मा का नाम जपने की वडिआई बख्श। ये दाति बख्शने की समर्था रखने वाला तेरे जितना और कोई नहीं। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की सेवा भक्ति में लगते हैं, वे बहुत भाग्यशाली हैं, वह उस परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं जो हरेक युग में एक स्वयं ही स्वयं है। (हे भाई! जो कोई मनुष्य) जत सत संजम (आदि) कर्म करता है (उसका ये उद्यम व्यर्थ जाता है), गुरू की शरण पड़े बिना ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा की शरण जा पड़ता है, परमात्मा उसको गुरू का शबद समझने की दाति बख्शता है।3। जो हरि मति देइ सा ऊपजै होर मति न काई राम ॥ अंतरि बाहरि एकु तू आपे देहि बुझाई राम ॥ आपे देहि बुझाई अवर न भाई गुरमुखि हरि रसु चाखिआ ॥ दरि साचै सदा है साचा साचै सबदि सुभाखिआ ॥ घर महि निज घरु पाइआ सतिगुरु देइ वडाई ॥ नानक जो नामि रते सेई महलु पाइनि मति परवाणु सचु साई ॥४॥६॥ {पन्ना 571} पद्अर्थ: देइ = देता है। देहि = तू देता है। बुझाई = समझ। न भाई = पसंद नहीं आती। दरि = दर से। साचै दरि = सदा स्थिर प्रभू के दर से। साचै सबदि = प्रभू की सिफत सालाह के शबद के द्वारा। सुभाखिआ = सिफत सालाह करता है। घर महि = हृदय में। निज घरु = अपना असल घर, प्रभू की हजुरी। नामि = नाम में। सेई = वे लोग ही। पाइनि = पा लेते हैं। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। साई मति = वही बुद्धि।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा जो बुद्धि (मनुष्य को) देता है (उसके अंदर) वही मति प्रकट होती है। (प्रभू की दी हुई मति के बिना) और कोई मति (मनुष्य ग्रहण) नहीं (कर सकता)। हे प्रभू! (हरेक जीव के) अंदर और बाहर सिर्फ तू ही तू बसता है, तू खुद ही जीव को समझ बख्शता है। (हे प्रभू!) तू खुद ही (जीव को) अक्ल देता है (तेरी दी हुई अक्ल के बिना) कोई और (अकल जीव को) पसंद ही नहीं आ सकती। (तभी तो, हे भाई!) गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य परमात्मा के नाम का स्वाद चखता है। गुरू के शबद के माध्यम से जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह करता है, वह सदा-स्थिर प्रभू के दर पर सदा अडोल-चिक्त टिका रहता है। हे भाई! जिस मनुष्य को सतिगुरू वडिआई देता है वह अपने हृदय में ही प्रभू की हजूरी हासिल कर लेता है। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, वह ही परमात्मा की हजूरी प्राप्त करते हैं, सदा स्थिर प्रभू उनकी वह (नाम सिमरने वाली) बुद्धि परवान करता है।4।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |