श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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वडहंसु महला ४ छंत    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरै मनि मेरै मनि सतिगुरि प्रीति लगाई राम ॥ हरि हरि हरि हरि नामु मेरै मंनि वसाई राम ॥ हरि हरि नामु मेरै मंनि वसाई सभि दूख विसारणहारा ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ धनु धनु सतिगुरू हमारा ॥ ऊठत बैठत सतिगुरु सेवह जितु सेविऐ सांति पाई ॥ मेरै मनि मेरै मनि सतिगुर प्रीति लगाई ॥१॥ {पन्ना 572}

पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। सतिगुरि = गुरू ने। मेरै मंनि = मेरे मन में। सभि = सारे। विसारणहारा = दूर करने लायक। धनु धनु = धन्य धन्य, साराहनीय। सेवह = हम सेवा करते हैं। जितु = जिस के द्वारा। जितु सेविअै = जिस सेवा से, जिसकी सेवा से। सतिगुर प्रीति = गुरू की प्रीति।1।

अर्थ: हे भाई! गुरू ने मेरे मन में (अपने चरणों की) प्रीति पैदा की है। गुरू ने मेरे मन में परमात्मा का नाम बसा दिया है। (गुरू ने) मेरे मन में (वह) हरी-नाम बसा दिया है जो सारे दुख दूर करने की समर्था वाला है। बड़े भाग्यों से मैंने सतिगुरू के दर्शन कर लिए हैं। मेरा गुरू बहुत ही सराहनीय है। अब मैं उठता-बैठता हर वक्त गुरू की बताई हुई सेवा करता हूँ जिस सेवा की बरकति से मैंने आत्मिक शांति हासिल कर ली है। हे भाई! मेरे मन में गुरू का प्यार पैदा हो गया है।1।

हउ जीवा हउ जीवा सतिगुर देखि सरसे राम ॥ हरि नामो हरि नामु द्रिड़ाए जपि हरि हरि नामु विगसे राम ॥ जपि हरि हरि नामु कमल परगासे हरि नामु नवं निधि पाई ॥ हउमै रोगु गइआ दुखु लाथा हरि सहजि समाधि लगाई ॥ हरि नामु वडाई सतिगुर ते पाई सुखु सतिगुर देव मनु परसे ॥ हउ जीवा हउ जीवा सतिगुर देखि सरसे ॥२॥ {पन्ना 572}

पद्अर्थ: हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है, (मेरा मन) रस से भर जाता है। द्रिढ़ाऐ = (हृदय में) पक्का टिका देता है। जपि = जप के। विगसे = खिल उठता है। कमल = कमल का फूल। परगासे = खिलता है। नवं निधि = नौ निधियां, दुनिया के सारे नौ खजाने। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाधि = स्थिर सुरति। ते = से। परसे = परस, छू के।2।

अर्थ: हे भाई! गुरू के दर्शन करके मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है, (मेरा मन) रस से भर जाता है। गुरू मेरे मन में परमात्मा का नाम पक्का करके टिका देता है, (उस) हरी-नाम को जप-जप के मेरा मन खिला रहता है। परमात्मा का नाम जप-जप के मेरा हृदय कमल फूल की तरह खिल उठता है, हरी-नाम ढूँढ के (मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि) मैंने दुनिया के नौ खजाने हासिल कर लिए हैं। मेरे अंदर से अहंकार का रोग दूर हो गया है, मेरा सारा दुख उतर गया है, हरी-नाम ने आत्मिक अडोलता में मेरी सुरति स्थाई तौर पर जोड़ दी है। हे भाई! यह हरी-नाम (जो मेरे वास्ते बड़ी) इज्जत (है), मैंने गुरू से हासिल की है, गुर-देव (के चरणों) को छूह के मेरा मन आनंद का अनुभव करता है। हे भाई! गुरू के दर्शन करके मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है, (मेरा मन आनंद) रस से भर जाता है।2।

कोई आणि कोई आणि मिलावै मेरा सतिगुरु पूरा राम ॥ हउ मनु तनु हउ मनु तनु देवा तिसु काटि सरीरा राम ॥ हउ मनु तनु काटि काटि तिसु देई जो सतिगुर बचन सुणाए ॥ मेरै मनि बैरागु भइआ बैरागी मिलि गुर दरसनि सुखु पाए ॥ हरि हरि क्रिपा करहु सुखदाते देहु सतिगुर चरन हम धूरा ॥ कोई आणि कोई आणि मिलावै मेरा सतिगुरु पूरा ॥३॥ {पन्ना 572}

पद्अर्थ: आणि = ला के। हउ = मैं। देवा = देऊँ। तिसु = उसको। काटि = काट के। देई = मैं दूँ। मनि = मन में। बैरागु = मिलने की तमन्ना। बैरागी मनि = वैरागी मन में। मिलि गुर = गुरू को मिल के। दरसनि = (गुरू के) दर्शनों से। हरि हरि = हे हरी! हम = मुझे। धूरा = धल।3।

अर्थ: अगर कोई गुरमुख मुझे पूरा गुरू ला के मिला दे, मैं अपना मन अपना शरीर उसके हवाले कर दूँ, अपना शरीर काट के उसे दे दूँ। जो कोई गुरमुख मुझे गुरू के बचन सुनाए, मैं अपना मन काट के अपना तन काट के (मन और तन के अपनत्व का मोह काट के) उसके हवाले कर दूँ। मेरे उतावले हो रहे मन में गुरू के दर्शनों की तमन्ना पैदा हो रही है। गुरू को मिल के, गुरू के दर्शनों से मेरा मन सुख अनुभव करता है।

हे हरी! हे सुखदाते हरी! मेहर कर, मुझे पूरे गुरू के चरणों की धूड़ बख्श। (मेहर कर, कोई गुरमुख सज्जन) मुझे पूरा गुरू ला के मिला दे।3।

गुर जेवडु गुर जेवडु दाता मै अवरु न कोई राम ॥ हरि दानो हरि दानु देवै हरि पुरखु निरंजनु सोई राम ॥ हरि हरि नामु जिनी आराधिआ तिन का दुखु भरमु भउ भागा ॥ सेवक भाइ मिले वडभागी जिन गुर चरनी मनु लागा ॥ कहु नानक हरि आपि मिलाए मिलि सतिगुर पुरख सुखु होई ॥ गुर जेवडु गुर जेवडु दाता मै अवरु न कोई ॥४॥१॥ {पन्ना 572}

पद्अर्थ: जेवडु = जितना, बराबर का। मै = मुझे। दानो = दानु। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया के मोह की कालिख से रहित। जिनी = जिन्होंने। सेवक भाइ = सेवक वाली भावना से, सेवक वाले प्यार से। मिलि = मिल के।1।

अर्थ: हे भाई! गुरू के बराबर का दाता मुझे और कोई नहीं (दिखता) (क्योंकि) गुरू (उस परमात्मा के नाम का) दान बख्शता है जो सर्व-व्यापक है और जो माया के प्रभाव से परे है। (गुरू की कृपा से) जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम सिमरा है, उनका (हरेक किस्म का) दुख, भरम और डर दूर हो गया। जिन भाग्यशाली मनुष्यों का मन गुरू के चरणों में जुड़ गया, वह सेवक भावना के द्वारा (परमात्मा में) मिल गए।

हे नानक! कह– परमातमा खुद ही (जीव को अपने साथ) मिलाता है, और, गुरू को मिल के (जीव के अंदर) आत्मिक आनंद पैदा होता है। हे भाई! गुरू के बराबर का दाता मुझे और कोई नहीं दिखता।4।1।

वडहंसु महला ४ ॥ हंउ गुर बिनु हंउ गुर बिनु खरी निमाणी राम ॥ जगजीवनु जगजीवनु दाता गुर मेलि समाणी राम ॥ सतिगुरु मेलि हरि नामि समाणी जपि हरि हरि नामु धिआइआ ॥ जिसु कारणि हंउ ढूंढि ढूढेदी सो सजणु हरि घरि पाइआ ॥ एक द्रिस्टि हरि एको जाता हरि आतम रामु पछाणी ॥ हंउ गुर बिनु हंउ गुर बिनु खरी निमाणी ॥१॥ {पन्ना 572}

पद्अर्थ: हंउ = मैं। खरी = बहुत। निमाणी = आजिज, निम्न सी, तुच्छ सी। जगजीवनु = जगत का जीवन, जगत को जिंद देने वाला। गुर मेलि = गुरू के मिलाप से। मेलि हरी = हरी के मिलाप में। नामि = नाम में। जपि = जपने से। जिसु कारणि = जिस (हरी सज्जन को मिलने) की खातिर। घरि = हृदय में। द्रिस्टि = दृष्टि, निगाह। ऐको = एक को जपो। जाता = पहचाना। आतम रामु = सर्व व्यापक प्रभू।1।

अर्थ: गुरू के बिना मैं बहुत ही तुच्छ हूँ। (जब गुरू मिल गया तब मुझे) जगत-जीवन दातार प्रभू (मिल गया), गुरू के मिलाप की बरकति से मैं (जगजीवन प्रभू में) लीन हो गई। (जब) गुरू (मिला) तब मैं परमात्मा के मिलाप में परमात्मा के नाम में लीन हो गई, मैंने परमात्मा का नाम जपना आरम्भ कर दिया, नाम आराधना शुरू कर दिया। जिस सज्जन प्रभू को मिलने के लिए मैं इतनी तलाश कर रही थी उस सज्जन हरी को मैंने अपने दिल में पा लिया। मैंने एक निगाह से एक परमात्मा को (हर जगह बसता) समझ लिया, मैंने सर्व-व्यापक राम को पहचान लिया। गुरू के बगैर मैं (पहले) बहुत ही छोटी थी (आजिज थी)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh