श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 573 जिना सतिगुरु जिन सतिगुरु पाइआ तिन हरि प्रभु मेलि मिलाए राम ॥ तिन चरण तिन चरण सरेवह हम लागह तिन कै पाए राम ॥ हरि हरि चरण सरेवह तिन के जिन सतिगुरु पुरखु प्रभु ध्याइआ ॥ तू वडदाता अंतरजामी मेरी सरधा पूरि हरि राइआ ॥ गुरसिख मेलि मेरी सरधा पूरी अनदिनु राम गुण गाए ॥ जिन सतिगुरु जिन सतिगुरु पाइआ तिन हरि प्रभु मेलि मिलाए ॥२॥ {पन्ना 573} पद्अर्थ: जिन = जिन्होंने। मेलि = मेल में, अपने चरणों के मिलाप में। सरेवह = हम सेवा करते हैं, हम सेवा करने को तैयार हैं। लागह = हम लगते हैं, हम लगने को तैयार हैं। कै पाऐ = के चरणों में। हरि हरि = हे हरी! ध्याइआ = ध्याया, आराधा, दिल में बसाया। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। सरधा = तमन्ना। पूरि = पूरी कर। हरि राइआ = हे प्रभू बाहशाह! गुरसिख मेलि = गुरसिखों के मिलाप में। पूरी = पूरी हो सकती है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गाऐ = गाता है।2। अर्थ: हे भाई! जिन (भाग्यशालियों ने) गुरू को पा लिया, उन्हें हरी-प्रभू अपने चरणों में जोड़ लेता है। मैं उनके चरणों की सेवा करने को तैयार हूँ, उनके चरण लगने को तैयार हूँ। हे हरी! जिन मनुष्यों ने गुरू को अपने हृदय में बसा लिया है (तुझे) प्रभू को दिल में टिका लिया है, मैं उनकी सेवा करनी चाहता हूँ। हे प्रभू पातशाह! तू बड़ा दातार है, तू सबके दिल की जानने वाला है, मेरी ये चाहत पूरी कर। हे भाई! मेरी ये चाहत गुरसिखों की संगति में पूरी हो सकती है (जिसको गुरसिखों की संगति प्राप्त होती है, वह) हर वक्त परमात्मा के गुण गाने लग जाता है। जिन (भाग्यशालियों) ने गुरू पा लिया, उन्हें हरी-प्रभू अपने चरणों में जोड़ लेता है।2। हंउ वारी हंउ वारी गुरसिख मीत पिआरे राम ॥ हरि नामो हरि नामु सुणाए मेरा प्रीतमु नामु अधारे राम ॥ हरि हरि नामु मेरा प्रान सखाई तिसु बिनु घड़ी निमख नही जीवां ॥ हरि हरि क्रिपा करे सुखदाता गुरमुखि अम्रितु पीवां ॥ हरि आपे सरधा लाइ मिलाए हरि आपे आपि सवारे ॥ हंउ वारी हंउ वारी गुरसिख मीत पिआरे ॥३॥ {पन्ना 573} पद्अर्थ: हंउ = मैं। वारी = सदके, कुर्बान। नामो = नाम ही। अधारे = आसरा। प्रान सुखाई = प्राण का साथी। निमख = आँख झपकने जितना समय। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। आपे = खुद ही। सरधा = श्रद्धा, निश्चय, तांघ। सवारे = जीवन सोहाना बनाता है।3। अर्थ: मैं उस प्यारे मित्र गरासिख से सदके जाता हूँ कुर्बान जाता हूँ, जो मुझे सदैव परमात्मा का नाम सुनाता रहे। परमात्मा का नाम ही मेरा मित्र है, (मेरी जिंदगी का) आसरा है परमात्मा का नाम मेरी जीवात्मा का साथी है, उस (नाम) के बिना मैं एक घड़ी भर आँख झपकने जितने समय के लिए भी नहीं रह सकता। सुखों को देने वाला प्रभू अगर मेहर करे, तो ही मैं गुरू के सन्मुख रहके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी सकता हूँ। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही अपने (मिलाप की) चाहत पैदा करता है खुद ही (अपने चरणों में) जोड़ता है। परमात्मा स्वयं ही (अपना नाम दे के मनुष्य का जीवन) सुंदर बनाता है। मैं गुरू के सिख से, प्यारे मित्र से सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ।3। हरि आपे हरि आपे पुरखु निरंजनु सोई राम ॥ हरि आपे हरि आपे मेलै करै सो होई राम ॥ जो हरि प्रभ भावै सोई होवै अवरु न करणा जाई ॥ बहुतु सिआणप लइआ न जाई करि थाके सभि चतुराई ॥ गुर प्रसादि जन नानक देखिआ मै हरि बिनु अवरु न कोई ॥ हरि आपे हरि आपे पुरखु निरंजनु सोई ॥४॥२॥ {पन्ना 573} पद्अर्थ: आपे = खुद ही। पुरखु = सवै व्यापक। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के प्रभाव से रहित। प्रभ भावै = प्रभू को अच्छा लगता है। अवरु = कुछ और। सभि = सारे। प्रसादि = कृपा से।4। अर्थ: हे भाई! सवै-व्यापक और माया के प्रभाव से रहित परमात्मा (सब कुछ करने के लायक) खुद ही खुद है। वह परमात्मा स्वयं ही (जीवों को अपने चरणों में) मिलाता है, जो कुछ वह करता है वही होता है। हे भाई! जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वही होता है (उसकी रजा के उलट) और कुछ भी नहीं किया जा सकता। हे दास नानक! (कह–) मैंने गुरू की कृपा से (उस परमात्मा के) दर्शन किए हैं। मुझे परमात्मा के बिना और कोई (सहारा) नहीं (दिखाई देता)। हे भाई! सर्व-व्यापक और माया के प्रभाव से रहित परमात्मा स्वयं ही (सब कुछ करने योग्य) है।4।2। वडहंसु महला ४ ॥ हरि सतिगुर हरि सतिगुर मेलि हरि सतिगुर चरण हम भाइआ राम ॥ तिमर अगिआनु गवाइआ गुर गिआनु अंजनु गुरि पाइआ राम ॥ गुर गिआन अंजनु सतिगुरू पाइआ अगिआन अंधेर बिनासे ॥ सतिगुर सेवि परम पदु पाइआ हरि जपिआ सास गिरासे ॥ जिन कंउ हरि प्रभि किरपा धारी ते सतिगुर सेवा लाइआ ॥ हरि सतिगुर हरि सतिगुर मेलि हरि सतिगुर चरण हम भाइआ ॥१॥ {पन्ना 573} पद्अर्थ: हरि = हे हरी! मेलि = मिलाप में। सतिगुर मेलि = सतिगुरू के मिलाप में (रख), गुरू के चरणों में रख। हम = मुझे, हमें। भाइआ = अच्छे लगते हैं। तिमर = अंधेरा। अगिआनु = बेसमझी, आत्मिक जीवन की ओर से अज्ञानता। गिआनु = ज्ञान, आत्मिक जीवन की समझ। अंजनु = सुरमा। गुरि = गुरू के द्वारा। सतिगुरू = गुरू के माध्यम से। अंधेर = अंधकार। सेवि = सेवा करके। परम पदु = सबसे ऊँचा दर्जा। सास गिरासे = हरेक सांस और ग्रास से। प्रभि = प्रभू ने। ते = वे लोग।1। अर्थ: हे हरी! मुझे गुरू के चरणों में रख, मुझे गुरू के चरणों में रख। गुरू के चरण मुझे प्यारे लगते हैं। (जिस मनुष्य ने) गुरू के माध्यम से आत्मिक जीवन की सूझ (का) अंजन हासिल कर लिया, (उसने अपने अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (अज्ञानता का) अंधकार दूर कर लिया। जिस मनुष्य ने गुरू से ज्ञान का सुरमा ले लिया उस मनुष्य के अज्ञान के अंधेरे नाश हो जाते हैं। गुरू की बताई सेवा करके वह मनुष्य सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है, वह मनुष्य हरेक सांस से हरेक ग्रास से परमात्मा का नाम जपता रहता है। हे भाई! हरी-प्रभू ने जिन मनुष्यों पर मेहर की, उनको उसने गुरू सेवा में जोड़ दिया। हे हरी! मुझे गुरू चरणों में रख, गुरू के चरणों में रख, गुरू के चरण मुझे प्यारे लगते हैं।1। मेरा सतिगुरु मेरा सतिगुरु पिआरा मै गुर बिनु रहणु न जाई राम ॥ हरि नामो हरि नामु देवै मेरा अंति सखाई राम ॥ हरि हरि नामु मेरा अंति सखाई गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ जिथै पुतु कलत्रु कोई बेली नाही तिथै हरि हरि नामि छडाइआ ॥ धनु धनु सतिगुरु पुरखु निरंजनु जितु मिलि हरि नामु धिआई ॥ मेरा सतिगुरु मेरा सतिगुरु पिआरा मै गुर बिनु रहणु न जाई ॥२॥ {पन्ना 573} पद्अर्थ: नामो = नाम ही। अंति = आखिरी समय। सखाई = मित्र। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुरू ने। कलत्र = स्त्री। बेली = मददगार। नामि = नाम ने। जितु = जिस में। मिलि = मिल के।2। अर्थ: हे भाई! मुझे मेरा गुरू बहुत प्यारा लगता है, गुरू के बिना मै रह नहीं सकता। गुरू मुझे हरी-नाम देता है जो आखिरी वक्त में मेरा साथी बनेगा। गुरू ने वह हरी-नाम मेरे दिल में पक्का कर दिया है जो अंत समय मेरा मित्र बनने वाला है, जहाँ पे पुत्र, स्त्री कोई भी मददगार नहीं बनता, वहाँ हरी-नाम ने ही (जीव को बिपता से) छुड़वाना है। धन्य है गुरू, गुरू निर्लिप परमात्मा का रूप है, उस गुरू में लीन हो के मैं परमात्मा का नाम सिमरता हूँ। हे भाई! मुझे गुरू बहुत प्यारा लगता है, गुरू के बिना मैं रह नहीं सकता।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |