श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 574 जिनी दरसनु जिनी दरसनु सतिगुर पुरख न पाइआ राम ॥ तिन निहफलु तिन निहफलु जनमु सभु ब्रिथा गवाइआ राम ॥ निहफलु जनमु तिन ब्रिथा गवाइआ ते साकत मुए मरि झूरे ॥ घरि होदै रतनि पदारथि भूखे भागहीण हरि दूरे ॥ हरि हरि तिन का दरसु न करीअहु जिनी हरि हरि नामु न धिआइआ ॥ जिनी दरसनु जिनी दरसनु सतिगुर पुरख न पाइआ ॥३॥ {पन्ना 574} पद्अर्थ: सतिगुर दरसनु = गुरू के दर्शन। निहफलु = बिना फायदे के। सभु = सारे। ब्रिथा = व्यर्थ। ते = वे लोग (बहुवचन)। साकत = ईश्वर से टूटे हुए। मुऐ = आत्मिक मौत मर गए। मरि = आत्मिक मौत का संताप ले के। झूरे = दुखी होते रहे। घरि होदै रतनि = घर में रत्न होते हुए। भूखे = तृष्णा के अधीन। करीअहु = तुम ना करना।3। अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू महापुरुष के दर्शन नहीं किए, उनका जन्म व्यर्थ गया, उन्होंने सारा जीवन बे-अर्थ गवा लिया। उन्होंने अपना जनम अकारथ गवा लिया, परमात्मा से टूटे हुए वे मनुष्य आत्मिक मौत मर गए, आत्मिक मौत सहेड़ के वे (सारी उम्र) दुखी ही रहे। हृदय-गृह में कीमती हरी-नाम होते हुए भी वे बद्-नसीब मरूँ-मरूँ करते रहे, और, परमात्मा से विछुड़े रहे। हे भाई! जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम नहीं सिमरा, जिन्होंने गुरू महापुरुष के दर्शन नहीं किए, खुदा के लिए तुम (भी) उनके दर्शन ना करना।3। हम चात्रिक हम चात्रिक दीन हरि पासि बेनंती राम ॥ गुर मिलि गुर मेलि मेरा पिआरा हम सतिगुर करह भगती राम ॥ हरि हरि सतिगुर करह भगती जां हरि प्रभु किरपा धारे ॥ मै गुर बिनु अवरु न कोई बेली गुरु सतिगुरु प्राण हम्हारे ॥ कहु नानक गुरि नामु द्रिड़्हाइआ हरि हरि नामु हरि सती ॥ हम चात्रिक हम चात्रिक दीन हरि पासि बेनंती ॥४॥३॥ {पन्ना 574} पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। हम = हम लोग। दीन = निमाणे। गुर मिलि = गुरू को मिल के। मेलि = मिला। करह = हम करें, मैं करूँगा। जां = जब। प्राण हमारे = मेरे प्राण। गुरि = गुरू ने। सती = सति, सदा कायम रहने वाला।4। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा हमारा बादल है) हम निमाणे से (तुच्छ से) पपीहे हैं (मैं छोटा सा पपीहा हूँ), मैं अदना सा पपीहा हूँ, मैं परमात्मा के पास विनती करता हूँ कि मुझे मेरा प्यारा गुरू मिला, गुरू सतिगुरू को मिल के मैं परमात्मा की भक्ति करूँगा। हे भाई! गुरू को मिल के परमात्मा की भक्ति हम तभी कर सकते हैं जब परमात्मा कृपा करता है। गुरू के बिना मुझे और कोई मददगार नहीं दिखाई देता, गुरू ही मेरी जिंदगी (का आसरा) है। हे नानक! (कह–) गुरू ने ही परमात्मा के सदा कायम रहने वाला नाम (मेरे) दिल में पक्का किया है। मैं पपीहा हूँ (परमात्मा मेरा बादल है) मैं परमात्मा के पास विनती करता हूँ (कि मुझे गुरू मिला दे)।4।3। वडहंसु महला ४ ॥ हरि किरपा हरि किरपा करि सतिगुरु मेलि सुखदाता राम ॥ हम पूछह हम पूछह सतिगुर पासि हरि बाता राम ॥ सतिगुर पासि हरि बात पूछह जिनि नामु पदारथु पाइआ ॥ पाइ लगह नित करह बिनंती गुरि सतिगुरि पंथु बताइआ ॥ सोई भगतु दुखु सुखु समतु करि जाणै हरि हरि नामि हरि राता ॥ हरि किरपा हरि किरपा करि गुरु सतिगुरु मेलि सुखदाता ॥१॥ {पन्ना 574} पद्अर्थ: हरि = हे हरी! मेलि = मिला। सुखदाता = आत्मिक आनंद देने वाला (गुरू)। हम पूछह = हम पूछते हैं, मैं पूछूँगा। हरि बाता = परमात्मा की सिफत सालाह की बातें। जिनि = जिस (गुरू) ने। पाइ लगह = हम पैरों को छूते हैं, मैं पाँव लगूँगा। करह = हम करते हैं, मैं करूँगा। गुरि = गुरू ने। पंथु = (जीवन का सही) रास्ता। सोई = वह (गुरू) ही। समतु = एक जैसा, बराबर। नामि = नाम में।1। अर्थ: हे हरी! मेहर कर, मुझे आत्मिक आनंद देने वाला गुरू मिला, मैं गुरू से परमात्मा की सिफत सालाह की बीतें पूछा करूँगा। जिस गुरू ने परमात्मा का अमूल्य नाम-रत्न हासिल किया हुआ है उस गुरू से मैं परमात्मा की सिफत सालाह की बातें किया करूँगा। जिस गुरू ने (गलत रास्ते पर जा रहे जगत को जीवन का सही) रास्ता बताया है, मैं सदा ही उस गुरू के चरणों में लगूँगा, मैं उस गुरू के आगे विनती करूँगा (कि वह मुझे भी सही जीवन-राह बताए)। वह (गुरू) ही (दरअसल) भगत है, गुरू दुख और सुख को एक समान करके जानता है, गुरू सदा परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है। हे हरी! मेहर कर, मुझे आत्मिक आनंद देने वाला गुरू मिला।1। सुणि गुरमुखि सुणि गुरमुखि नामि सभि बिनसे हंउमै पापा राम ॥ जपि हरि हरि जपि हरि हरि नामु लथिअड़े जगि तापा राम ॥ हरि हरि नामु जिनी आराधिआ तिन के दुख पाप निवारे ॥ सतिगुरि गिआन खड़गु हथि दीना जमकंकर मारि बिदारे ॥ हरि प्रभि क्रिपा धारी सुखदाते दुख लाथे पाप संतापा ॥ सुणि गुरमुखि सुणि गुरमुखि नामु सभि बिनसे हंउमै पापा ॥२॥ {पन्ना 574} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के माध्यम से, गुरू की शरण पड़ के। नामि = नाम से। सभि = सारे। लथिअड़े = उतर गए। जगि = जगत में। तापा = दुख कलेश। निवारे = दूर कर देता है। सतिगुरि = गुरू ने। खड़गु = खण्डा, तलवार। हथि = हाथ में। कंकर = किंकर, सेवक। मारि = मार के। बिदारे = नाश कर देता है, चीर दिए। प्रभि = प्रभू ने। संतापा = कलेश।2। अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम) सुन, (जो मनुष्य नाम सुनता है) नाम के द्वारा उसका अहंकार आदि सारे पाप नाश हो जाते हैं। हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा कर, जगत में (जितने भी) दुख-कलेश (है वे सारे) उतर जाते हैं। जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम सिमरा है, (नाम) उनके सारे दुख-पाप दूर कर देता है। गुरू ने (जिस मनुष्य के) हाथ में आत्मिक जीवन की सूझ की तलवार पकड़ा दी उसने यमराज के दूत खत्म कर डाले (अर्थात, मौत का आत्मिक मौत का खतरा समाप्त कर दिया)। सुखों के दाते हरी-प्रभू ने जिस मनुष्य पे मेहर की, उसके सारे दुख-पाप-कलेश उतर गए। हे भाई! गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम सुना कर (जो सुनता है उसके) अहंकार आदि सारे पाप नाश हो जाते हैं।2। जपि हरि हरि जपि हरि हरि नामु मेरै मनि भाइआ राम ॥ मुखि गुरमुखि मुखि गुरमुखि जपि सभि रोग गवाइआ राम ॥ गुरमुखि जपि सभि रोग गवाइआ अरोगत भए सरीरा ॥ अनदिनु सहज समाधि हरि लागी हरि जपिआ गहिर ग्मभीरा ॥ जाति अजाति नामु जिन धिआइआ तिन परम पदारथु पाइआ ॥ जपि हरि हरि जपि हरि हरि नामु मेरै मनि भाइआ ॥३॥ {पन्ना 574} पद्अर्थ: मेरै मनि = मेरे मन में। भाइआ = अच्छा लगा। मुखि = मुंह से। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। सभि = सारे। अरोगत = आरोग्य, निरोग। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सहज = आत्मिक अडोलता। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। अजाति = नीच जाति। परम = सबसे ऊँचा।3। अर्थ: हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा कर, मेरे मन को (तो) परमात्मा का नाम प्यारा लग रहा है। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर मुंह से हरी-नाम जपा कर, ये हरी-नाम सारे रोग दूर कर देता है। गुरू के द्वारा हरी-नाम जपा कर, ये हरी नाम सारे रोग दूर कर देता है, शरीर नरोआ, निरोग हो जाता है। गहरे और बड़े जिगरे वाला हरी का नाम जपने से हर वक्त आत्मिक अडोलता में सुरति जुड़ी रहती है। ऊँची जाति के हों चाहे नीच जाति के, जिन्होंने हरी-नाम सिमरा है उन्होंने सबसे श्रेष्ठ नाम-पदार्थ हासिल कर लिया है। हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपा कर। मेरे मन को (तो) परमात्मा का नाम प्यारा लग रहा है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |