श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 575

हरि धारहु हरि धारहु किरपा करि किरपा लेहु उबारे राम ॥ हम पापी हम पापी निरगुण दीन तुम्हारे राम ॥ हम पापी निरगुण दीन तुम्हारे हरि दैआल सरणाइआ ॥ तू दुख भंजनु सरब सुखदाता हम पाथर तरे तराइआ ॥ सतिगुर भेटि राम रसु पाइआ जन नानक नामि उधारे ॥ हरि धारहु हरि धारहु किरपा करि किरपा लेहु उबारे राम ॥४॥४॥ {पन्ना 575}

पद्अर्थ: हरि = हे हरी! लेहु उबारे = उबार लो, (विकारों से) बचा ले। निरगुण = गुणहीन। दीन = आजिज। दैआल = हे दया के घर! दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। पाथर = कठोर चिक्त। तराइआ = तेरे पार उतारे हुए। सतिगुर भेटि = गुरू को मिल के। नामि = नाम ने। उधारे = पार लंघा लिए।4।

अर्थ: हे हरी! कृपा कर, (हमें विकारों से) बचा ले। हम पापी हैं, गुणहीन हैं, दीन हैं, (पर फिर भी) तेरे हैं। हे दया के घर हरी! हम विकारी हैं, गुणों से हीन हैं, (आत्मिक जीवन से भी) कंगाल हैं, पर हम है तेरे, और, तेरी शरण आए हैं। तू दुखों का नाश करने वाला है, तू सारे सुख देने वाला है। हम कठोर-चिक्त हैं, तेरे तैराए हुए ही तैर सकते हैं।

हे नानक (कह–) गुरू को मिल के जिन्होंने परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है, उनको हरी-नाम ने (विकारों में डूबतों को) बचा लिया है। हे हरी! कृपा कर, (हमें विकारों से) बचा ले।4।4।

वडहंसु महला ४ घोड़ीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देह तेजणि जी रामि उपाईआ राम ॥ धंनु माणस जनमु पुंनि पाईआ राम ॥ माणस जनमु वड पुंने पाइआ देह सु कंचन चंगड़ीआ ॥ गुरमुखि रंगु चलूला पावै हरि हरि हरि नव रंगड़ीआ ॥ एह देह सु बांकी जितु हरि जापी हरि हरि नामि सुहावीआ ॥ वडभागी पाई नामु सखाई जन नानक रामि उपाईआ ॥१॥ {पन्ना 575}

नोट: घोड़ीआ–घोड़ियां। जब दूल्हा घर से ब्याहने चलता है, घोड़ी पर चढ़ता है, तब उसकी बहनें घोड़ी की बागडोर पकड़ के गीत गाती हैं। वे गीत ‘घोड़ियां’ कहलवाते हैं। गुरू रामदास जी ने ये दो ‘छंद’ उन गीतों ‘घोड़ियों’ की चाल में लिखे हैं, और इन छंदों का शीर्षक भी ‘घोड़ीआं’ ही लिखा है।

पद्अर्थ: देह = शरीर, मानस देह। तेजणि = घोड़ी। रामि = राम ने, परमात्मा ने। उपाईआ = उपाई, पैदा की। धंनु = धन्य। पुंनि = पुन्य से, अच्छी किस्मत से। पाईआ = पाई है, तलाशी है (ये देह)। वड पुंने = बड़ी किस्मत से। देह = काया। कंचन = सोना। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। चलूला = गाढ़ा। नव रंगड़ीआ = नए रंग से रंगी गई। बांकी = सुंदर। जितु = जिसकी बरकति से। जापी = मैं जप सकती हूँ। नामि = नाम से। पाई = पाई (ये देह)। सखाई = साथी।1।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य की) ये काया (जैसे) घोड़ी है (इसको) परमात्मा ने पैदा किया है। मानस जन्म भाग्यशाली है (जिसमें ये काया प्राप्त होती है) सौभाग्य से ही (जीव ने ये काया) पाई है। हे भाई! मानस जन्म बड़ी किस्मत से ही मिलता है। पर उसी मनुष्य की काया सोने जैसी व सुंदर है जो गुरू की शरण पड़ कर हरी-नाम का गाढ़ा रंग हासिल करता है, उस मनुष्य की काया हरी-नाम के नए रंग से रंगी जाती है।

हे भाई! ये काया सुंदर है क्योंकि इस काया से मैं परमात्मा का नाम जप सकता हूँ, हरी नाम की बरकति से यह काया सोहणी बन जाती है। हे भाई! उस अति भाग्यशाली मनुष्य ने ही यह काया (असल में) प्राप्त की समझ, परमात्मा का नाम जिस मनुष्य का मित्र बन जाता है। हे दास नानक! (नाम सिमरने के लिए ही ये काया) परमात्मा ने पैदा की है।1।

देह पावउ जीनु बुझि चंगा राम ॥ चड़ि लंघा जी बिखमु भुइअंगा राम ॥ बिखमु भुइअंगा अनत तरंगा गुरमुखि पारि लंघाए ॥ हरि बोहिथि चड़ि वडभागी लंघै गुरु खेवटु सबदि तराए ॥ अनदिनु हरि रंगि हरि गुण गावै हरि रंगी हरि रंगा ॥ जन नानक निरबाण पदु पाइआ हरि उतमु हरि पदु चंगा ॥२॥ {पन्ना 575}

पद्अर्थ: जीनु = जीन, काठी। पावउ = मैं पाता हूँ। बुझि = समझ के, परख के। चंगा = अच्छाईयां, गुण। चढ़ि = चढ़ के। लंघा = लांघ के, मैं लांघता हूँ। जी = हे भाई! बिखमु = मुश्किल। भुइअंगा = संसार समुंद्र (भुइ+अंग, धरती का अंग)। अनत तरंगा = बेअंत लहरों वाला। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। बोहिथि = जहाज में। खेवटु = मल्लाह। सबदि = शबद के माध्यम से। रंगि = रंग में। अनदिनु = हर रोज। रंगी = रंग वाला। निरबाण = वासना रहित। पद = दर्जा।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुणों को विचार के मैं (अपनी शरीर घोड़ी पर, सिफत सालाह की) काठी डालता हूँ, (उस काठी वाली घोड़ी पर) चढ़ के (काया को वश में कर के) मैं इस मुश्किल (से तैरे जाने वाले) संसार समुंद्र से पार लांघता हूँ।

(हे भाई! कोई विरला) गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (ही) इस मुश्किल संसार-समुंद्र से पार लांघता है (क्योंकि इसमें विकारों की) बेअंत लहरें पड़ रही हैं। कोई दुर्लभ अति भाग्यशाली मनुष्य हरी-नाम के जहाज में चढ़ के पार लांघता है, गुरू-मल्लाह अपने शबद के साथ जोड़ के पार लंघा लेता है।

हे नानक! जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा के प्रेम रंग में (टिक के) परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता रहता है, वह हरी नाम रंग में रंगा जाता है, वह मनुष्य वह ऊँचा और स्वच्छ आत्मिक स्तर हासिल कर लेता है जहाँ वासना छू नहीं सकती।2।

कड़ीआलु मुखे गुरि गिआनु द्रिड़ाइआ राम ॥ तनि प्रेमु हरि चाबकु लाइआ राम ॥ तनि प्रेमु हरि हरि लाइ चाबकु मनु जिणै गुरमुखि जीतिआ ॥ अघड़ो घड़ावै सबदु पावै अपिउ हरि रसु पीतिआ ॥ सुणि स्रवण बाणी गुरि वखाणी हरि रंगु तुरी चड़ाइआ ॥ महा मारगु पंथु बिखड़ा जन नानक पारि लंघाइआ ॥३॥ {पन्ना 575}

पद्अर्थ: कड़ीआलु = लगाम। मुखे = मुख में, (काया रूपी घोड़ी के) मुंह में। गुरि = गुरू ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया है। तनि = शरीर में, हृदय में। लाइ = लगाता है। जिणै = जीतता है। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। जीतिआ = जीता जा सकता है। अघड़ो = ना घड़ा हुआ, अल्हड़ (मन)। घड़ावै = (जात, धीरज आदि की कुठाली में) घड़ता है। अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। सुणि = सुन के। स्रवण = कानों से। तुरी = (काया) घोड़ी। तुरी चढ़ाइआ = (काया) घोड़ी पर सवार होता है, काया को वश में करता है। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। बिखड़ा = मुश्किल।3।

अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में गुरू ने आत्मिक जीवन की समझ पक्की कर दी, उसने ये सूझ (अपनी काया घोड़ी के) मुंह में (जैसे) लगाम दे दी है। उस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का प्यार पैदा होता है, ये प्यार वह मनुष्य अपनी काया-घोड़ी को (जैसे) चाबुक मारता रहता है। हृदय में पैदा हरी नाम का प्रेम में लीन वह मनुष्य अपनी काया घोड़ी को चाबुक मारता रहता है, और अपने मन को वश में किए रखता है। पर, ये मन गुरू की शरण पड़ के ही जीता जा सकता है। वह मनुष्य गुरू का शबद प्राप्त करता है, आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-रस पीता रहता है, और (जत, धैर्य आदि की कुठाली में) अल्हड़ मन को घड़ लेता है (परिपक्व बना लेता है)। गुरू की जो बाणी उचारी हुई है इस को अपने कानों से सुन के (भाव, ध्यान से सुन के वह मनुष्य अपने अंदर) परमात्मा का प्यार पैदा करता है, और इस तरह काया-घोड़ी पर सवार होता है (काया को वश में करता है)। हे दास नानक! (ये मनुष्य जीवन) बड़ा मुश्किल रास्ता है, (पर, गुरू की शरण पड़े मनुष्य को) पार लंघा लेता है।3।

घोड़ी तेजणि देह रामि उपाईआ राम ॥ जितु हरि प्रभु जापै सा धनु धंनु तुखाईआ राम ॥ जितु हरि प्रभु जापै सा धंनु साबासै धुरि पाइआ किरतु जुड़ंदा ॥ चड़ि देहड़ि घोड़ी बिखमु लघाए मिलु गुरमुखि परमानंदा ॥ हरि हरि काजु रचाइआ पूरै मिलि संत जना जंञ आई ॥ जन नानक हरि वरु पाइआ मंगलु मिलि संत जना वाधाई ॥४॥१॥५॥ {पन्ना 575}

पद्अर्थ: तेजणि = घोड़ी। देह = शरीर, काया। रामि = राम ने। जितु = जिस (काया) के द्वारा। जापै = जपता है। सा = वह (काया)। धनु धंनु = भाग्यशाली। तुखाईआ = ताक्र्ष, तुखाई, घोड़ी। धुरि = धुर दरगाह से। किरतु = पिछले किए कर्मों का संस्कार। जुड़ंदा = इकट्ठा किया हुआ। किरतु जुड़ंदा = पिछले किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कार। देहड़ि = सुंदर देह, सोहनी काया। बिखमु = मुश्किल (संसार समुंद्र)। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। परमानंदा = परम आनंद का मालिक प्रभू। हरि पूरै = पूरे हरी ने। मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलु’ व ‘मिलि’ का फर्क देखें)। वरु = पति। काजु = विवाह का काम। मंगलु = खुशी।

अर्थ: हे भाई! ये मनुष्य शरीर रूपी घोड़ी परमात्मा ने पैदा की है (कि इस घोड़ी पर चढ़ कर जीव जीवन-यात्रा को सफलता से तय करे, सो) जिस (शरीर-घोड़ी) के द्वारा मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है, वह धन्य है, उसे शाबाशी मिलती है, (इससे) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का समूह सामने आ जाता है।

हे भाई! इस सुंदर काया-घोड़ी पर चढ़, (ये घोड़ी) मुश्किल संसार-समुंद्र से पार लंघा लेती है, (इसके द्वारा) गुरू की शरण पड़ कर परम आनंद के मालिक परमात्मा को मिल।

पूरन परमात्मा ने जिस जीव-स्त्री का विवाह रच दिया (जिस जीव-वधू को अपने साथ मिलाने का अवसर बना दिया), सत्संगियों के साथ मिल के (मानो, उसकी) बारात आ गई। हे दास नानक! संत जनों से मिल के उस जीव-स्त्री ने प्रभू-पति (का मिलाप) हासिल कर लिया, उसने आत्मिक आनंद पा लिया, उसके अंदर आत्मिक मंगल के गीत (शादी के मंगलमयी गीत) बज पड़े।4।1।5।

वडहंसु महला ४ ॥ देह तेजनड़ी हरि नव रंगीआ राम ॥ गुर गिआनु गुरू हरि मंगीआ राम ॥ गिआन मंगी हरि कथा चंगी हरि नामु गति मिति जाणीआ ॥ सभु जनमु सफलिउ कीआ करतै हरि राम नामि वखाणीआ ॥ हरि राम नामु सलाहि हरि प्रभ हरि भगति हरि जन मंगीआ ॥ जनु कहै नानकु सुणहु संतहु हरि भगति गोविंद चंगीआ ॥१॥ {पन्ना 575-576}

पद्अर्थ: तेजनड़ी = सोहणी तेजणि, सुंदर घोड़ी। नव रंगीआ = नए रंग वाली। चंगी = बढ़िया। गति = उच्च आत्मि्क अवस्था। मिति = मर्यादा, माप। करतै = करतार ने। नामि = नाम में। वखाणीआ = उचारी। सलाहि = सलाह के। हरि जन = हरी के भक्त।1।

अर्थ: हे भाई! वह काया सुंदर घोड़ी है (जीव-राही की जीवन-यात्रा के लिए बढ़िया घोड़ी है) जो परमात्मा के प्रेम के नए रंग में रंगी रहती है, जो गुरू से आत्मिक जीवन की श्रेष्ठ समझ मांगती रहती है, जो (गुरू से) आत्मिक जीवन की सूझ मांगती है, परमात्मा की सोहणी सिफत सालाह करती है, परमात्मा का नाम जपती है, जो ये समझने का यत्न करती है कि परमात्मा कैसा और कितना बड़ा है। करतार ने (ऐसी काया घोड़ी का) सारा जन्म सफल कर दिया है, क्योंकि वह परमात्मा के नाम में लीन रहती है, परमात्मा की सिफत सालाह उचारती रहती है।

हे भाई! परमात्मा के भक्त परमात्मा के नाम की महिमा गा के परमात्मा की भक्ति (की दाति) मांगते रहते हैं। दास नानक कहता है– हे संत जनो! (ये सुंदर काया-घोड़ी प्राप्त करके) परमात्मा की सुंदर भक्ति (करते रहो)।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh