श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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देह कंचन जीनु सुविना राम ॥ जड़ि हरि हरि नामु रतंना राम ॥ जड़ि नाम रतनु गोविंद पाइआ हरि मिले हरि गुण सुख घणे ॥ गुर सबदु पाइआ हरि नामु धिआइआ वडभागी हरि रंग हरि बणे ॥ हरि मिले सुआमी अंतरजामी हरि नवतन हरि नव रंगीआ ॥ नानकु वखाणै नामु जाणै हरि नामु हरि प्रभ मंगीआ ॥२॥ {पन्ना 576}

पद्अर्थ: देह = शरीर, काया (-घोड़ी)। जीनु = काठी। सुविना = सोने की। जड़ि = जड़ के। घणे = बहुत। नव तन = नया। नव रंगीआ = नवरंगी, नए रंग वाली।2।

अर्थ: वह काया (-घोड़ी, जैसे) सोने की है (बहुत कीमती बन जाती है, जिस पर) परमात्मा का नाम-रत्न जड़ के सोने की काठी डाली जाती है (जिस पर परमात्मा के नाम से भरपूर गुरू-शबद की काठी डाली जाती है)।

(हे भाई! जिस मनुष्य ने) परमात्मा का नाम रत्न जड़ के गुरू-शबद की काठी डाल दी, उसको परमात्मा मिल गया, उसने परमात्मा के गुण (अपने अंदर बसा लिए), उसे सुख ही सुख प्राप्त हो गए। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरू का शबद हासिल कर लिया, जिसने परमात्मा का नाम-सिमरन करना आरम्भ कर दिया, वह अति भाग्यशाली हो गया, उसके अंदर परमात्मा का प्रेम उघड़ पड़ा।

नानक कहता है– (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा के नाम से गहरी सांझ डालता है, जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा का नाम मांगता है, उसे वह मालिक हरी मिल जाता है जो हरेक के दिल की जानने वाला है, जो सदा नया-नरोया रहने वाला है, जो सदा नए करिश्मों का मालिक है।2।

कड़ीआलु मुखे गुरि अंकसु पाइआ राम ॥ मनु मैगलु गुर सबदि वसि आइआ राम ॥ मनु वसगति आइआ परम पदु पाइआ सा धन कंति पिआरी ॥ अंतरि प्रेमु लगा हरि सेती घरि सोहै हरि प्रभ नारी ॥ हरि रंगि राती सहजे माती हरि प्रभु हरि हरि पाइआ ॥ नानक जनु हरि दासु कहतु है वडभागी हरि हरि धिआइआ ॥३॥ {पन्ना 576}

पद्अर्थ: कड़ीआलु = लगाम। मुखे = मुखि, (काया घोड़ी के) मुंह में। गुरि = गुरू ने। अंकसु = अंकुश, हाथी को चलाने के लिए बरता जाता लोहे का कुंडा। मैगलु = हाथी (मदकल)। सबदि = शबद द्वारा। वसि = वश में। वसगति = वश में। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। सा धन = जीव स्त्री। कंति = कंत ने। अंतरि = अंदर, हृदय में। हरि सेती = हरी के साथ। घरि = घर में, प्रभू की हजूरी में। सोहै = सोहणी लगती है। रंगि = प्रेम रंग में। राती = रंगी हुई। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त। हरि दासु = हरी का सेवक। जनु = दास।3।

अर्थ: हे भाई! गुरू ने (जिस मनुष्य की काया-घोड़ी के) मुंह में लगाम दे दी, अंकुश रख दिया, उसका मन-हाथी गुरू के शबद की बरकति से वश में आ गया।

जिस जीव-स्त्री का मन वश में आ गया, उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, प्रभू कंत ने उस जीव-स्त्री को प्यार करना शुरू कर दिया, उसके हृदय में परमात्मा से प्रेम पैदा हो गया, वह जीव-स्त्री प्रभू की हजूरी में सुंदर लगती है। जो जीव-स्त्री प्रभू के प्रेम रंग में रंगी जाती है, जो आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है, वह परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेती है।

हरी का सेवक नानक दास कहता है– हे भाई! अति भाग्यशाली जीव ही परमात्मा का नाम सिमरते हैं।3।

देह घोड़ी जी जितु हरि पाइआ राम ॥ मिलि सतिगुर जी मंगलु गाइआ राम ॥ हरि गाइ मंगलु राम नामा हरि सेव सेवक सेवकी ॥ प्रभ जाइ पावै रंग महली हरि रंगु माणै रंग की ॥ गुण राम गाए मनि सुभाए हरि गुरमती मनि धिआइआ ॥ जन नानक हरि किरपा धारी देह घोड़ी चड़ि हरि पाइआ ॥४॥२॥६॥ {पन्ना 576}

पद्अर्थ: देह = काया, शरीर। जी = हे भाई! जितु = जिस (काया-घोड़ी) से। मिलि सतिगुर = गुरू को मिल के। मंगलु = आत्मिक आनंद देने वाला गीत। सेवकी = सेवक भावना से। जाइ = जा के। प्रभ रंग महली = परमात्मा की आनंद भरी हजूरी में। मनि = मन में। सुभाऐ = सु भाए, प्रेम से। चढ़ि = चढ़ के।4।

अर्थ: हे भाई! वह काया (मनुष्य की जीवन-यात्रा में, मानो) घोड़ी है जिस (काया) के माध्यम से मनुष्य परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेता है, और, गुरू को मिल के परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाता रहता है। सेवक-भाव से जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गा के परमात्मा की सेवा भक्ति करता है वह परमात्मा की आनंद भरी हजूरी में जा पहुँचता है और परमात्मा के मिलाप का आनंद लेता है। वह मनुष्य प्रेम से अपने मन में परमात्मा के गुण गाता है, गुरू की मति पर चल कर मन में परमात्मा का ध्यान धरता है।

हे नानक! जिस दास पर परमात्मा मेहर करता है वह अपनी काया-घोड़ी पर चढ़ कर परमात्मा को मिल जाता है।4।2।6।

रागु वडहंसु महला ५ छंत घरु ४    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुर मिलि लधा जी रामु पिआरा राम ॥ इहु तनु मनु दितड़ा वारो वारा राम ॥ तनु मनु दिता भवजलु जिता चूकी कांणि जमाणी ॥ असथिरु थीआ अम्रितु पीआ रहिआ आवण जाणी ॥ सो घरु लधा सहजि समधा हरि का नामु अधारा ॥ कहु नानक सुखि माणे रलीआं गुर पूरे कंउ नमसकारा ॥१॥

पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरू को मिल के। लधा = ढूँढता है। जी = हे भाई! वारो वारा = वार वार के, सदके करके। भवजलु = संसार समुंद्र। चूकी = खत्म हो जाती है। कांणि = मुथाजी। जमाणी = यमों की। असथिरु = अडोल चिक्त। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रहिआ = खत्म हो गया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समधा = समा गया, लीनता हो गई। अधारा = आसरा। सुखि = आनंद से। रलीआं = खुशियां। कंउ = को।1।

अर्थ: हे भाई! गुरू को मिल के (ही) प्यारा प्रभू मिलता है, (जिसे गुरू के माध्यम से प्रभू मिल जाता है वह) अपना ये शरीर ये मन (गुरू के) हवाले करता है। जो मनुष्य अपना तन-मन गुरू के हवाले करता है, वह संसार समुंद्र को जीत लेता है, उसकी यमों की मुथाजी खत्म हो जाती है वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (गुरू से ले के) पीता है, और, अडोल चिक्त हो जाता है, उसके जनम-मरन का चक्र समाप्त हो जाता है। उस मनुष्य को वह घर (प्रभू के चरणों में ठिकाना) मिल जाता है (जिसकी बरकति से) वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है, परमात्मा का नाम (उसकी जिंदगी का) आसरा बन जाता है। हे नानक! कह– वह मनुष्य सुख में रह कर आत्मिक खुशियां पाता है (ये सारी बरकति गुरू की ही है) पूरे गुरू को (सदा) नमस्कार करनी चाहिए।1।

सुणि सजण जी मैडड़े मीता राम ॥ गुरि मंत्रु सबदु सचु दीता राम ॥ सचु सबदु धिआइआ मंगलु गाइआ चूके मनहु अदेसा ॥ सो प्रभु पाइआ कतहि न जाइआ सदा सदा संगि बैसा ॥ प्रभ जी भाणा सचा माणा प्रभि हरि धनु सहजे दीता ॥ कहु नानक तिसु जन बलिहारी तेरा दानु सभनी है लीता ॥२॥ {पन्ना 576}

पद्अर्थ: सजण = हे सज्जन! मैडड़े = मेरे। गुरि = गुरू ने। सबदु सचु = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाला शबद। मंगलु = सिफत सालाह का गीत। मनहु = मन से। अदेसा = अंदेशा, चिंता फिक्र। कतहि = किसी भी और जगह। संगि = (प्रभू के) साथ। बैसा = बैठा रहता है, टिका रहता है। प्रभ भाणा = प्रभू को प्यारा लगता है। प्रभि = प्रभू ने। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिका के)। बलिहारी = सदके। सभनी = और सब जीवों ने।1।

अर्थ: हे मेरे सज्जन! हे मेरे मित्र! सुन, (किसी भाग्यशाली मनुष्य को) गुरू ने प्रभू की सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाला शबद-मंत्र दिया है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाले शबद को सदा हृदय में बसाता है, जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह के गीत (सदा) गाता है, उसके मन से चिंता-फिक्र उतर जाते हैं, वह मनुष्य परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेता है, (प्रभू को छोड़ के) किसी और जगह वह नहीं भटकता वह सदा ही प्रभू चरणों में लीन रहता है। वह मनुष्य प्रभू को (सदा) प्यारा लगता है, सदा स्थिर प्रभू का ही उसको मान-आसरा रहता है, परमात्मा ने उसको आत्मिक अडोलता में टिका के अपना नाम-धन बख्श दिया है।

हे नानक! कह– (हे प्रभू!) मैं उस सेवक से सदके जाता हूँ, तेरे नाम की दाति उससे सब जीव लेते हैं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh