श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 577 तउ भाणा तां त्रिपति अघाए राम ॥ मनु थीआ ठंढा सभ त्रिसन बुझाए राम ॥ मनु थीआ ठंढा चूकी डंझा पाइआ बहुतु खजाना ॥ सिख सेवक सभि भुंचण लगे हंउ सतगुर कै कुरबाना ॥ निरभउ भए खसम रंगि राते जम की त्रास बुझाए ॥ नानक दासु सदा संगि सेवकु तेरी भगति करंउ लिव लाए ॥३॥ {पन्ना 577} पद्अर्थ: भउ भाणा = (अगर) तुझे अच्छा लगे, यदि तेरी रजा हो। अघाऐ = तृप्त हो जाता है, पेट भर जाता है। ठंढा = शांत। त्रिसन = माया की प्यास। डंझा = भड़की, ना कभी खत्म होने वाली प्यास। सभि = सारे। भुंचण लगे = खाने लग पड़ते हैं। हंउ = मैं। कै कुरबाना = से सदके। रंगि = रंग में। राते = रंगे जाते हैं। त्रास = सहज, डर। संगि = साथ। करंउ = मैं करूँ। लाऐ = लगा के।3। अर्थ: हे प्रभू! मैं गुरू से सदके जाता हॅूँ। अगर तेरी मर्जी हो तो (गुरू की शरण पड़ कर जीव माया की भूख से) पूरी तरह से तृप्त हो जाता है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उस का) मन शांत हो जाता है, कभी ना खत्म होने वाली माया की प्यास (उसके अंदर से) बुझ जाती है (गुरू के माध्यम से वह) (बड़ा नाम-) खजाना प्राप्त कर लेता है। (जो भी गुरू की शरण आते हैं, वह) सारे सिख सेवक नाम-खजाने बरतने लग पड़ते हैं। (गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य दुनिया के सहमों की ओर से) निडर हो जाते हैं, प्रभू पति के प्रेम रंग में रंगे जाते हैं, जमों का सहम मिटा लेते हैं। हे नानक! (कह– हे प्रभू! मेहर कर, मैं) दास सदा (गुरू के) चरणों में टिका रहूँ, (गुरू का) सेवक बना रहूँ, और सुरति जोड़ के तेरी भक्ति करता रहूँ।3। पूरी आसा जी मनसा मेरे राम ॥ मोहि निरगुण जीउ सभि गुण तेरे राम ॥ सभि गुण तेरे ठाकुर मेरे कितु मुखि तुधु सालाही ॥ गुणु अवगुणु मेरा किछु न बीचारिआ बखसि लीआ खिन माही ॥ नउ निधि पाई वजी वाधाई वाजे अनहद तूरे ॥ कहु नानक मै वरु घरि पाइआ मेरे लाथे जी सगल विसूरे ॥४॥१॥ {पन्ना 577} पद्अर्थ: जी = हे प्रभू जी! मनसा = मन की कामना (मनीषा)। मोहि = मैं। जीउ = हे प्रभू जी! सभि = सारे। ठाकुर मेरे = हे ठाकुर! कितु = किस के द्वारा? मुखि = मुंह से। कितु मुखि = किस मुंह से? सालाही = मैं उस्तति करूँ? खिन माही = एक छिन में। नउ निधि = (दुनिया के सारे ही) नौ खजाने। वाजे = बज गए। अनहद = एक रस, बिना बजाए। तूरे = बाजे। घरि = हृदय घर में। विसूरे = झोरे, चिंता-फिक्र।4। अर्थ: हे प्रभू जी! (तेरी मेहर से मेरी हरेक) आशा और कामना पूरी हो गई है। हे प्रभू जी! मैं गुणहीन था (मेरे अंदर कोई भी गुण नहीं था) तेरे अंदर सारे ही गुण हैं। हे मेरे मालिक! तेरे अंदर सारे ही गुण हैं। मैं किस मुंह से तेरी महिमा गाऊँ? तूने मेरा कोई अवगुण नहीं विचारा, तूने मेरा कोई गुण नहीं देखा, और, एक पल में ही तूने मुझ पर मेहर कर दी। (तेरी मेहर से मैंने, मानो) सारे ही नौ खजाने हासिल कर लिए हैं, मेरे अंदर आत्मिक आनंद की चढ़दीकला बन गई है मेरे अंदर आत्मिक आनंद के एक-रस बाजे बजने लगे हैं। हे नानक! (कह–) हे प्रभू जी! मैंने (तुझे) पति को अपने हृदय-गृह में ही पा लिया है, मेरे सारे ही चिंता-फिक्र उतर गए हैं।4।1। सलोकु ॥ किआ सुणेदो कूड़ु वंञनि पवण झुलारिआ ॥ नानक सुणीअर ते परवाणु जो सुणेदे सचु धणी ॥१॥ छंतु ॥ तिन घोलि घुमाई जिन प्रभु स्रवणी सुणिआ राम ॥ से सहजि सुहेले जिन हरि हरि रसना भणिआ राम ॥ से सहजि सुहेले गुणह अमोले जगत उधारण आए ॥ भै बोहिथ सागर प्रभ चरणा केते पारि लघाए ॥ जिन कंउ क्रिपा करी मेरै ठाकुरि तिन का लेखा न गणिआ ॥ कहु नानक तिसु घोलि घुमाई जिनि प्रभु स्रवणी सुणिआ ॥१॥ {पन्ना 577} पद्अर्थ: कूड़ु = झूठ, झूठे पदार्थों की बात। वंञनि = वंजन, चले जाते हैं। झुलारिआ = बुल बुलों की तरह। सुणीअर = कान। ते = (बहुवचन) वे। सचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक प्रभू।1। छंतु। घोलि घुमाई = मैं कुर्बान जाता हूँ। स्रवणी = कानों से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुहेले = सुखी। रसना = जीभ (से)। उधारण = उद्धार करने के लिए। भै सागर = भय का सागर, भयानक समुंद्र। बोहिथ = जहाज। केते = बेअंत। कंउ = को। ठाकुरि = ठाकुर ने। जिनि = जिस ने (जिन = जिन्होंने)।1। अर्थ: हे भाई! नाशवंत पदार्थों की बात क्या सुनता है? (ये पदार्थ तो) हवा के बुल-बुलों की तरह उड़ जाते हैं। हे नानक (सिर्फ) वह कान (परमात्मा की हजूरी में) कबूल हैं जो सदा स्थिर रहने वाले मालिक प्रभू (की सिफत सालाह) को सुनते हैं।1। छंत। हे भाई! जिन मनुष्यों ने अपने कानों से प्रभू (का नाम) सुना है, उनसे मैं सदके कुर्बान जाता हूँ। जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जपते हैं वे आत्मिक अडोलता में टिक के सुखी रहते हैं। वे मनुष्य आत्मिक अडोलता में रह के सुखी जीवन जीते हैं, वे अमूल्य गुणवान हो जाते हैं, वे तो जगत को संसार-समुंद्र से पार लंघाने के लिए आते हैं। हे भाई! इस भयानक संसार-समुंद्र से पार लांघने के वास्ते परमात्मा के चरण जहाज हैं (खुद नाम जपने वाले मनुष्य) अनेकों को (प्रभू-चरनों में जोड़ के) पार लंघा देते हैं। मेरे मालिक प्रभू ने जिन पर मेहर (की निगाह) की, उनके कर्मों के हिसाब करने उसने छोड़ दिए। हे नानक! कह– मैं उस मनुष्य से सदके कुर्बान जाता हूँ जिसने अपने कानों से परमात्मा (की सिफत सालाह) को सुना है।1। सलोकु ॥ लोइण लोई डिठ पिआस न बुझै मू घणी ॥ नानक से अखड़ीआं बिअंनि जिनी डिसंदो मा पिरी ॥१॥ छंतु ॥ जिनी हरि प्रभु डिठा तिन कुरबाणे राम ॥ से साची दरगह भाणे राम ॥ ठाकुरि माने से परधाने हरि सेती रंगि राते ॥ हरि रसहि अघाए सहजि समाए घटि घटि रमईआ जाते ॥ सेई सजण संत से सुखीए ठाकुर अपणे भाणे ॥ कहु नानक जिन हरि प्रभु डिठा तिन कै सद कुरबाणे ॥२॥ {पन्ना 577} पद्अर्थ: लोइणि = आँखो (से)। लोई = जगत, लोक। पिआस = देखने की लालसा। मू = मुझे। घणी = बहुत। बिअंनि = और किस्मों की। मा पिरी = मेरा प्यारा।1। छंत। कुरबाणे = सदके। से = (बहुवचन) वे। भाणे = पसंद आते हैं। ठाकुरि = ठाकुर ने। माने = आदर दिया। परधाने = आदरणीय, जाने माने व्यक्ति। सेती = साथ। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे रहते हैं। रसहि = रस से। अघाणे = तृप्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। घटि घटि = हरेक घट में। तिन कै = उन से। सद = सदा।2। अर्थ: मैंने अपनी आँखों से जगत को देखा है, (अभी भी) मुझे (जगत को देखने की प्यास) बहुत है, ये प्यास बुझती नहीं। हे नानक! जिन आँखों ने मेरे प्यारे प्रभू को देखा, वे आँखें और किस्म की हैं (उन आँखों को दुनियावी पदार्थ देखने की लालसा नहीं होती)।1। छंतु। मैं उनसे सदके हूँ, जिन्होंने परमात्मा के दर्शन किए हैं, वे (भाग्यशाली) लोग सदा-स्थिर प्रभू की हजूरी में शोभा देते हैं। जिन जीवों को मालिक प्रभू ने आदर-मान दिया है, (हर जगह) जाने माने जाते हैं, वे परमात्मा के चरणों में जुड़े रहते हैं, परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे रहते हैं। वे मनुष्य परमात्मा के नाम-रस से (दुनियावी पदार्थों की तरफ से) तृप्त रहते हैं वे आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं, वे मनुष्य परमात्मा को हरेक शरीर में बसता पहचानते हैं। हे भाई! वही मनुष्य भले हैं, संत हैं, सुखी हैं, जो अपने मालिक प्रभू को पसंद हैं। हे नानक! कह– जिन मनुष्यों ने हरी प्रभू के दर्शन कर लिए हैं, मैं उनसे सदा सदके जाता हूँ।2। सलोकु ॥ देह अंधारी अंध सुंञी नाम विहूणीआ ॥ नानक सफल जनमु जै घटि वुठा सचु धणी ॥१॥ छंतु ॥ तिन खंनीऐ वंञां जिन मेरा हरि प्रभु डीठा राम ॥ जन चाखि अघाणे हरि हरि अम्रितु मीठा राम ॥ हरि मनहि मीठा प्रभू तूठा अमिउ वूठा सुख भए ॥ दुख नास भरम बिनास तन ते जपि जगदीस ईसह जै जए ॥ मोह रहत बिकार थाके पंच ते संगु तूटा ॥ कहु नानक तिन खंनीऐ वंञा जिन घटि मेरा हरि प्रभु वूठा ॥३॥ {पन्ना 577} पद्अर्थ: देह = शरीर। अंधारी अंध = (मोह के) अंधकार में अंधी। विहूणीआ = विहीन। जै घटि = जिस हृदय में। वुठा = आ बसा। सचु धणी = सदा कायम रहने वाला मालिक प्रभू।1। छंतु। वंञां = वंजां, मैं जाता हूँ। खंनीअै वंञां = मैं टुकड़े टुकड़े हो के सदके जाता हूँ। चाखि = (नाम रस) चख के। अघाणे = पेट भर जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। मनहि = मन में। तूठा = प्रसन्न होता। अमिउ = अमृत। तन ते = तन से। जगदीस = जगत का मालिक। ईसह जै जऐ = मालिक की जैकार। जपि = जप के, कह के। संगु = साथ। जिन घटि = जिनके हृदय में।3। अर्थ: हे भाई! जो शरीर परमात्मा के नाम से वंचित रहता है, वह माया के मोह के अंधेरे में अंधा हुआ रहता है। हे नानक! उस मनुष्य का जीवन कामयाब है जिसके दिल में सदा कायम रहने वाला मालिक-प्रभू आ बसता है।1। छंतु। मैं उन मनुष्यों पर से सदा सदके कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने मेरे हरी-प्रभू के दर्शन कर लिए हैं। वे मनुष्य (परमात्मा का नाम-रस) चख के (दुनियावी पदार्थों की ओर से) तृप्त हो जाते हैं, उनको आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम-जल मीठा लगता है। परमात्मा उनके मन को भाता है, परमात्मा उन पर प्रसन्न हो जाता है, उनके अंदर आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है, उनको सारे आनंद प्राप्त हो जाते हैं। जगत के मालिक प्रभू की जै-जैकार कह कह के उनके शरीर से दुख व भ्रम दूर हो जाते हैं। वे मनुष्य मोह से रहित हो जाते हैं, उनके अंदर से विकार समाप्त हो जाते हैं, कामादिक पाँचों से उनका साथ टूट जाता है। हे नानक! कह– जिन मनुष्यों के हृदय में मेरा हरी-प्रभू आ बसा है मैं उनसे सदके कुर्बान जाता हूँ।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |