श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 584 वडहंसु मः ३ ॥ रोवहि पिरहि विछुंनीआ मै पिरु सचड़ा है सदा नाले ॥ जिनी चलणु सही जाणिआ सतिगुरु सेवहि नामु समाले ॥ सदा नामु समाले सतिगुरु है नाले सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ ॥ सबदे कालु मारि सचु उरि धारि फिरि आवण जाणु न होइआ ॥ सचा साहिबु सची नाई वेखै नदरि निहाले ॥ रोवहि पिरहु विछुंनीआ मै पिरु सचड़ा है सदा नाले ॥१॥ {पन्ना 584} पद्अर्थ: रोवहि = दुखी होती हैं। पिरहि = पिर से, प्रभू पति से। मै पिरु = मेरा प्रभू पति। सचड़ा = सदा जीता जागता। चलणु = चलना, कूच, मौत। सेवहि = सेवा करती हैं। समाले = संभाल हृदय में बसा के। सबदे = शबद द्वारा। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। मारि = मार के। उरि = हृदय में। धारि = रख के। सदा = सदा कायम रहने वाला। सची = सदा कायम रहने वाली। नाई = (स्ना से ‘असनाई’ और ‘नाई’ दो रूप हैं) वडिआई, महिमा। नदरि = मेहर की निगाह। निहाले = देखता है।1। अर्थ: प्रभू-पति से विछुड़ी हुई जीव-सि्त्रयां सदा दुखी रहती हैं (वे नहीं जानती कि) मेरा प्रभू-पति सदा जीता-जागता है, और, सदा हमारे साथ बसता है। हे भाई! जिन जीवों ने (जगत से आखिर) चले जाने को ठीक मान लिया है वे परमात्मा का नाम हृदय में बसा के गुरू की बताई हुई सेवा करते हैं। हे भाई! जो मनुष्य प्रभू के नाम को दिल में सदा बसाए रखता है, गुरू उस के अंग-संग बसता है, वह गुरू के द्वारा बताई हुई सेवा करके सुख लेता है। गुरू के शबद की बरकति से मौत के डर को दूर करके वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभू को अपने हृदय में बसाता है, उसको दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं पड़ता। हे भाई! मालिक प्रभू सदा कायम रहने वाला है, उसकी वडिआई सदा कायम रहने वाली है, वह मेहर की निगाह करके (सब जीवों की) संभाल करता है। (पर) प्रभू-पति से विछुड़ी हुई जीव-सि्त्रयां सदा दुखी रहती हैं (वह नहीं जानतीं कि) मेरा प्रभू-पति सदा जीता-जागता है, और सदा हमारे साथ बसता है।1। प्रभु मेरा साहिबु सभ दू ऊचा है किव मिलां प्रीतम पिआरे ॥ सतिगुरि मेली तां सहजि मिली पिरु राखिआ उर धारे ॥ सदा उर धारे नेहु नालि पिआरे सतिगुर ते पिरु दिसै ॥ माइआ मोह का कचा चोला तितु पैधै पगु खिसै ॥ पिर रंगि राता सो सचा चोला तितु पैधै तिखा निवारे ॥ प्रभु मेरा साहिबु सभ दू ऊचा है किउ मिला प्रीतम पिआरे ॥२॥ {पन्ना 584} पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। सभदू = सबसे। किव = किस तरह? सतिगुरि = सतिगुरू ने। सहजि = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। उर = हृदय। ते = से, के द्वारा। दिसै = दिखाई देता है, दर्शन होते हैं। कचा चोला = कच्चे रंग वाला चोला। तितु = उसके द्वारा। तितु पैधै = उसके पहनने से। पगु = पैर। खिसै = खिसकता है, फिसलता है, डोलता है। रंगि = रंग में। राता = रंगा हुआ। सचा चोला = पक्के रंग वाला चोला। तिखा = माया की तृष्णा। निवारे = दूर कर देता है।2। अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक प्रभू सबसे ऊँचा है (पर मैं जीव-स्त्री बड़े नीचे जीवन वाली हूँ) मैं उस प्यारे-प्रीतम को कैसे मिल सकती हूँ? जब गुरू ने (किसी जीव-स्त्री को उस प्रभू में) मिलाया, तो वह आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभू के साथ मिल गई, उस जीव-स्त्री ने प्रभू-पति को अपने हृदय में बसा लिया। वह जीव-स्त्री प्रभू को सदा अपने हृदय में बसाए रखती है वह सदा प्यारे-प्रभू से प्यार बनाए रखती है। हे भाई! गुरू के माध्यम से प्रभू-पति के दर्शन होते हैं। माया का मोह, जैसे कच्चे रंग वाला चोला है, अगर ये चोला पहने रखें, (आत्मिक जीवन के राह में मनुष्य का) पैर फिसलता ही रहता है। प्रभू-पति के प्रेम-रंग में रंगा हुआ चोला पक्के रंग वाला है, अगर ये चोला पहन लें, तो (प्रभू का प्यार मनुष्य के हृदय में से माया की) तृष्णा दूर कर देता है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभू सबसे ऊँचा है (पर मैं जीव-स्त्री बहुत ही तुच्छ जीवन वाली हूँ) मैं उस प्यारे पति को कैसे मिल सकती हूँ?।2। मै प्रभु सचु पछाणिआ होर भूली अवगणिआरे ॥ मै सदा रावे पिरु आपणा सचड़ै सबदि वीचारे ॥ सचै सबदि वीचारे रंगि राती नारे मिलि सतिगुर प्रीतमु पाइआ ॥ अंतरि रंगि राती सहजे माती गइआ दुसमनु दूखु सबाइआ ॥ अपने गुर कंउ तनु मनु दीजै तां मनु भीजै त्रिसना दूख निवारे ॥ मै पिरु सचु पछाणिआ होर भूली अवगणिआरे ॥३॥ {पन्ना 584} पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। पछाणिआ = सांझ डाली। अवगणिआरे = अवगुणों से भरी हुई। रावे = आत्मिक आनंद बख्शता है, चरणों से जोड़े रखता है। सबदि = शबद से। वीचारे = विचार करके। रंगि = प्रेम रंग में। नारे = नारी, जीव स्त्री। मिलि सतिगुर = गुरू को मिल के। सहजे = आत्मिक टडोलता में। माती = मस्त। सबाइआ = सारा। कंउ = को। दीजै = दे देना चाहिए। भीजै = भीग जाता है, रस जाता है।3। अर्थ: (गुरू ने मेरे पर मेहर की, तब) मैंने सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ सांझ डाल ली (पहचान बना ली)। जिसे गुरू का मिलाप नसीब ना हुआ वह अवगुण में फंसी रही और प्रभू-चरणों से वंचित रही। गुरू के शबद से सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुणों की विचार करने के कारण मेरा प्रभू-पति मुझे सदा अपने चरणों में जोड़े रखता है। जो जीव-स्त्री गुरू के शबद द्वारा सदा-स्थिर प्रभू के गुणों की विचार अपने मन में बसाती है, वह प्रभू के प्रेम-रंग में रंगी रहती है, गुरू को मिल के वह प्रभू-प्रीतम को (अपने अंदर ही) पा लेती है, वह अपने अंतरात्मे परमात्मा के प्यार-रंग में रंगी रहती है, वह सदा आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है, (उसके विकार आदि) हरेक दुश्मन और दुख दूर हो जाते हैं। हे भाई! ये शरीर और ये मन अपने गुरू के हवाले कर देना चाहिए (जब तन-मन गुरू को दे दें) तब मन (हरी-नाम-रस से) भीग जाता है (गुरू मनुष्य के) तृष्णा आदि दुख दूर कर देता है। (गुरू ने मेरे पर मेहर की तब) मैंने सदा कायम रहने वाले परमात्मा के साथ सांझ डाली। जिसे गुरू का मिलाप नसीब ना हुआ वह अवगुणों में फंसी रही और प्रभू-चरणों से वंचित रही।3। सचड़ै आपि जगतु उपाइआ गुर बिनु घोर अंधारो ॥ आपि मिलाए आपि मिलै आपे देइ पिआरो ॥ आपे देइ पिआरो सहजि वापारो गुरमुखि जनमु सवारे ॥ धनु जग महि आइआ आपु गवाइआ दरि साचै सचिआरो ॥ गिआनि रतनि घटि चानणु होआ नानक नाम पिआरो ॥ सचड़ै आपि जगतु उपाइआ गुर बिनु घोर अंधारो ॥४॥३॥ {पन्ना 584} पद्अर्थ: सचड़ै = सदा कायम रहने वाले प्रभू ने। घोर अंधारो = घोर अंधेरा। आपे = आप ही। देइ = देता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। वापारो = व्यापार, नाम का वणज। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। धनु = सफल, धन्य। आपु = स्वै भाव। दरि = दर से। सचिआरो = सुर्ख रू। गिआनि = ज्ञान से, आत्मिक जीवन की सूझ से। रतनि = रतन से। घटि = हृदय में। नाम पिआरो = नाम का प्यार।4। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने खुद यह जगत पैदा किया है, पर गुरू की शरण पड़े बिना जीव को (इसमें आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार (बना रहता) है। (गुरू की शरण पा कर) परमात्मा स्वयं ही (जीव को अपने साथ) मिला लेता है, खुद (ही जीव को) मिलाता है, खुद ही (अपने चरणों का) प्यार बख्शता है। प्रभू खुद ही (अपना) प्यार देता है, (जीव को) आत्मिक अडोलता में टिका के (अपने नाम का) व्यापार करवाता है, और गुरू की शरण पा कर (जीव का) जनम सँवारता है। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करता है, उसका जगत में आना सफल हो जाता है, वह सदइा-स्थिर रहने वाले प्रभू के दर पर सुर्खरू हो जाता है। हे नानक! (गुरू से मिले) ज्ञान-रत्न की बरकति से उसके हृदय में (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है। हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने स्वयं ये जगत पैदा किया है, पर गुरू की शरण पड़े बिना (जीव को इसमें आत्मिक जीवन की ओर से) घोर अंधकार बना ही रहता है।4।3। वडहंसु महला ३ ॥ इहु सरीरु जजरी है इस नो जरु पहुचै आए ॥ गुरि राखे से उबरे होरु मरि जमै आवै जाए ॥ होरि मरि जमहि आवहि जावहि अंति गए पछुतावहि बिनु नावै सुखु न होई ॥ ऐथै कमावै सो फलु पावै मनमुखि है पति खोई ॥ जम पुरि घोर अंधारु महा गुबारु ना तिथै भैण न भाई ॥ इहु सरीरु जजरी है इस नो जरु पहुचै आई ॥१॥ {पन्ना 584} पद्अर्थ: जजरी = नाश हो जाने वाला, जर्जर। इस नो: यहाँ ‘इसु’ शब्द की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। जर = बुढ़ापा। पहुचै आइ = आ पहुँचता है। गुरि = गुरू ने। से = वह मनुष्य (बहुवचन)। उबरे = बच जाते हैं। होरु = जो मनुष्य गुरू की शरण नहीं आता। आवै = पैदा होता है। जाऐ = मरता है। होरि = (‘होरु’ का बहुवचन) और लोग, वे लोग जो गुरू की शरण नहीं आते। जंमहि = पैदा होते हैं। आवहि = पैदा होते हैं। जावहि = मर जाते हैं। अंति = आखिर में। गऐ = जाते हैं। अैथै = इस जगत में। कमावै = (मनुष्य जो) कर्म करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। पति = इज्जत। जम पुरि = यमराज की पुरी में। घोरु अंधारु = घुप अंधेरा। महा गुबारु = बहुत अंधेरा। तिथै = उस जगह पर।1। अर्थ: हे भाई! ये शरीर पुराना हो जाने वाला है, इसे बुढ़ापा (अवश्य) आ दबोचता है (पर मनुष्य इस शरीर के मोह में फंसा रहता है) जिन मनुष्यों की गुरू ने रक्षा की, वह (मोह में गर्क होने से) बच जाते हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण नहीं आता, वह (इस शरीर के मोह में फंस के) पैदा होता और मरता है, मरता है पैदा होता है। गुरू की शरण ना पड़ने वाले मनुष्य (शारीरिक मोह में फंस के) बार बार पैदा होते हैं मरते हैं, अंत में जाते हुए हाथ मलते ही जाते हैं, परमात्मा के नाम के सिमरन के बिना उन्हें (कभी) सुख नसीब नहीं होता। हे भाई! इस लोक में मनुष्य जो करणी करता है वही फल भोगता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (इस लोक में) अपनी इज्जत गवा लेता है। यमराज की पुरी में भी (परलोक में भी उसके आत्मिक जीवन के लिए) घोर अंधेरा बहुत अंधकार ही टिका रहता है, (इस दुनिया वाला कोई) भाई-बहन उस लोक में सहायता नहीं कर सकता। हे भाई! ये शरीर पुराना हो जाने वाला है, इसको बुढ़ापा (जरूर) आता है (पर, मनुष्य इस शरीर के मोह में फंसा रहता है)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |