श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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काइआ कंचनु तां थीऐ जां सतिगुरु लए मिलाए ॥ भ्रमु माइआ विचहु कटीऐ सचड़ै नामि समाए ॥ सचै नामि समाए हरि गुण गाए मिलि प्रीतम सुखु पाए ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती विचहु हंउमै जाए ॥ जिनी पुरखी हरि नामि चितु लाइआ तिन कै हंउ लागउ पाए ॥ कांइआ कंचनु तां थीऐ जा सतिगुरु लए मिलाए ॥२॥ {पन्ना 585}

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कंचनु = सोना, सोने जैसा पवित्र। तां = तब। लऐ मिलाऐ = मिला लिए। भ्रमु = भटकना। नामि = नाम में। समाऐ = लीन हो जाता है। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के। अनंदि = आनंद में। पुरखी = पुरखों ने। हंउ = मैं। तिन कै पाऐ = उनके चरनों में। लागउ = लगूँ, मैं लगता हूँ।2।

अर्थ: हे भाई! (मनुष्य का) ये शरीर तब सोने जैसा पवित्र होता है जब गुरू (मनुष्य को) परमात्मा के चरणों में जोड़ देता है। (तब मनुष्य) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है, और इसके अंदर माया के प्रति भटकना दूर हो जाती है। मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू के नाम में लीन हो जाता है, परमात्मा के गुण गाता रहता है, प्रभू-प्रीतम को मिल के आनंद लेता है। इस आनंद में दिन-रात टिका रहता है और इसके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में चिक्त जोड़ा हुआ है, मैं उनके चरण लगता हूँ। (मनुष्य का ये) शरीर तब सोने की तरह पवित्र हो जाता है, जब गुरू मनुष्य को परमात्मा के चरणों में जोड़ देता है।2।

सो सचा सचु सलाहीऐ जे सतिगुरु देइ बुझाए ॥ बिनु सतिगुर भरमि भुलाणीआ किआ मुहु देसनि आगै जाए ॥ किआ देनि मुहु जाए अवगुणि पछुताए दुखो दुखु कमाए ॥ नामि रतीआ से रंगि चलूला पिर कै अंकि समाए ॥ तिसु जेवडु अवरु न सूझई किसु आगै कहीऐ जाए ॥ सो सचा सचु सलाहीऐ जे सतिगुरु देइ बुझाए ॥३॥ {पन्ना 585}

पद्अर्थ: साच सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। सलाहीअै = सलाहा जा सकता है। देइ बुझाऐ = समझा दे, सिफत सलाह की समझ बख्श दे। भरमि = (माया की) भटकना में। भुलाणीआ = गलत रास्ते पड़ जाती है। देसनि = देंगी। आगै = परलोक में। जाऐ = जा के। देनि = देती हैं। अवगुणि = अवगुणों के कारण। पछुताऐ = (जीव स्त्री) पछताती है। कमाऐ = कमा लेती है, ऊपर ले लेती है। नामि = नाम में। रंगि = रंग में। चलूला = गाढ़ा। अंकि = गोद में, गले से। समाऐ = समा के, लीन हो के। तिसु जेवडु = उस (परमात्मा) के बराबर का। जाऐ = जाइ, जा के।3।

अर्थ: हे भाई! उस सदा रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह तब ही की जा सकती है, अगर गुरू (सिफत सालाह करने की) बुद्धि दे। गुरू की शरण के बिना (जीव-सि्त्रयाँ माया की) भटकना में गलत रास्ते पर पड़ जाती हैं, और परलोक में जा के शर्म-सार होती हैं। परलोक में जा के वे मुँह नहीं दिखा सकतीं।

हे भाई! जो जीव-स्त्री अवगुण में फंस जाती है, वह आखिर पछताती है, वह सदा दुख ही दुख सहेड़ती है। परमात्मा के नाम में रंगी हुई जीव-सि्त्रयां परमात्मा के चरणों में लीन हो के गाढ़े प्रेम-रंग में (मस्त रहती हैं)।

हे भाई! उस परमात्मा के बराबर का (जगत में) कोई और नहीं दिखता (इस वास्ते परमात्मा के बिना) किसी और के आगे (कोई दुख-सुख) बताया नहीं जा सकता। (पर) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह तभी की जा सकती है, अगर गुरू (सिफत सालाह करने की) समझ बख्श दे।3।

जिनी सचड़ा सचु सलाहिआ हंउ तिन लागउ पाए ॥ से जन सचे निरमले तिन मिलिआ मलु सभ जाए ॥ तिन मिलिआ मलु सभ जाए सचै सरि नाए सचै सहजि सुभाए ॥ नामु निरंजनु अगमु अगोचरु सतिगुरि दीआ बुझाए ॥ अनदिनु भगति करहि रंगि राते नानक सचि समाए ॥ जिनी सचड़ा सचु धिआइआ हंउ तिन कै लागउ पाए ॥४॥४॥ {पन्ना 585}

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर, अडोल चिक्त। सरि = सरोवर में। नाऐ = नहाए, स्नान कर लेता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाऐ = प्रेम में। सतिगुरि = गुरू ने। अनदिनु = हर रोज। सचि = सदा स्थिर हरी में। समाऐ = लीन रह के।4।

अर्थ: जिन्होंने सदा स्थिर-प्रभू की सिफत सालाह की, मैं उनके चरणों में लगता हूँ। वह मनुष्य अडोल-चिक्त हो जाते हैं, पवित्र हो जाते हैं, उनके दर्शन करने से (विकारों की) सारी मैल उतर जाती है। (जो मनुष्य उनका दर्शन करता है, वह मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभू के नाम सरोवर मे स्नान करता है, वह सदा-स्थिर हरी में लीन हो जाता है, आत्मिक अडोलता में टिक जाता है, प्रेम-रंग में मस्त रहता है। हे भाई! परमात्मा का नाम माया की कालिख से रहित (करने वाला) है, पर प्रभू (समझदारी चतुराई से) नहीं पाया जा सकता (अपहुँच है), ज्ञानेन्द्रियों की भी उस तक पहुँच नहीं। जिनको गुरू ने (प्रभू की) सूझ दी, वे, हे नानक! सदा-स्थिर प्रभू में लीन हो के हर वक्त नाम-रंग में रंगे हुए प्रभू की भक्ति करते रहते हैं।

हे भाई! जिन्होंने सदा कायम रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह करने का उद्यम पकड़ लिया, मैं उनके चरणों में लगता हूँ।4।4।


वडहंस की वार महला ४     (ੴ ) इक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥

वार का भाव

पउड़ी वार:

जिस परमात्मा ने अदृश्य रूप से स्वरूप वाला हो के यह जगत रचा है, जो सब कुछ करने के समर्थ है और जो सब जीवों को बिन मांगे ही दान देता है उसकी बंदगी की ख़ैर सतिगुरू से ही मिलती है।

सतिगुरू के अंदर परमात्मा प्रत्यक्ष प्रकट है, क्योंकि गुरू अपनत्व मिटा के परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाता है। गुरू और लोगों को भी परमात्मा के नजदीक अंग-संग दिखा के विकारों से बचा लेता है और सुंदर राह पर डाल देता है।

सतिगुरू ही मनुष्य को परमात्मा से मिलने के राह बताता है, मनुष्य के मन में मोह का अंधेरा दूर करके उसको प्रभू की याद में जोड़ता है।

सतिगुरू सिख को सत्संग में सांझीवाल बनाता है, क्योंकि सत्संग में जा के सहज स्वभाव ही मनुष्य सिमरन में लग जाता है, वहाँ होती ही परमात्मा के गुणों की विचार है।

परमात्मा की सिफत सालाह की बातें सुनकर गुरू मनुष्य को परमात्मा के अस्तित्व की सूझ डाल देता है, बंदगी में जोड़ के तृष्णा आदि से बचाता है और संतोष वाला जीवन जीने की जाच सिखाता है।

सतिगुरू के उपदेश की बरकति से मनुष्य पराई आस त्यागता है; गुरू की बाणी के द्वारा प्रभू की सिफत सालाह करके मनुष्य के सारे दुख दूर हो जाते हैं; क्योंकि इसके अंदर एक परमात्मा की याद की चाहत बढ़ जाती है।

सतिगुरू की रहिनुमाई में ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभू का नाम सिमरता है, इसके अंदर से अहंकार दूर होता जाता है, अवगुण मिटते हैं और जीवन का आसरा परमात्मा नजदीक अंग-संग दिखने लग पड़ता है।

परमात्मा इन आँखों से दिखता नहीं; पर सतिगुरू मनुष्य को उसके गुण सुना-सुना के ये दृढ़ करवा देता है कि वह सब जीवों का मालिक हरेक दिल की जानता है और सब कुछ करने के समर्थ है। इस तरह गुरू मनुष्य के मन में परमात्मा के अंग-संग होने का विश्वास पैदा कर देता है।

सतिगुरू का मन पवित्र होता है, गुरू शाहों का शाह है जिसके पास प्रभू के नाम का खजाना है; गुरू के अंदर विवेक-मति होने के कारण उसको हर जगह परमात्मा ही परमात्मा दिखता है।

जरूरतों का मारा हुआ मनुष्य लोगों के दर पर जा के गुहार लगाता है; पर, सब जीवों का एक परमात्मा ही है; जो मनुष्य उसके दर पर सवाली होता है, उसी की मुराद भी पूरी होती है और प्रभू के नाम-सिमरन की बरकति से उसकी माया वाली भूख ही मिट जाती है।

ये ‘नाम’ सतिगुरू से ही मिलता है; गुरू नाम का, जैसे, खजाना है, भाग्यशाली मनुष्य ही गुरू से इस पदार्थ को पाते हैं, ‘नाम’ का वयापार करते हैं और जग में असल लाभ कमा के जाते हैं।

गुरू जिस मनुष्य के हृदय में ‘नाम’ दृढ़ करता है, उसके अंदर से अहंकार और दुविधा निकल जाती है उसका मन प्रेम के रंग से रंगा जाता है। उसे यकीन आ जाता है कि जगत में असल संगी प्रभू का नाम ही है।

बीते समय के महांपुरुषों की तरफ ही देख लो; प्रहलाद, जनक, वशिष्ट आदि सबको गुरू की शरण पड़ने पर ही नाम-सिमरन की दाति मिली; गुरू के बिना किसी को नहीं मिली।

जिस मनुष्य के मन में प्रभू का नाम बस जाए, सारा जगत उसके आगे झुकता है; उस मनुष्य को जगत में किसी की मुथाजी नहीं रहती; पर ये बरकति प्रभू की मेहर से उसे ही नसीब होती है जो गुरू की शरण पड़े।

बंदगी करने वाला मनुष्य इस श्रद्धा पे आ टिकता है कि असल संग-साक परमात्मा ही है, दुख सुख के समय असली सलाहकार और साथी उसका नाम ही है। नतीजा ये निकलता है कि जितना समय यहाँ जीता है मनुष्य विकारों से बचा रहता है, और यहाँ से चलने के वक्त भी विकारों की कोई पोटली ले के नहीं चलता।

बंदगी वाले को प्रभू का नाम ही हर जगह रक्षक दिखता है, जगत से चलने के वक्त भी ‘नाम’ ही उसे माया की जंजीरों से छुड़वाता है; पर इस हरी नाम की समझ सतिगुरू परोपकारी से ही पड़ती है।

जगत में कोई तो सुंदर स्वादिष्ट पकवान खाने में मस्त है, कोई सुंदर कपड़े पहनने में मगन है, कोई निरा वणज-व्यापार में मशगूल है; पर, बंदगी वाले को जो रस -नाम’ में है, वह इन चीजों में नहीं मिलता। हाँ, इस लगन वाला होता कोई विरला ही है जिस पर मेहर हो और जो गुरू की शरण आए।

वह मनुष्य भाग्यशाली है जो गुरू की शरण पड़ कर गुरू की रजा में चल के परमात्मा का नाम सिमरता है, सिमरन की बरकति से उसके मन में खुशी और खिड़ाव पैदा होता है।

सतिगुरू की शरण पड़ने से मन में शांति पैदा होती है, परमात्मा के नाम में सुरति जुड़ती है और वैरी से भी मित्र भावना बन जाती है।

जो मनुष्य परमात्मा के नाम को जिंदगी का आसरा बनाता है, उसकी और सारी लालसाएं मिट जाती हैं, उसे हरेक जीव प्रभू में बसता दिखाई देता है।

जो मनुष्य गुरू के सन्मुख हो के नाम जपता है उसे ये निश्चय हो जाता है कि परमात्मा स्वयं ही सब जीवों को पैदा करने वाला है, हरेक में मौजूद है, मारने वाला भी वह खुद ही है और रखने वाला भी वह ही है। इस श्रद्धा से ज्यों-ज्यों सिमरन करता है, त्यों-त्यों कोई चिंता-फिक्र उससे दूर होते जाते हैं।

समूचा भाव:

(पउड़ी नंबर 1 और 2) प्रभू हरेक जीव में मौजूद है, पर ये प्रत्यक्ष विश्वास केवल गुरू को होता है, इस वास्ते प्रभू की बंदगी की खैर गुरू से ही मिल सकती है।

(पउड़ी नंबर 3 से 13 तक) गुरू की संगति में रह के ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभू की याद में जुड़ता है त्यों-त्यों इसके अंदर से मोह का अंधेरा, माया की तृष्णा व अहंकार मिट जाता है, प्रभू अंग-संग दिखाई देने लग पड़ता है, ये यकीन बन जाता है कि जगत में असल संगी हरी-नाम ही है। पिछले महापुरुष प्रहलाद, जनक, वशिष्ट आदि की ओर ही देख लो, गुरू के बिना किसी को प्राप्ति नहीं हुई।

(पउड़ी नंबर 14 से 21 तक) गुरू की शरण में रह कर नाम जपने से किसी की मुथाजी नहीं रहती, असल संग-साक प्रभू ही है प्रतीत होने लगता है (ये समझ आ जाती है), वही हर जगह रक्षक दिखता है, नाम-रस जगत के अन्य सभी रसों से मीठा लगने लगता है, मन हर समय खिला रहता है, मित्र-वैरी एक समान प्रतीत होते हैं, हरेक जीव में ईश्वर ही दिखता है, मारने वाला भी वही और जीवित रखने वाला भी वही नजर आता है, इसलिए जगत का कोई डर छू नहीं सकता।

मुख्य भाव:

केवल गुरू की शरण पड़ने से ही मनुष्य सर्वव्यापक प्रभू की बंदगी कर सकता है, गुरू के बिना प्राप्ति नहीं हो सकती।

वडहंस की वार महला ४ ललां बहलीमा की धुनि गावणी

काँगड़े के इलाके में (हिमाचल) दो छोटे–छोटे राजपूत राजे ललां और बहलीमा थे। एक बार ललां के क्षेत्र में मुश्किल आ बनी, उसने अपनी पैदावार का छेवाँ हिस्सा देने का इकरार करके बहलीमा की नहर से पानी लिया। पैदावार के समय अपने इस वादे को पूरा नहीं किया। दोनों में लड़ाई हो गई, जिसमें बहलीमा को विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई का वर्णन कवियों ने ‘वार’ के रूप् में गाया, जिसका एक नमूना यहाँ दिया जा रहा है;

काल ललां दे देश दा खोया बहलीमा॥
हिस्सा छटा मनाय कै जलु नहरों दीना॥
फिराऊन होय ललां ने रण मंडिआ धीमा॥
भेड़ दुहू दिस मचिया सॅट पई अजीमा॥
सिर धड़ डिगे खेत विच जिउ वाहण ढीमा॥
देखि मारे ललां बहलीम ने रण महि बर्छीमा॥

सतिगुरू जी ने आज्ञा की है कि उक्त वार की सुर में गुरू रामदास जी की ये वडहंस की वार गायन करनी है।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक मः ३ ॥ सबदि रते वड हंस है सचु नामु उरि धारि ॥ सचु संग्रहहि सद सचि रहहि सचै नामि पिआरि ॥ सदा निरमल मैलु न लगई नदरि कीती करतारि ॥ नानक हउ तिन कै बलिहारणै जो अनदिनु जपहि मुरारि ॥१॥ {पन्ना 585}

पद्अर्थ: वडहंस = बड़े हंस, बडे़ विवेकी। उरि = हृदय में। संग्रहहि = इकट्ठा करते हैं। सचि = सच में। पिआरि = प्यार के कारण। करतारि = करतार ने। मुरारि = परमात्मा।

अर्थ: जो मनुष्य सच्चे नाम को हृदय में परो के सतिगुरू के शबद में रंगे हुए हैं, वे बड़े विवेकी (संत) हैं; वे सच्चा नाम (रूपी धन) एकत्र करते हैं, और सच्चे नाम में प्यार के कारण सच में ही लीन रहते हैं; करतार ने उन पर मेहर की नजर की है; (इसलिए) वे सदा पवित्र हैं उनको (विकारों की) मैल नहीं लगती। हे नानक! (कह–) जो मनुष्य हर वक्त प्रभू को सिमरते हैं, मैं उनके सदके हूँ।1।

मः ३ ॥ मै जानिआ वड हंसु है ता मै कीआ संगु ॥ जे जाणा बगु बपुड़ा त जनमि न देदी अंगु ॥२॥ {पन्ना 585}

पद्अर्थ: बगु = बगुला, पाखण्डी मनुष्य। जनमि = जनम से ही, आरम्भ से ही। अंगु न देई = पास नही बैठती।

अर्थ: मैंने समझा था कि ये कोई बड़ा संत है, इस वास्ते मैंने इससे साथ किया था; अगर मुझे पता होता कि ये बेचारा पाखण्डी मनुष्य है तो मैं शुरू से ही इसके पास ना बैठती।2।

मः ३ ॥ हंसा वेखि तरंदिआ बगां भि आया चाउ ॥ डुबि मुए बग बपुड़े सिरु तलि उपरि पाउ ॥३॥ {पन्ना 585}

पद्अर्थ: तलि = नीचे। सिरु तलि, उपर पाउ = सिर नीचे और पैर ऊपर को पैर, सिर के बल हो के।

अर्थ: हंसों को तैरता देख के बगुलों को भी शौक पैदा हो गया (और वे भी हंस की नकल करके तैरने का प्रदर्शन करने लगे, पर हुआ क्या) बगुले बेचारे सिर के बल उलटे हो के डूब के मर गए।3।

पउड़ी ॥ तू आपे ही आपि आपि है आपि कारणु कीआ ॥ तू आपे आपि निरंकारु है को अवरु न बीआ ॥ तू करण कारण समरथु है तू करहि सु थीआ ॥ तू अणमंगिआ दानु देवणा सभनाहा जीआ ॥ सभि आखहु सतिगुरु वाहु वाहु जिनि दानु हरि नामु मुखि दीआ ॥१॥ {पन्ना 585}

पद्अर्थ: कारणु = मुढ, आरम्भ। निरंकारु = निर्गुण रूप, जिसका कोई खास रूप नहीं। बीआ = दूसरा। वाहु वाहु = धन्य।

अर्थ: हे प्रभू! संसार का आरम्भ तूने स्वयं किया, (क्योंकि इससे पहले भी) तू खुद ही है, तू स्वयं ही है; तेरा कोई खास स्वरूप नहीं है (जो मैं बयान कर सकूँ), तेरे जैसा कोई दूसरा नहीं है। सृष्टि की उत्पक्ति करने में तू ही समर्थ है, जो कुछ तू करता है वही होता है; तू सारे जीवों को (उनके) मांगे बिना ही सब दातें दे रहा है।

(हे भाई!) सभी कहो- सतिगुरू (भी) धन्य है जिसने (ऐसे) प्रभू की नाम-रूपी दात (हमारे) मुँह में डाली है (भाव, हमें नाम की दाति बख्शी है)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh