श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः ३ ॥ भै विचि सभु आकारु है निरभउ हरि जीउ सोइ ॥ सतिगुरि सेविऐ हरि मनि वसै तिथै भउ कदे न होइ ॥ दुसमनु दुखु तिस नो नेड़ि न आवै पोहि न सकै कोइ ॥ गुरमुखि मनि वीचारिआ जो तिसु भावै सु होइ ॥ नानक आपे ही पति रखसी कारज सवारे सोइ ॥१॥ {पन्ना 586}

पद्अर्थ: सतिगुरि सेविअै = अगर गुरू की बताई कार करें, अगर गुरू के बताए हुए राह पर चलें। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के राह पर चलता है, गुरू के सन्मुख मनुष्य। तिसु = उस (प्रभू) को।

अर्थ: (जगत का) सारा आकार (भाव, जगत में जो कुछ दिखाई दे रहा है) डर के अधीन है, एक वह परमात्मा ही (जिसने ये जगत बनाया है) डर से रहित है। अगर गुरू के बताए हुए राह पर चलें तो (वह डर रहित) प्रभू मन में आ बसता है, (फिर) उस मन में कभी (कोई) डर नहीं व्यप्तता, कोई वैरी उसके नजदीक नहीं फटकता, कोई दुख उसे छू नहीं सकता।

हे नानक! गुरमुखों के मन में ये विचार उठती है कि जो कुछ प्रभू को अच्छा लगता है वही होता है; हमारी लाज वह खुद ही रखेगा, (हमारे) काम वह स्वयं ही सँवारेगा।1।

मः ३ ॥ इकि सजण चले इकि चलि गए रहदे भी फुनि जाहि ॥ जिनी सतिगुरु न सेविओ से आइ गए पछुताहि ॥ नानक सचि रते से न विछुड़हि सतिगुरु सेवि समाहि ॥२॥ {पन्ना 586}

अर्थ: कुछ सज्जन जाने को तैयार हैं, कुछ चले गए हैं, और बाकी के भी चले जाएंगे (भाव, जगत में जो भी आया है वह यहाँ सदा नहीं रह सकता); पर जिन मनुष्यों ने गुरू की बताई हुई कार नहीं की, वह जगत में आ के यहाँ से पछताते ही चले जाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य सच्चे नाम में रंगे हुए हैं वह (परमात्मा से) नहीं विछुड़ते, वे गुरू की बताई हुई सेवा करके (प्रभू में) जुड़े रहते हैं।2।

पउड़ी ॥ तिसु मिलीऐ सतिगुर सजणै जिसु अंतरि हरि गुणकारी ॥ तिसु मिलीऐ सतिगुर प्रीतमै जिनि हंउमै विचहु मारी ॥ सो सतिगुरु पूरा धनु धंनु है जिनि हरि उपदेसु दे सभ स्रिस्टि सवारी ॥ नित जपिअहु संतहु राम नामु भउजल बिखु तारी ॥ गुरि पूरै हरि उपदेसिआ गुर विटड़िअहु हंउ सद वारी ॥२॥ {पन्ना 586}

पद्अर्थ: भउजल = संसार समुंद्र। बिखु = जहर। उपदेसिआ = नजदीक दिखाया है (दिश = हाथ आदि के इशारे से दिखाना। उप = नजदीक। उपदिश = नजदीक दिखा देना)

अर्थ: उस प्यारे गुरू को मिलना चाहिए, जिसके हृदय में गुणों का श्रोत परमात्मा बस रहा है, उस प्रीतम सतिगुरू की शरण पड़ना चाहिए जिसने अपने अंदर से अहंकार दूर कर लिया है।

‘हे संत जनो! संसार-समुंद्र के (माया रूपी) जहर से पार लंघाने वाला हरि-नाम जपो’ - प्रभू सिमरन की ये शिक्षा दे के जिस सतिगुरू ने सारी सृष्टि को सुंदर बना दिया है, वह सतिगुरू धन्य है, वह गुरू धन्य है। अपने सतिगुरू से मैं सदके हूँ, पूरे सतिगुरू ने मुझे परमात्मा नजदीक दिखा दिया है।2।

सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा चाकरी सुखी हूं सुख सारु ॥ ऐथै मिलनि वडिआईआ दरगह मोख दुआरु ॥ सची कार कमावणी सचु पैनणु सचु नामु अधारु ॥ सची संगति सचि मिलै सचै नाइ पिआरु ॥ सचै सबदि हरखु सदा दरि सचै सचिआरु ॥ नानक सतिगुर की सेवा सो करै जिस नो नदरि करै करतारु ॥१॥ {पन्ना 586}

पद्अर्थ: सारु = तत्व, निचोड़। सुखी हूँ सुख = अच्छे से अच्छे सुख का। अैथै = जगत में।

अर्थ: गुरू की बताई चाकरी करनी बढ़िया से बढ़िया सुख का सार है (गुरू की बताई हुई सेवा करने से) जगत में आदर मिलता है, और प्रभू की हजूरी में सुर्खरूई का द्वार। (गुरू सेवा की यही) सच्ची कार कमाने के लायक है, (इससे) मनुष्य को (पर्दे ढकने के लिए) नाम-रूपी पोशाक मिल जाती है, सच्चा नाम-रूपी आसरा मिल जाता है, सच्ची संगति की प्राप्ति होती है, सच्चे नाम में प्यार पड़ता है और सच्चे प्रभू में समाई हो जाती है।

(गुरू के) सच्चे शबद की बरकति से (मनुष्य के मन में) सदा खुशी बनी रहती है, और प्रभू की हजूरी में मनुष्य सुर्खरू हो जाता है।

पर, हे नानक! सतिगुरू का बताया हुआ काम वही मनुष्य करता है, जिस पर प्रभू स्वयं मेहर की नजर करता है।1।

मः ३ ॥ होर विडाणी चाकरी ध्रिगु जीवणु ध्रिगु वासु ॥ अम्रितु छोडि बिखु लगे बिखु खटणा बिखु रासि ॥ बिखु खाणा बिखु पैनणा बिखु के मुखि गिरास ॥ ऐथै दुखो दुखु कमावणा मुइआ नरकि निवासु ॥ मनमुख मुहि मैलै सबदु न जाणनी काम करोधि विणासु ॥ सतिगुर का भउ छोडिआ मनहठि कमु न आवै रासि ॥ जम पुरि बधे मारीअहि को न सुणे अरदासि ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा गुरमुखि नामि निवासु ॥२॥ {पन्ना 586}

अर्थ: (प्रभू की बंदगी छोड़ के) और बेगानी कार (करने वालों का) जीना और बसना धिक्कारयोग्य है (क्योंकि) वह मनुष्य अंमृत छोड़ के (माया रूप) जहर (एकत्र करने) में लगे हुए हैं, जहर ही उनकी कमाई है और जहर ही उनकी पूँजी है, जहर ही उनकी खुराक है जहर ही उनकी पोशाक है और जहर की ही वे मनुष्य मुंह में ग्रास डाल रहे हैं, ऐसे लोग जगत में निरा दुख ही भोगते हैं और मरने के बाद भी उनका वास नर्क में होता है। मुंह से मैले होने के कारण मन के पीछे चलने वाले मनुष्य गुरू के शबद को नहीं पहचानते, काम-क्रोध आदि में उनकी (आत्मिक) मौत हो जाती है; सतिगुरू का अदब छोड़ देने के कारण, मन के हठ से किया हुआ उनका कोई भी काम सिरे नहीं चढ़ता, (इस वास्ते) मनमुख मनुष्य जम-पुरी में बँधे हुए मार खाते हैं, कोई उनकी पुकार नहीं सुनता (भाव, कोई उनकी सहायता नहीं कर सकता)।

पर, हे नानक! (ये किसी के वश की बात नहीं) आरम्भ से ही (किए कर्मों) के अनुसार लिखेलेख जीव कमाते हैं (भाव, पिछले किए कर्मों के अनुसार काम किए जाते हैं) (इस तरह) गुरू के सन्मुख रहने वाले बँदों की सुरति नाम में जुड़ी रहती है।2।

पउड़ी ॥ सो सतिगुरु सेविहु साध जनु जिनि हरि हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ सो सतिगुरु पूजहु दिनसु राति जिनि जगंनाथु जगदीसु जपाइआ ॥ सो सतिगुरु देखहु इक निमख निमख जिनि हरि का हरि पंथु बताइआ ॥ तिसु सतिगुर की सभ पगी पवहु जिनि मोह अंधेरु चुकाइआ ॥ सो सतगुरु कहहु सभि धंनु धंनु जिनि हरि भगति भंडार लहाइआ ॥३॥ {पन्ना 586}

पद्अर्थ: द्रिढ़ाइआ = पक्का कर दिया है। जगदीसु = (जगत+ईश) जगत का मालिक। निमख निमख = (भाव,) हर वक्त। निमख = आँख झपकने जितना समय। पंथु = रास्ता। पगी = पैरों पर। भंडार = खजाने।

अर्थ: (हे भाई!) जिस सतिगुरू ने मेरे प्रभू का नाम (मनुष्य के हृदय में) पक्का करवाया है, उस साधु-गुरू की सेवा करो, जिस गुरू ने जगत के मालिक का नाम (जीवों से) जपाया है, उसकी दिन-रात पूजा करो। (हे भाई!) जिस गुरू ने परमात्मा (के मिलने) का राह बताया है, उसका हर वक्त दर्शन करो; जिस सतिगुरू ने (जीवों के दिल में माया के) मोह का अंधेरा दूर किया है, सारे उसी के चरणों में लगो। (हे भाई!) जिस गुरू ने प्रभू की भक्ति के खजाने ढुँढवा दिए हैं, कहो- वह गुरू धन्य है, वह गुरू धन्य है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh