श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ तिसु गुर कउ हउ वारिआ जिनि हरि की हरि कथा सुणाई ॥ तिसु गुर कउ सद बलिहारणै जिनि हरि सेवा बणत बणाई ॥ सो सतिगुरु पिआरा मेरै नालि है जिथै किथै मैनो लए छडाई ॥ तिसु गुर कउ साबासि है जिनि हरि सोझी पाई ॥ नानकु गुर विटहु वारिआ जिनि हरि नामु दीआ मेरे मन की आस पुराई ॥५॥ {पन्ना 588}

पद्अर्थ: बणत = रीत, मर्यादा। जिथै किथै = हर जगह।

अर्थ: मैं सदके हूँ उस सतिगुरू से जिसने प्रभू की बात सुनाई है, और जिसने प्रभू की भक्ति की रीत चलाई है। वह प्यारा सतिगुरू मेरे अंग-संग है, हर जगह मुझे (विकारों से) छुड़वा लेता है; शाबाश है उस सतिगुरू को जिसने मुझे परमात्मा की समझ दी है।

जिस गुरू ने मुझे परमात्मा का नाम दिया है और मेरे मन की आस पूरी की है मैं नानक उससे सदके हूँ।5।

सलोक मः ३ ॥ त्रिसना दाधी जलि मुई जलि जलि करे पुकार ॥ सतिगुर सीतल जे मिलै फिरि जलै न दूजी वार ॥ नानक विणु नावै निरभउ को नही जिचरु सबदि न करे वीचारु ॥१॥ {पन्ना 588}

पद्अर्थ: दाधी = जलाई हुई। सीतलु = ठंडक देने वाली।

अर्थ: दुनिया तृष्णा की जली हुई दुखी हो रही है, जल जल के बिलख रही है; अगर ये ठंढक देने वाले गुरू से मिल जाए, तो फिर ये फिर दुबारा ना जले; (क्योंकि) हे नानक! जब तक गुरू के शबद से मनुष्य प्रभू-विचार (चिंतन) ना करे तब तक (नाम नहीं मिलता, और) नाम के बिना किसी का डर भी खत्म नहीं होता (ये डर और सहम ही बारंबार तृष्णा के अधीन करता है)।1।

मः ३ ॥ भेखी अगनि न बुझई चिंता है मन माहि ॥ वरमी मारी सापु ना मरै तिउ निगुरे करम कमाहि ॥ सतिगुरु दाता सेवीऐ सबदु वसै मनि आइ ॥ मनु तनु सीतलु सांति होइ त्रिसना अगनि बुझाइ ॥ सुखा सिरि सदा सुखु होइ जा विचहु आपु गवाइ ॥ गुरमुखि उदासी सो करे जि सचि रहै लिव लाइ ॥ चिंता मूलि न होवई हरि नामि रजा आघाइ ॥ नानक नाम बिना नह छूटीऐ हउमै पचहि पचाइ ॥२॥ {पन्ना 588}

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव, अपनत्व, स्वार्थ। अघाइ रजा = अच्छी तरह तृप्त रहता है। पचहि = जलते हैं।

अर्थ: भेष धारण करने से (तृष्णा की) आग नहीं बुझती, मन में चिंता टिकी रहती है; जैसे साँप की वरमी को मारने से साँप नहीं मरता वैसे ही गुरू की शरण आए बगैर किए गए कर्म व्यर्थ हैं (गुरू की शरण पड़ कर स्वै भाव मिटाए बगैर तृष्णा की आग नहीं मिटती)। अगर (नाम की दाति) देने वाले गुरू के बताए हुए कर्म करें तो गुरू की शबद मन में आ बसता है, मन-तन ठंडा-ठार हो जाता है, तृष्णा की अग्नि बुझ जाती है और मन में शांति पैदा हो जाती है (गुरू की सेवा में) जब मनुष्य अहंकार दूर करता है तब सबसे श्रेष्ठ सुख मिलता है। गुरू के सन्मुख होया हुआ मनुष्य ही (तृष्णा से) त्याग करता है जो सच्चे नाम में सुरति जोड़े रखता है, उसे बिल्कुल ही चिंता नहीं होती, वह प्रभू के साथ ही पूरी तरह तृप्त हो रहता है।

हे नानक! प्रभू का नाम सिमरन के बिना (तृष्णा की आग से) बचा नहीं जा सकता, (नाम के बिना) जीव अहंकार में पड़े सड़ते हैं।

पउड़ी ॥ जिनी हरि हरि नामु धिआइआ तिनी पाइअड़े सरब सुखा ॥ सभु जनमु तिना का सफलु है जिन हरि के नाम की मनि लागी भुखा ॥ जिनी गुर कै बचनि आराधिआ तिन विसरि गए सभि दुखा ॥ ते संत भले गुरसिख है जिन नाही चिंत पराई चुखा ॥ धनु धंनु तिना का गुरू है जिसु अम्रित फल हरि लागे मुखा ॥६॥ {पन्ना 588}

पद्अर्थ: चिंत = आस। चुखा = रक्ती भर भी।

अर्थ: जिन मनुष्यों ने प्रभू का नाम सिमरा है, उनको सारे सुख मिल गए हैं, उनका सारा मानस जीवन सफल हो गया है जिनके मन में प्रभू के नाम की भूख लगी हुई है (भाव, ‘नाम’ जिनकी जिंदगी का आसरा हो जाता है)। जिन्होंने गुरू के शबद के माध्यम से प्रभू का सिमरन किया है, उनके सारे दुख दूर हो गए।

वे गुरसिख अच्छे संत हैं जिन्होंने (प्रभू के बिना) किसी और की रक्ती भर भी आस नहीं रखी; उनका गुरू भी धन्य है, भाग्यशाली है, जिसके मुँह को (प्रभू की सिफत सालाह रूपी) अमर करने वाले फल लगे हुए हैं (भाव, जिसके मुँह से प्रभू के उस्तति के वचन ही निकलते हैं)।6।

सलोक मः ३ ॥ कलि महि जमु जंदारु है हुकमे कार कमाइ ॥ गुरि राखे से उबरे मनमुखा देइ सजाइ ॥ जमकालै वसि जगु बांधिआ तिस दा फरू न कोइ ॥ जिनि जमु कीता सो सेवीऐ गुरमुखि दुखु न होइ ॥ नानक गुरमुखि जमु सेवा करे जिन मनि सचा होइ ॥१॥ {पन्ना 588}

पद्अर्थ: कलि = दुविधा वाला स्वभाव, प्रभू से विछोड़े वाली हालत (“इक घड़ी न मिलते त कलिजुगु होता”)। जंदारु = गवार, अवैड़ा (फारसी)। फरू = रक्षक।

अर्थ: दुविधा वाली हालत में (मनुष्य के सिर पर) मौत का सहम टिका रहता है; (पर वह जम भी) प्रभू के हुकम में ही काम करता है, जिन्हें गुरू ने (‘कलि’ से) बचा लिया है वे (जम के सहम से) बच जाते हैं, मन के पीछे चलने वाले बँदों को (सहम की) सजा देता है।

जगत (भाव, प्रभू से विछुड़ा हुआ जीव) जमकाल के वश में बँधा पड़ा है, उसका कोई रक्षक नहीं बनता; अगर गुरू के सन्मुख हो के उस प्रभू की बँदगी करें जिसने जम को पैदा किया है (तो फिर जम का) दुख नहीं व्यापता, (बल्कि) हे नानक! जिन गुरमुखों के मन में सच्चा प्रभू बसता है उनकी यम भी सेवा करता है।1।

मः ३ ॥ एहा काइआ रोगि भरी बिनु सबदै दुखु हउमै रोगु न जाइ ॥ सतिगुरु मिलै ता निरमल होवै हरि नामो मंनि वसाइ ॥ नानक नामु धिआइआ सुखदाता दुखु विसरिआ सहजि सुभाइ ॥२॥ {पन्ना 588}

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। रोगि = रोग से। मंनि = मन में।

अर्थ: ये शरीर (अहंकार के) रोग से भरा पड़ा है, गुरू के शबद के बिना अहंम रोग रूपी दुख दूर नहीं होता; अगर गुरू मिल जाए तो मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है (क्योंकि गुरू के मिलने से मनुष्य) परमात्मा का नाम मन में बसाता है। हे नानक! जिन्होंने सुखदाई हरी-नाम सिमरा है उनका अहम्-दुख सहज सुभाय ही दूर हो जाता है।2।

पउड़ी ॥ जिनि जगजीवनु उपदेसिआ तिसु गुर कउ हउ सदा घुमाइआ ॥ तिसु गुर कउ हउ खंनीऐ जिनि मधुसूदनु हरि नामु सुणाइआ ॥ तिसु गुर कउ हउ वारणै जिनि हउमै बिखु सभु रोगु गवाइआ ॥ तिसु सतिगुर कउ वड पुंनु है जिनि अवगण कटि गुणी समझाइआ ॥ सो सतिगुरु तिन कउ भेटिआ जिन कै मुखि मसतकि भागु लिखि पाइआ ॥७॥ {पन्ना 588}

पद्अर्थ:

(दिश = हाथ से इशारा करके दिखलाना। उप = नजदीक। उपदिश = नजदीक दिखाना)।

जिन उपदेसिआ = जिस गुरू ने ईश्वर नजदीक करके दिखा दिया है। गुणी = गुणों का खजाना।

अर्थ: मैं उस गुरू से सदा कुर्बान हूँ जिसने जगत का सहारा नजदीक करके दिखा दिया है, जिसने अहंकार दैत्य को मारने वाले प्रभू का नाम सुनाया है (भाव, नाम-सिमरन की शिक्षा दी है), जिसने अहम् रूपी जहर व अन्य सारे (विकारों का) रोग दूर किया है।

जिस गुरू ने (जीव के) पाप काट के गुणों के खजाने प्रभू की समझ दी है, उसका (जीवों पर) ये बहुत बड़ा उपकार है। ऐसा गुरू उन्हें मिला है जिनके माथे पर मुँह पर (पिछले किए अच्छे कर्मों के संस्कारों के) भाग्य लिखे हुए हैं।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh