श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 589 सलोकु मः ३ ॥ भगति करहि मरजीवड़े गुरमुखि भगति सदा होइ ॥ ओना कउ धुरि भगति खजाना बखसिआ मेटि न सकै कोइ ॥ गुण निधानु मनि पाइआ एको सचा सोइ ॥ नानक गुरमुखि मिलि रहे फिरि विछोड़ा कदे न होइ ॥१॥ {पन्ना 589} पद्अर्थ: निधान = खजाना। पाइआ = पा लिया। अर्थ: (संसार की ओर से) मर के (ईश्वर की ओर) जीने वाले मनुष्य (ही सच्ची) भक्ति करते हैं, असल भक्ति उनके पास ही हो सकती है जो अपने आप को गुरू के हवाले कर देते हैं; ऐसे लोगों को धुर से परमात्मा ने भक्ति के खजाने की दाति बख्शी हुई है, कोई उस बख्शिश को मिटा नहीं सकता; उन्होंने उस गुणों के खजाने प्रभू को अपने मन में पा लिया है जो एक खुद ही खुद है और सदा-स्थिर रहने वाला है। हे नानक! जो मनुष्य अपने आप को गुरू के हवाले कर देते हैं, वे प्रभू में जुड़े रहते हैं, और फिर कभी उनको (प्रभू चरणों से) विछोड़ा नहीं होता।1। मः ३ ॥ सतिगुर की सेव न कीनीआ किआ ओहु करे वीचारु ॥ सबदै सार न जाणई बिखु भूला गावारु ॥ अगिआनी अंधु बहु करम कमावै दूजै भाइ पिआरु ॥ अणहोदा आपु गणाइदे जमु मारि करे तिन खुआरु ॥ नानक किस नो आखीऐ जा आपे बखसणहारु ॥२॥ {पन्ना 589} अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरू द्वारा बताए हुए कर्म नहीं किए, वह और क्या सोचता है? (भाव, उसके और किसी विचार की जरूरत नहीं), वह मूर्ख जहर (को देख के) भूला हुआ गुरू के शबद की कद्र नहीं जानता, वह अंधा-अज्ञानी (अन्य) बहुत सारे कर्म करता है (कर्म-धार्मिक रस्में) पर उसकी सुरति माया के प्यार में (ही लगी रहती है)। जो मनुष्य अपने अंदर कोई गुण ना होते हुए अपने आप को (बड़ा) जताते हैं, उन्हें मन की मार ख्वार करती है; पर, हे नानक! किसी को क्या कहना? परमात्मा खुद ही बख्शिशें करने वाला है (भाव, इस मनमुखता से प्रभू खुद बचाने में समर्थ है, और कोई जीव सहायता नहीं कर सकता)।2। पउड़ी ॥ तू करता सभु किछु जाणदा सभि जीअ तुमारे ॥ जिसु तू भावै तिसु तू मेलि लैहि किआ जंत विचारे ॥ तू करण कारण समरथु है सचु सिरजणहारे ॥ जिसु तू मेलहि पिआरिआ सो तुधु मिलै गुरमुखि वीचारे ॥ हउ बलिहारी सतिगुर आपणे जिनि मेरा हरि अलखु लखारे ॥८॥ पद्अर्थ: सभु किछु = (जीवों के दिल की) हरेक बात। भावै = चाहे। करण = जगत। कारण = मूल, करने वाला। अलखु = अदृश्य। अर्थ: हे सृजनहार! तू सब कुछ जानता है और सारे जीव तेरे हैं। जीव बिचारों के वश में क्या है? जो तुझे अच्छा लगता है उसे तू (अपने चरणों में) मिला लेता है। हे सदा कायम रहने वाले करतार! तू सब कुछ करने की ताकत रखता है, हे प्यारे! जिसे तू खुद मिलाता है वह गुरू के (शबद) के माध्यम से तेरे गुणों का विचार करके तुझे मिल जाता है। मैं प्यारे सतिगुरू पर से सदके हूं जिसने मुझे अदृश्य परमात्मा की समझ बख्श दी है।8। सलोक मः ३ ॥ रतना पारखु जो होवै सु रतना करे वीचारु ॥ रतना सार न जाणई अगिआनी अंधु अंधारु ॥ रतनु गुरू का सबदु है बूझै बूझणहारु ॥ मूरख आपु गणाइदे मरि जमहि होइ खुआरु ॥ नानक रतना सो लहै जिसु गुरमुखि लगै पिआरु ॥ सदा सदा नामु उचरै हरि नामो नित बिउहारु ॥ क्रिपा करे जे आपणी ता हरि रखा उर धारि ॥१॥ {पन्ना 589} पद्अर्थ: पारखु = परख करने वाला, कद्र करने वाला। सार = कद्र। बूझणहारु = समझवाला। आपु = अपने आप को। होइ खुआरु = दुखी हो हो के। लहै = प्राप्त करता है। रखा = मैं रखूँ। उरधारि = हृदय में टिका के। अर्थ: जो मनुष्य रत्नों की कद्र जानता है, वही रत्नों की सोच-विचार कर (सकता) है, पर अंधा अज्ञानी मनुष्य रत्नों की कद्र नहीं पा सकता। कोई समझ वाला मनुष्य ही समझता है कि (असल) रत्न सतिगुरू का शबद है। पर, मूर्ख बँदे (गुरू शबद को समझने की बजाए) अपने आप को ही बड़ा जताते हैं और दुखी होते हो हो के पैदा होते मरते रहते हैं। हे नानक! वही मनुष्य (गुरू-शबद रूप) रत्नों को हासिल करता है जिसे गुरू के माध्यम से (गुरू के शबद की) लगन लगती है; वह मनुष्य सदा प्रभू का नाम जपता है, नाम जपना ही उसका नित्य का व्यवहार बन जाता है। अगर परमात्मा अपनी मेहर करे, तो मैं भी उसका नाम हृदय में परो के रखूँ।1। मः ३ ॥ सतिगुर की सेव न कीनीआ हरि नामि न लगो पिआरु ॥ मत तुम जाणहु ओइ जीवदे ओइ आपि मारे करतारि ॥ हउमै वडा रोगु है भाइ दूजै करम कमाइ ॥ नानक मनमुखि जीवदिआ मुए हरि विसरिआ दुखु पाइ ॥२॥ {पन्ना 589} पद्अर्थ: नामि = नाम में। ओइ = वह लोग। करतारि = करतार ने। कमाइ = कमा के। अर्थ: जिन बँदों ने गुरू द्वारा बताए हुए कर्म नहीं किए, जिनकी लगन प्रभू के नाम में नहीं बनी, ये ना समझो कि वे लोग जीवित हैं, उनको करतार ने खुद ही (आत्मिक मौत) मार दिया है; माया के मोह में कर्म कर कर के उन्हें अहंकार का रोग (चिपका हुआ) है; हे नानक! मन के पीछे चलने वाले लोग जीवित ही मरे हुए जानो। जो मनुष्य ईश्वर को भुलाता है; वह दुख पाता है।2। पउड़ी ॥ जिसु अंतरु हिरदा सुधु है तिसु जन कउ सभि नमसकारी ॥ जिसु अंदरि नामु निधानु है तिसु जन कउ हउ बलिहारी ॥ जिसु अंदरि बुधि बिबेकु है हरि नामु मुरारी ॥ सो सतिगुरु सभना का मितु है सभ तिसहि पिआरी ॥ सभु आतम रामु पसारिआ गुर बुधि बीचारी ॥९॥ {पन्ना 589} पद्अर्थ: अंतरु = अंदरूनी। बिबेकु = परख। मुरारी = परमात्मा। गुर बुधि = गुरू की बुद्धि ने। बीचारी = विचारा है। अर्थ: जिसका अंदरूनी हृदय पवित्र है, उसे सारे जीव नमस्कार करते हैं; जिसके हृदय में नाम (रूप) खजाना है उससे मैं सदके हूँ। जिसके अंदर (भली) मति है, (अच्छे बुरे की) पहचान है और हरी मुरारी का नाम है, वह सतिगुरू सब जीवों का मित्र है और सारी सृष्टि उसे प्यारी लगती है (क्योंकि) सतिगुरू की समझ ने तो ये समझा है कि सब जगह परमात्मा ने अपना आप पसारा हुआ है।9। सलोक मः ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे जीअ के बंधना विचि हउमै करम कमाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे ठउर न पावही मरि जमहि आवहि जाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे फिका बोलणा नामु न वसै मन माहि ॥ नानक बिनु सतिगुर सेवे जम पुरि बधे मारीअनि मुहि कालै उठि जाहि ॥१॥ {पन्ना 589} पद्अर्थ: ठउर = ठिकाना, स्थिति, भटकना से निजात। मुहि कालै = काले मुँह से, मुकालख कमा के। अर्थ: मनुष्य सतिगुरू की सेवा से वंचित हो के अहंकार के आसरे कर्म करते हैं, पर वह कर्म उनकी आत्मा के लिए बँधन हो जाते हैं, सतिगुरू के बताए हुए कर्म ना करने के कारण उन्हें कहीं भी जगह नहीं मिलती, वे मरते हैं (फिर) पैदा होते हैं, (संसार में) आते हैं, (फिर) चले जाते हैं; सतिगुरू द्वारा निर्देशित सेवा से वंचित रह कर उनके बोल भी फीके होते हैं और ‘नाम’ उनके मन में बसता नहीं। हे नानक! सतिगुरू की सेवा के बिना काले मुँह (संसार से) चले जाते हैं और जम-पुरी में बँधे हुए मार खाते हैं (भाव, इस लोक में काला मुँह करवाते हैं और आगे भी दुखी होते हैं)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |