श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ३ ॥ इसु जग महि पुरखु एकु है होर सगली नारि सबाई ॥ सभि घट भोगवै अलिपतु रहै अलखु न लखणा जाई ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: पुरखु = पति, मर्द। सगली = सारी सृष्टि। सबाई = सारी। सभि घट = सारे शरीर। अलिपतु = अलग, निराला।

अर्थ: इस संसार में पति एक परमात्मा ही है, और सारी सृष्टि (उसकी) सि्त्रयां हैं; परमात्मा पति सारे घटों को भोगता है (भाव, सारे शरीरों में व्यापक है) और निर्लिप भी है, इस अलख प्रभू की समझ नहीं पड़ती।

पूरै गुरि वेखालिआ सबदे सोझी पाई ॥ पुरखै सेवहि से पुरख होवहि जिनी हउमै सबदि जलाई ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। सबदे = गुरू शबद के द्वारा। सेवहि = सिमरते हैं। जिनी = जिन मनुष्यों ने। जलाई = जला दी है।

अर्थ: (जिस मनुष्य को) पूरे सतिगुरू ने (उस अलख प्रभू के) दर्शन करवा दिए, उसको सतिगुरू के शबद द्वारा समझ पड़ गई; जिन मनुष्यों ने शबद के माध्यम से अहंकार दूर किया है, जो प्रभू पुरुख को जपते हैं, वे भी उस पुरुष का रूप हो जाते हैं।

तिस का सरीकु को नही ना को कंटकु वैराई ॥ निहचल राजु है सदा तिसु केरा ना आवै ना जाई ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: कंटकु = काँटा।

अर्थ: उस अलख हरी का कोई शरीक नहीं, ना ही कोई दुखी करने वाला (काँटा) उस का वैरी है; उसका राज सदा अटल है, ना वह पैदा होता है ना मरता है।

अनदिनु सेवकु सेवा करे हरि सचे के गुण गाई ॥ नानकु वेखि विगसिआ हरि सचे की वडिआई ॥२॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: विगसिआ = खिल रहा है।

अर्थ: (सच्चा) सेवक उस सच्चे हरी की सिफत सालाह करके हर वक्त उसका सिमरन करता है; नानक (भी उस) सच्चे की महिमा देख के प्रसन्न हो रहा है।2।

पउड़ी ॥ जिन कै हरि नामु वसिआ सद हिरदै हरि नामो तिन कंउ रखणहारा ॥ हरि नामु पिता हरि नामो माता हरि नामु सखाई मित्रु हमारा ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: हमारा = भाव, भगत जनों का।

अर्थ: जिन मनुष्यों के दिल में सदैव हरी नाम बसता है, उन्हें रखने वाला हरी का नाम ही होता है। (उन्हें विश्वास हो जाता है कि) हरी का नाम ही हमारा माता-पिता है और नाम ही हमारा सखा और मित्र है।

हरि नावै नालि गला हरि नावै नालि मसलति हरि नामु हमारी करदा नित सारा ॥ हरि नामु हमारी संगति अति पिआरी हरि नामु कुलु हरि नामु परवारा ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: मसलति = सालाह।

अर्थ: हरी के नाम से ही हमारी बातें, और नाम से ही सलाह हैं; नाम ही सदा हमारी सार लेता है; हरी का नाम ही हमारी प्यारी संगति है, और नाम ही हमारा कुल व परिवार है।

जन नानक कंउ हरि नामु हरि गुरि दीआ हरि हलति पलति सदा करे निसतारा ॥१५॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में।

अर्थ: दास नानक को भी गुरू ने (उस) हरी का नाम दिया है जो इस लोक में और परलोक में पार उतारा करता है।15।

सलोकु मः ३ ॥ जिन कंउ सतिगुरु भेटिआ से हरि कीरति सदा कमाहि ॥ अचिंतु हरि नामु तिन कै मनि वसिआ सचै सबदि समाहि ॥ {पन्ना 592}

अर्थ: जिन्हें सतिगुरू मिला है, वे सदा हरी की सिफत सालाह करते हैं; चिंता से विहीन (करने वाले) हरी का नाम उनके मन में बसता है और वह सतिगुरू के सच्चे शबद में लीन रहते हैं।

कुलु उधारहि आपणा मोख पदवी आपे पाहि ॥ पारब्रहमु तिन कंउ संतुसटु भइआ जो गुर चरनी जन पाहि ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: मोख = (विकारों से) मोक्ष, मुक्ति। पदवी = दर्जा। पाहि = पा लेते हैं

अर्थ: वह मनुष्य अपने कुल का उद्धार कर लेते हैं और खुद भी मुक्ति का रुतबा हासिल कर लेते हैं। जो मनुष्य सतिगुरू के चरणों में लगते हैं, उन पर परमात्मा प्रसन्न हो जाता है।

जनु नानकु हरि का दासु है करि किरपा हरि लाज रखाहि ॥१॥ {पन्ना 592}

अर्थ: दास नानक (भी) उस हरी का दास है, हरी मेहर करके (अपने दास की) लाज रखता है।1।

मः ३ ॥ हंउमै अंदरि खड़कु है खड़के खड़कि विहाइ ॥ हंउमै वडा रोगु है मरि जमै आवै जाइ ॥ {पन्ना 592}

अर्थ: अहंकार में रहने से मनुष्य के मन में अशांति बनी रहती है और उसकी उम्र इस अशांति में ही गुजर जाती है; अहंकार (मनुष्य के लिए) एक बहुत बड़ा रोग है (इस रोग में ही) मनुष्य मरता है, पैदा होता है, आता है फिर जाता है (भाव, जनम-मरन के चक्कर में पड़ा रहता है)।

जिन कउ पूरबि लिखिआ तिना सतगुरु मिलिआ प्रभु आइ ॥ नानक गुर परसादी उबरे हउमै सबदि जलाइ ॥२॥ {पन्ना 592}

अर्थ: जिनके दिल में शुरू से ही (किए कर्मों के संस्कार-रूपी लेख) उकरे हुए हैं, उनको सतिगुरू मिलता है (और सतिगुरू के मिलने से) परमात्मा (भी) आ मिलता है; हे नानक! वह मनुष्य सतिगुरू के शबद द्वारा अहंकार को दूर करके सतिगुरू की कृपा से (‘अहम् रोग’ से) बच जाते हैं।2।

पउड़ी ॥ हरि नामु हमारा प्रभु अबिगतु अगोचरु अबिनासी पुरखु बिधाता ॥ हरि नामु हम स्रेवह हरि नामु हम पूजह हरि नामे ही मनु राता ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: अबिगतु = अव्यक्त, अदृष्ट। अगोचर = अ+गो+चर, इन्द्रियों की पहुँच से परे। बिधाता = पैदा करने वाला।

अर्थ: जो हरी अदृष्य है, जो इन्द्रियों की पहुँच से परे है, नाश से रहित है, हर जगह व्यापक है और सृजनहार है, उसका नाम हमारा (रक्षक) है; हम उस हरी-नाम की सेवा करते हैं, नाम को पूजते हैं, नाम में ही हमारा मन रंगा हुआ है।

हरि नामै जेवडु कोई अवरु न सूझै हरि नामो अंति छडाता ॥ हरि नामु दीआ गुरि परउपकारी धनु धंनु गुरू का पिता माता ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: अंति = आखिरी समय। गुरि = गुरू ने।

अर्थ: हरी के नाम जितना मुझे और कोई नहीं सूझता, नाम ही आखिरी समय में छुड़वाता है। धन्य है उस परोपकारी सतिगुरू के माता-पिता, जिस गुरू ने हमें नाम बख्शा है।

हंउ सतिगुर अपुणे कंउ सदा नमसकारी जितु मिलिऐ हरि नामु मै जाता ॥१६॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: जाता = समझा, पहचाना।

अर्थ: मैं अपने सतिगुरू को सदा नमस्कार करता हूँ, जिसके मिलने से मुझे हरी का नाम समझ आया है।16।

सलोकु मः ३ ॥ गुरमुखि सेव न कीनीआ हरि नामि न लगो पिआरु ॥ सबदै सादु न आइओ मरि जनमै वारो वार ॥ मनमुखि अंधु न चेतई कितु आइआ सैसारि ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: कितु = किस लिए? सैसारि = संसार में।

अर्थ: अंधे मनमुख ने सतिगुरू के सन्मुख हो के ना सेवा की, ना परमात्मा के नाम में उसका प्यार ही लगा, शबद में रस भी न आया, (तभी तो) घड़ी-पल पैदा होता मरता है; अगर अंधा मनुष्य हरी को याद नहीं करता तो संसार में आने का भी क्या लाभ (उसने क्या कमाया) ?

नानक जिन कउ नदरि करे से गुरमुखि लंघे पारि ॥१॥ {पन्ना 592}

अर्थ: हे नानक! जिन मनुष्यों पे मेहर की नजर करता है, वह सतिगुरू के सन्मुख हो के (संसार सागर से) पार उतरते हैं।1।

मः ३ ॥ इको सतिगुरु जागता होरु जगु सूता मोहि पिआसि ॥ सतिगुरु सेवनि जागंनि से जो रते सचि नामि गुणतासि ॥ {पन्ना 592}

पद्अर्थ: गुणतासि = तासि+गुण, गुणों के खजाने उस प्रभू में।

अर्थ: एक सतिगुरू ही सचेत है, और सारा संसार (माया के) मोह में तृष्णा में सोया हुआ है; जो मनुष्य सतिगुरू की सेवा करते हैं और गुणों के खजाने सच्चे नाम में रंगे हुए हैं, (वे) जागते हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh