श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 596 सोरठि मः १ चउतुके ॥ माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई ॥ बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई ॥ हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई ॥ नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई ॥१॥ मनु मानिआ नामु सखाई ॥ पाइ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई ॥ रहाउ ॥ जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई ॥ माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई ॥ गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई ॥ रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई ॥२॥ साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई ॥ मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की खबरि न पाई ॥ अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई ॥ जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना कीआ कमाई ॥३॥ नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई ॥ कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अम्रितु रिदै वसाई ॥ निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई ॥ नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई ॥४॥३॥ {पन्ना 596} पद्अर्थ: नीका = अच्छा, प्यारा। ससुरै = ससुर का। चतुरु = समझदार। को = को, के वास्ते। को = का। बाहरु घरु = घर बाहर, घर घाट। दानु = सेवा (दूसरों की)। इसनानु = पवित्रता, पवित्र आचरण। तितु = उस में, उससे। तनि = शरीर से। तितु तनि = उस शरीर से। धूड़ि धुमाई = धूल ही उड़ाई।1। सखाई = मित्र। परउ = मैं पड़ता हूँ। जिनि = जिस (गुरू) ने। रहाउ। बेधिआ = भेदा। जन = प्रभू के दास, संत जन। वादु = झगड़ा। मगनु = मस्त। अहि = दिन। निसि = रात। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिखु = जहर। गंधण वैणि = गंदे बोल में। रता = मस्त। हितकारी = हितैषी, प्यार करने वाला। रंगि = (प्रभू के) रंग में। रसि = रस में। मनमुखि = जिस मनुष्य का मुंह अपने ही मन की ओर है, जो अपने मन के पीछे चलता है। पति = इज्जत।2। साध सभा = सत्संग। सहजु = अडोलता का आनंद, शांति का रस। राई = रक्ती भी। दर = परमात्मा का दरवाजा। मीटि = मीट के। अखी मीटि चलिआ = आँखें बंद करके ही चलता रहा। अंधिआरा = अंधा। घरु दरु = प्रभू का घर प्रभू का दर। दरि = दर पर।3। अखी वेखा = मैं आँखों से देख सकता हूँ। कंनी = कानों से। सालाही = मैं सिफत सालाह करता हूँ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन वाला नाम। वसाई = मैं बसा सकता हूँ। समाई = व्यापक। सति = सत वाला। नामि = नाम में (जुड़ने से)।4। नोट: इस शबद के सारे बंद चौतुके हैं, हरेक बंद में चार चार तुकें हैं पहले दो शबदों के हरेक बंद में तीन तीन तुके हैं। अर्थ: जो मनुष्य कभी माता-पिता का प्यारा पुत्र था, कभी ससुर का चतुर दामाद था, कभी पुत्र-पुत्री के लिए प्यारा पिता, कभी भाई का बड़ा (स्नेह भरा) भाई था, जब अकालपुरुख का हुकम हुआ तो उसने घर-बार सब कुछ छोड़ दिया, पलक झपकते ही सब कुछ पराया हो गया है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे ने ना नाम जपा ना सेवा की और ना ही पवित्र आचरण बनाया। इस मानस शरीर से मिट्टी ही उड़ाता रहा।1। जिस मनुष्य का मन गुरू के उपदेश में पतीजता है वह परमात्मा के नाम को असल मित्र समझता है। मैं तो गुरू के पैर लगता हूँ, गुरू से सदके जाता हूँ जिसने ये सच्ची मति दी है (कि परमात्मा असल मित्र है)।1। मनमुख का मन जगत से झूठे प्यार में परोया रहता है, संत-जनों से वह झगड़ा खड़ा किए रखता है। माया (के मोह) में मस्त वह दिन रात वह माया की राह ही ताकता रहता है, परमात्मा का नाम कभी नहीं सिमरता, इस तरह (माया के मोह का) जहर खा खा के आत्मिक मौत मर जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य गंदे गीतों (गाने-सुनने) में मस्त रहता है, गंदे गीतों से ही हित करता है, परमात्मा की सिफत सालाह वाली बाणी में उसकी सुरति नहीं जुड़ती। ना वह परमात्मा के प्यार में रंगा जाता है ना वह नाम-रस से आकर्षित होता है। मनमुख इसी तरह अपनी इज्जत गवा लेता है।2। साध-संगति में जा के मनमुख आत्मिक अडोलता का आनंद कभी नहीं पाता, उसकी जीभ को नाम जपने में थोड़ा सा भी स्वाद नहीं आता। मनमुख अपने मन को तन को धन को ही अपना समझे बैठता है परमात्मा के दर की उसे कोई समझ नहीं होती। मनमुख अंधा (जीवन सफर में) आँखे बँद करके ही चलता जाता है, हे भाई! परमात्मा का घर परमात्मा का दर उसे कभी दिखता ही नहीं। आखिर अपने किए का ये लाभ कमाता है कि यमराज के दरवाजे पर बँधा हुआ (मार खाता है, इस सजा से बचने के लिए) उसे कोई सहारा नहीं मिलता।3। (पर हम जीवों के भी क्या वश?) अगर प्रभू स्वयं मेहर की नजर करे तो ही मैं उसे आँखों से देख सकता हूँ, उसके गुणों का बयान नहीं किया जा सकता। (उसकी मेहर हो तो ही) कानों से उसकी सिफत सालाह सुन-सुन के गुरू के शबद के माध्यम से मैं उसकी सिफत सालाह कर सकता हूँ, और अटल आत्मिक जीवन देने वाला उसका नाम दिल में बसा सकता हूँ। हे नानक! प्रभू निरभय है निराकार है निर्वैर है उसकी ज्योति सारे जगत में पूर्ण रूप में व्यापक है, उसके सदा स्थिर रहने वाले नाम में टिकने से ही आदर मिलता है, पर गुरू की शरण के बिना मन की भटकन दूर नहीं होती (और भटकन दूर हुए बिना नाम में जुड़ा नहीं जा सकता)।4।3। सोरठि महला १ दुतुके ॥ पुड़ु धरती पुड़ु पाणी आसणु चारि कुंट चउबारा ॥ सगल भवण की मूरति एका मुखि तेरै टकसाला ॥१॥ मेरे साहिबा तेरे चोज विडाणा ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा आपे सरब समाणा ॥ रहाउ ॥ जह जह देखा तह जोति तुमारी तेरा रूपु किनेहा ॥ इकतु रूपि फिरहि परछंना कोइ न किस ही जेहा ॥२॥ अंडज जेरज उतभुज सेतज तेरे कीते जंता ॥ एकु पुरबु मै तेरा देखिआ तू सभना माहि रवंता ॥३॥ तेरे गुण बहुते मै एकु न जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ॥ प्रणवति नानक सुणि मेरे साहिबा डुबदा पथरु लीजै ॥४॥४॥ {पन्ना 596} पद्अर्थ: दुतुके = दो दो तुकों वाले सारे ‘बंद’। पुड़ ु = चक्की का पुड़। पाणी = बादल, आकाश। कुंट = कूट, पासा। आसणु = निवास स्थान। भवण = सृष्टि। मूरति = मूर्तियां, जीव जंतु। मुखि = मुखी, श्रेष्ठ। तेरै मुखि टकसाला = तेरी श्रेष्ठ टकसाल में घड़े गए हैं।1। चोज = करिश्मे, तमाशे। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। भरिपुरि = भरपूर, नाको नाक । रहाउ। किनेहा = कैसा? बयान से परे। इकतु रूप = एक रूप (होते हुए), एक खुद ही खुद होते हुए। परछंना = छुपा हुआ।2। अंडज = अण्डे से जन्मे हुए। जेरज = ज्योर गर्भ से जन्मे हुए। उतभुज = पानी से धरती में पैदा होए हुए। सेतज = स्वेत (पसीने) से पैदा होए हुए। पूरबु = आश्चर्यजनक खेल, वडिआई। रवंता = रमा हुआ, व्यापक।3। किछु = कोई अच्छी अकल। लीजै = निकाल ले।4। अर्थ: हे मेरे मालिक! तेरे आश्चर्यजनक करिश्मे हैं। तू पानी में, धरती के अंदर, धरती के ऊपर (सारे अंतरिक्ष में) भरपूर व्यापक है। तू खुद ही सब जगह मौजूद है। रहाउ। हे प्रभू! ये सारी सृष्टि तेरा ही चुबारा है, चारों तरफ उस चुबारे की चार दीवारें हैं, धरती उस चुबारे की (नीचे की) पुड़ (चक्की का हिस्सा) है (फर्श है), आकाश उस चुबारे का (ऊपरी) पुड़ है (छत है)। इस चुबारे में तेरा निवास है। सारी सृष्टि (के जीव-जंतुओं) की मूर्तियां तेरी ही श्रेष्ठ टकसाल में घड़ी हुई हैं।1। मैं जिधर देखता हूँ तेरी ही ज्योति (प्रकाशमान) है, पर तेरा स्वरूप कैसा है (ये बयान से परे है)। तू खुद ही खुद होते हुए भी इन बेअंत जीवों में छुप के घूम रहा है (आश्चर्य ये है कि) कोई एक जीव किसी दूसरे जैसा नहीं है।2। अण्डे में से, गर्भ में से, धरती में से, पसीने में से पैदा होए हुए ये सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं (ये सारे अनेकों रंगों और किस्मों के हैं), पर मैं तेरे आश्चर्यजनक खेल को देखता हूँ कि तू इन सभी जीवों में मौजूद है।3। नानक विनती करता है– हे प्रभू! तेरे अनेकों गुण हैं, मुझे किसी एक की भी पूरी समझ नहीं हैं। हे मेरे मालिक! सुन! मुझ मूर्ख को सद-बुद्धि दे, मैं विकारों में डूब रहा हूँ जैसे पत्थर पानी में डूब जाता है। मुझे निकाल ले।4।4। सोरठि महला १ ॥ हउ पापी पतितु परम पाखंडी तू निरमलु निरंकारी ॥ अम्रितु चाखि परम रसि राते ठाकुर सरणि तुमारी ॥१॥ करता तू मै माणु निमाणे ॥ माणु महतु नामु धनु पलै साचै सबदि समाणे ॥ रहाउ ॥ तू पूरा हम ऊरे होछे तू गउरा हम हउरे ॥ तुझ ही मन राते अहिनिसि परभाते हरि रसना जपि मन रे ॥२॥ तुम साचे हम तुम ही राचे सबदि भेदि फुनि साचे ॥ अहिनिसि नामि रते से सूचे मरि जनमे से काचे ॥३॥ अवरु न दीसै किसु सालाही तिसहि सरीकु न कोई ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा गुरमति जानिआ सोई ॥४॥५॥ {पन्ना 596-597} पद्अर्थ: हउ = मैं। पतित = गिरा हुआ, विकारों में पड़ा हुआ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। रसि = रस में। ठाकुर = हे ठाकुर!1। करता = हे करतार! महतु = महत्वता, वडिआई। रहाउ। ऊरे = ऊणे, छोटे। होछे = छोटी सीमा वाले। गउरा = भारा, गंभीर। हउरे = हल्के। मन = जिनके मन। रसना = जीभ। मन रे = हे मेरे मन! सचे = सदा स्थिर रहने वाले। भेदि = भेद के। फुनि = दुबारा, भी। अहि = दिन। निसि = रात। नामि = नाम में। काचे = कच्ची घाड़त वाले, कोझी घड़त वाले।3। सलाही = मैं सिफत सालाह करूँ। सरीकु = बराबर का।4। अर्थ: हे मेरे करतार! (दुनिया में किसी को धन का गुमान, किसी को गुणों का फख़र। मेरे पास तो गुण नहीं हैं) मुझे निमाण के लिए तो तू ही माण है (मुझे तेरा ही माण है आसरा है) जिनके पल्ले परमात्मा का नाम धन है, जो गुरू-शबद के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू में लीन रहते हैं उन्हें ही मान मिलता है उन्हें ही बड़प्पन मिलता है। रहाउ। हे मेरे ठाकुर! मैं विकारी हूँ, (सदा वकारों में ही) गिरा रहता हूँ, बड़ा ही पाखण्डी हूँ, तू पवित्र निरंकार है। (इतनी ज्यादा दूरी होते हुए मैं तेरे चरणों में कैसे पहुँचू?)। (पर तू शरण पड़े की लाज रखने वाला है) जो लोग तेरी शरण पड़ते हैं; वे अटल आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम-रस चख के उस सबसे उच्च रस में मस्त रहते हैं।1। हे प्रभू! तू गुणों से भरपूर है, हम जीव छोटे हैं, तुच्छ बुद्धि के हैं। तू गंभीर है हम हल्के हैं (हे प्रभू!) जिनके मन दिन-रात हर वक्त तेरे प्यार में रंगे रहते हैं (उन्हें तू अपने चरणों में जोड़ के संपूर्ण और गंभीर बना लेता है)। हे मेरे मन! तू भी जीभ से परमात्मा का नाम जप (तेरे अंदर भी उसकी मेहर से गुण पैदा हो जाएंगे)।2। हे प्रभू! तू सदा-स्थिर रहने वाला है, अगर हम जीव तेरी याद में ही टिके रहें, अगर हम सिफत सालाह के शबदों में भेदे रहें, तो हम भी (तेरी मेहर से) अडोल-चिक्त हो सकते हैं। जो मनुष्य दिन-रात तेरे नाम में रंगे रहते हैं वे पवित्र-आत्मा हैं, (पर नाम विसार के) जो जनम-मरण के चक्कर में पड़े हुए हैं उनके मन की घाड़त अभी कोझी है।3। परमात्मा के बराबर का कोई नहीं है, कोई और मुझे उस जैसा दिखता ही नहीं जिसकी मैं सिफत सालाह कर सकूँ। नानक विनती करता हॅ मैं उनके दासों का दास हूँ जिन्होंने गुरू की मति ले के उस (जिसका कोई शरीक नहीं है) परमात्मा से गहरी सांझ डाल ली है।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |