श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 597 सोरठि महला १ ॥ अलख अपार अगम अगोचर ना तिसु कालु न करमा ॥ जाति अजाति अजोनी स्मभउ ना तिसु भाउ न भरमा ॥१॥ साचे सचिआर विटहु कुरबाणु ॥ ना तिसु रूप वरनु नही रेखिआ साचै सबदि नीसाणु ॥ रहाउ ॥ ना तिसु मात पिता सुत बंधप ना तिसु कामु न नारी ॥ अकुल निरंजन अपर पर्मपरु सगली जोति तुमारी ॥२॥ घट घट अंतरि ब्रहमु लुकाइआ घटि घटि जोति सबाई ॥ बजर कपाट मुकते गुरमती निरभै ताड़ी लाई ॥३॥ जंत उपाइ कालु सिरि जंता वसगति जुगति सबाई ॥ सतिगुरु सेवि पदारथु पावहि छूटहि सबदु कमाई ॥४॥ सूचै भाडै साचु समावै विरले सूचाचारी ॥ तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ॥५॥६॥ {पन्ना 597} पद्अर्थ: अलख = (अलक्ष्य, invisible) अदृश्य। अगंम = अपहुँच। गो = ज्ञानेन्द्रियां। गोचर = जिस तक ज्ञानेन्द्रियां पहुँच सकें। अगोचर = अ+गोचर, जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। कालु = मौत। करमा = कर्म, काम। अजाति = जिसकी कोई जाति नहीं। संभउ = (स्वयंभू) अपने आप से उत्पन्न होने वाला। भाउ = मोह।1। सचिआर = सत्यालय, सच का श्रोत। विटहु = से। वरनु = रंग। रेखिआ = चिन्ह, रेखा। नीसाणु = घर पता। रहाउ। सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। कामु = काम वासना। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं। परंपरु = परे से परे, बेअंत।2। अंतरि = अंदर। घटि घटि = हरेक घट में। सबाई = हर जगह। बजर = पत्थर जैसे कठोर। कपाट = किवाड़, भित्त। मुकते = मुक्त हो जाते हैं, खुल जाते हैं। निरभै = निडर। ताड़ी = समाधी।3। सिरि जंता = सब जीवोंके सिर पर। सबाई = सारी। वसगति = वश में की हुई। पावहि = जीव प्राप्त करते हैं। कमाई = कमा के।4। भाडे = बर्तन में। सूचाचारी = स्वच्छ आचरण वाला। तंतै कउ = जीवात्मा को। परम तंतु = परम आत्मा।5। अर्थ: मैं सदा कुर्बान हूँ उस परमात्मा से जो सदा कायम रहने वाला है और जो सच्चाई का श्रोत है। उस परमात्मा का ना कोई रूप है ना कोई रंग है ना ही कोई चक्र चिन्ह ही है। सच्चे शबद में जुड़ने से उसके घर घाट का ठिकाना पता चलता है। रहाउ। वह परमात्मा अदृश्य है, बेअंत है, अपहुँच है, मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियां उसे समझ नहीं सकतीं, मौत उसे छू नहीं सकती, कर्मों का उस पर कोई दबाव नहीं (जैसे जीव कर्म अधीन हैं वह नहीं)। उस प्रभू की कोई जाति नहीं, वह जूनियों में नहीं पड़ता, उसका प्रकाश अपने आप से है। ना उसे कोई मोह व्याप्तता है, ना ही उसे कोई भटकना है।1। उस प्रभू के ना माँ ना पिता ना उसका कोई पुत्र ना ही रिश्तेदार। ना उसे काम वासना सताती है ना ही उसकी कोई पत्नी है। उस का कोई खास कुल नहीं, वह माया के प्रभाव से परे है, बेअंत है, परे से परे है। हे प्रभू! हर जगह तेरी ही ज्योति प्रकाशमान है।2। हरेक शरीर के अंदर परमात्मा गुप्त हो के बैठा हुआ है, हरेक घट में हर जगह पर उसी की ही ज्योति है (पर माया के मोह के कठोर किवाड़ लगे होने के कारण जीव को ये हकीकत समझ नहीं आती)। गुरू की मति पर चल के जिस मनुष्य के ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं उसे ये समझ आ जाता है कि (वह) हरेक जीव में व्यापक होता हुआ भी प्रभू निडर अवस्था में टिका बैठा है।3। सब जीवों को पैदा करके सबके सिर पर परमात्मा ने मौत (भी) टिकाई हुई है, सब जीवों की जीवन-जुगति प्रभू ने अपने वश में रखी हुई है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल कर नाम-पदार्थ हासिल करते हैं, वे गुरू शबद को कमा के (गुरू के शबद अनुसार जीवन ढाल के माया के बँधनों से) आजाद हो जाते हैं।4। पवित्र हृदय में ही सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा टिक सकता है, पर स्वच्छ आचरण वाले (पवित्र दिल वाले) कोई विरले ही होते हैं। (गुरू अपने शबद के द्वारा हृदय पवित्र करके) जीव को परमात्मा से मिलाता है। हे नानक! अरदास कर- हे प्रभू! मैं तेरी शरण में हूँ (मुझे अपने चरणों में जोड़े रख)।5।6। सोरठि महला १ ॥ जिउ मीना बिनु पाणीऐ तिउ साकतु मरै पिआस ॥ तिउ हरि बिनु मरीऐ रे मना जो बिरथा जावै सासु ॥१॥ मन रे राम नाम जसु लेइ ॥ बिनु गुर इहु रसु किउ लहउ गुरु मेलै हरि देइ ॥ रहाउ ॥ संत जना मिलु संगती गुरमुखि तीरथु होइ ॥ अठसठि तीरथ मजना गुर दरसु परापति होइ ॥२॥ जिउ जोगी जत बाहरा तपु नाही सतु संतोखु ॥ तिउ नामै बिनु देहुरी जमु मारै अंतरि दोखु ॥३॥ साकत प्रेमु न पाईऐ हरि पाईऐ सतिगुर भाइ ॥ सुख दुख दाता गुरु मिलै कहु नानक सिफति समाइ ॥४॥७॥ {पन्ना 597} पद्अर्थ: मीना = मछली। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य, माया ग्रसित जीव। मरै = आत्मिक मौत मरता है। पिआस = माया की तृष्णा। बिरथा = खाली।1। जसु = यश, शोभा। किउ लहउ = मैं कैसे ढूँढू? मुझे नहीं मिल सकता। देइ = देता है। रहाउ। मिलु = (हुकमी भविष्यत, मध्यम पूरुष, एक वचन) (हे भाई!) मिल। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहना। अठसठि = अढ़सठ (शब्द ‘तीरथु’ एकवचन है, ‘तीरथ’ बहुवचन है)। मजना = स्नान। गुर दरसु = गुरू का दर्शन।2। जत = इन्द्रियों को वश में रखना। देहुरी = शरीर। जमु = मौत, मौत का डर। दोखु = विकार।3। साकत = साकतों से। भाइ = प्रेम में। समाइ = लीन रहता है।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम की सिफत सालाह किया कर। (पर) गुरू की शरण पड़े बिना ये आनंद नहीं मिल सकता। प्रभू (मेहर करके) जिसे गुरू मिलवाता है उसे ही (ये रस) देता है। रहाउ। जैसे पानी के बिना मछली (तड़फती) है वैसे ही माया-ग्रसित जीव तृष्णा के अधीन रह के दुखी रहता है। इसी तरह, हे मन! हरी-सिमरन के बिना जो भी स्वाश खाली जाता है (उसमें दुखी हो हो के) आत्मिक मौत मरना पड़ता है।1। (हे मन!) संत जनों की संगति में मिल (सत्संग में रह के) गुरू के सन्मुख रहना ही (असल) तीर्थ (स्नान) है। जिस मनुष्य को गुरू के दर्शन हो जाते हैं उसे अढ़सठ तीर्थों के स्नान प्राप्त हो जाते हैं।2। जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं किया वह जोगी (निष्फल) है, अगर अंदर संतोष नहीं, उच्च जीवन नहीं, तो (किया हुआ) तप व्यर्थ है। इसी तरह अगर प्रभू का नाम नहीं सिमरा, तो ये मनुष्य शरीर व्यर्थ है। नाम-हीन मनुष्य के अंदर विकार ही विकार हैं, उसे जमराज सजा देता है।3। (प्रभू के चरनों का) प्यार माया-ग्रसित लोगों से नहीं मिलता, गुरू से प्यार डालने पर ही परमात्मा मिलता है। हे नानक! कह– जिस मनुष्य को गुरू मिल जाता है, उसे सुख-दुख देने वाला रॅब मिल जाता है, वह सदा प्रभू की सिफत सालाह में लीन रहता है।4।7। सोरठि महला १ ॥ तू प्रभ दाता दानि मति पूरा हम थारे भेखारी जीउ ॥ मै किआ मागउ किछु थिरु न रहाई हरि दीजै नामु पिआरी जीउ ॥१॥ घटि घटि रवि रहिआ बनवारी ॥ जलि थलि महीअलि गुपतो वरतै गुर सबदी देखि निहारी जीउ ॥ रहाउ ॥ मरत पइआल अकासु दिखाइओ गुरि सतिगुरि किरपा धारी जीउ ॥ सो ब्रहमु अजोनी है भी होनी घट भीतरि देखु मुरारी जीउ ॥२॥ जनम मरन कउ इहु जगु बपुड़ो इनि दूजै भगति विसारी जीउ ॥ सतिगुरु मिलै त गुरमति पाईऐ साकत बाजी हारी जीउ ॥३॥ सतिगुर बंधन तोड़ि निरारे बहुड़ि न गरभ मझारी जीउ ॥ नानक गिआन रतनु परगासिआ हरि मनि वसिआ निरंकारी जीउ ॥४॥८॥ {पन्ना 597-598} पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! दानि = दान (देने) में। मति पूरा = पूर्ण बुद्धिमान, कभी ना गलती करने वाला। थारे = तेरे। भेखारी = मंगते। मागउ = मैं मांगू। थिरु = सदा टिके रहने वाला। न रहाई = न रहे, नहीं रहता। हरि = हे हरी! पिआरी = मैं प्यार करूँ।1। रवि रहिआ = व्यापक हो रहा है। बनवारी = परमात्मा। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। देखि निहारी = अच्दी तरह देख। रहाउ। मरत = मातृ लोक, ये धरती। पइआल = पाताल। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुर ने। है भी = अब भी मौजूद है। होनी = आगे भी मौजूद रहेगा।2। बपुड़े = विचारा। इनि = इस (जगत) ने। दूजै = दूसरे (मोह) में (फंस के)। साकत = साकतों ने, माया ग्रसित लोगों ने।3। सतिगुर = हे सतिगुरू! तोड़ि = तोड़ के। निरारे = निराले, निर्लिप। बहुड़ि = दुबारा। मझारी = में। नानक = हे नानक! परगासिआ = चमका, रौशन हुआ। मनि = मन में।4। अर्थ: हे प्रभू जी! तू हमें सब पदार्थ देने वाला है, दातें देने में तू कभी चूकता नहीं, हम तेरे (दर के) मंगते हैं। मैं तुझ से कौन सी चीज माँगू? कोई भी चीज सदा टिकी नहीं रहने वाली। (हाँ, तेरा नाम ही है जो सदा स्थिर रहने वाला है। इसलिए) हे हरी! मुझे अपना नाम दे, मैं तेरे नाम को प्यार करूँ।1। परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है। पानी में, धरती में, धरती पर, आकाश में हर जगह मौजूद है पर छुपा हुआ है। (हे मन!) गुरू के शबद के माध्यम से उसे देख। रहाउ। (हे भाई! जिस मनुष्य पर) गुरू ने सतिगुरू ने कृपा की उसको उसने धरती आकाश पाताल (सारा जगत ही परमात्मा के अस्तित्व से भरपूर) दिखा दिया। वह परमात्मा जूनियों में नहीं आता, अब भी मौजूद है, आगे भी मौजूद रहेगा, (हे भाई!) उस प्रभू को तू अपने दिल में बसता देख।2। ये भाग्यहीन जगत जनम-मरण का चक्कर सहेड़े बैठा है क्योंकि इसने माया के मोह में पड़ कर परमात्मा की भक्ति भुला दी है। अगर सतिगुरू मिल जाए तो गुरू के उपदेश में चलने से (प्रभू की भक्ति) प्राप्त होती है, पर माया-ग्रसित जीव (भक्ति से टूट के मानस जन्म की) बाजी हार जाते हैं।3। हे सतिगुरू! माया के बँधन तोड़ के जिन लोगों को तू माया से निर्लिप कर देता है, वह दुबारा जनम-मरन के चक्कर में नहीं पड़ता। हे नानक! (गुरू की कृपा से जिनके अंदर परमात्मा के) ज्ञान का रतन चमक पड़ता है, उनके मन में हरी निरंकार (स्वयं) आ बसता है।4।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |